ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 19
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व॒यमु॑ त्वा गृहपते जनाना॒मग्ने॒ अक॑र्म स॒मिधा॑ बृ॒हन्त॑म्। अ॒स्थू॒रि नो॒ गार्ह॑पत्यानि सन्तु ति॒ग्मेन॑ न॒स्तेज॑सा॒ सं शि॑शाधि ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । गृ॒ह॒ऽप॒ते॒ । ज॒ना॒ना॒म् । अग्ने॑ । अक॑र्म । स॒म्ऽइधा॑ । बृ॒हन्त॑म् । अ॒स्थू॒रि । नः॒ । गार्ह॑पत्यानि । स॒न्तु॒ । ति॒ग्मेन॑ । नः॒ । तेज॑सा । सम् । सि॒शा॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमु त्वा गृहपते जनानामग्ने अकर्म समिधा बृहन्तम्। अस्थूरि नो गार्हपत्यानि सन्तु तिग्मेन नस्तेजसा सं शिशाधि ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठवयम्। ऊँ इति। त्वा। गृहऽपते। जनानाम्। अग्ने। अकर्म। सम्ऽइधा। बृहन्तम्। अस्थूरि। नः। गार्हपत्यानि। सन्तु। तिग्मेन। नः। तेजसा। सम्। शिशाधि ॥१९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 19
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्गृहस्थैः कथं प्रयतितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे गृहपतेऽग्ने ! वयं जनानां मध्ये त्वाऽऽश्रित्य समिधाऽग्निं बृहन्तमकर्म्म। उ नोऽस्थूरि गार्हपत्यानि च यथा सिद्धानि सन्तु तथा तिग्मेन तेजसा त्वं नः सं शिशाधि ॥१९॥
पदार्थः
(वयम्) (उ) (त्वा) त्वाम् (गृहपते) गृहस्य पालक (जनानाम्) मनुष्याणां मध्ये (अग्ने) अग्निवद्वर्त्तमान (अकर्म्म) कुर्य्याम (समिधा) प्रदीपकेन साधनेन (बृहन्तम्) महान्तम् (अस्थूरि) अस्थिरं यानम् (नः) अस्माकम् (गार्हपत्यानि) गृहपतिना संयुक्तानि कर्म्माणि (सन्तु) (तिग्मेन) तीव्रेण (नः) अस्मान् (तेजसा) (सम्) (शिशाधि) सम्यक्तया शिक्षय ॥१९॥
भावार्थः
हे गृहस्था जना ! यूयमालस्यं विहाय सृष्टिक्रमेण विद्योन्नतिं कृत्वाऽन्यान् विद्यार्थिनो विद्यां ग्राहयत येन सर्वाणि सुखानि वर्धेरन्निति ॥१९॥ अत्राऽग्निविद्वदीश्वरगृहस्थकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चदशं सूक्तं विंशो वर्गः षष्ठे मण्डले प्रथमोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर गृहस्थों को कैसा प्रयत्न करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (गृहपते) गृहस्थों के पालन करनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान (वयम्) हम लोग (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य में (त्वा) आपका आश्रय करके (समिधा) प्रदीपक साधन से अग्नि को (बृहन्तम्) बड़ा (अकर्म्म) करें (उ) और (नः) हम लोगों का (अस्थूरि) चलनेवाला वाहन और (गार्हपत्यानि) गृहपति से संयुक्त कर्म्म जिस प्रकार से सिद्ध (सन्तु) हों उस प्रकार से (तिग्मेन) तीव्र (तेजसा) तेज से आप (नः) हम लोगों को (सम्, शिशाधि) उत्तम प्रकार शिक्षा दीजिये ॥१९॥
भावार्थ
हे गृहस्थजनो ! आप लोग आलस्य का त्याग करके सृष्टिक्रम से विद्या की उन्नति करके अन्य विद्यार्थियों को विद्या ग्रहण कराइये, जिससे सब सुख बढ़े ॥१९॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान्, ईश्वर और गृहस्थ के कार्य्यों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पन्द्रहवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग और छठे मण्डल का पहिला अनुवाक समाप्त हुआ ॥
विषय
सर्वहितार्थ यज्ञाग्निवत् विद्वान् नायक का आधान । जिससे वह तीक्ष्ण तेज से शासन करे ।
भावार्थ
(समिधा बृहन्तम् ) जिस प्रकार लोग अग्नि को समिधा द्वारा बढ़ाते हैं उसी प्रकार हे ( गृहपते ) गृह के उपासक ! हे (अग्ने) अग्निवत् तेजस्विन्, नायक ! अंग या देह के नेता आत्मा के तुल्य ! (वयम् उ ) हम अवश्य ( त्वा ) तुझको ( जनानाम् ) सब मनुष्यों के हितार्थ (सम्-इधा) सम्यक् समर्थ तेज और ज्ञान से ( बृहन्तम् अकर्म्म ) वृद्धिशील, महान् बनावें । जिससे ( नः ) हमारे ( गार्हपत्यानि ) गृहपति के समस्त कार्य, ( अस्थूरि ) निर्विघ्न ( सन्तु ) हों । और तू ( तिग्मेन तेजसा ) तीक्ष्ण प्रकाश से अग्निवत् ही तीक्ष्ण प्रभाव से ( नः ) हमें ( सं शिशाधि ) सन्मार्ग में अच्छी प्रकार शासन कर ॥ इति विंशो वर्गः । इति षष्ठे मण्डले प्रथमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अस्थूरि नो गार्हयत्यानि सन्तु
पदार्थ
[१] हे (जनानाम्) = लोगों के (गृहपते) = घरों के रक्षक (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (समिधा) = ज्ञान दीप्ति के द्वारा (त्वा) = आपको (बृहन्तम्) = बढ़ा हुआ अकर्म करें। अर्थात् ज्ञान को बढ़ाते हुए आपके प्रकाश को अधिकाधिक देखनेवाले बनें। स्वाध्याय के द्वारा आपका उपासन करें। [२] (नः) = हमारे (गार्हपत्यानि) = गृहस्थ के कर्त्तव्य (अस्थूरि सन्तु) = एक अश्व युक्त गाड़ी के समान न हो जाएँ। अर्थात् पति-पत्नी दोनों दीर्घ जीवन को प्राप्त करके गृहस्थ के कर्त्तव्यों को सम्यक् निभा पायें। आप हमें (तिग्मेन तेजसा) = तीक्ष्ण तेज से (सं शिशाधि) = सम्यक् तीक्ष्ण करिये । हमें आप तेजस्वी बनाइये । हमारी तेजस्विता शत्रुओं को समाप्त करनेवाली हो ।
भावार्थ
भावार्थ- स्वाध्याय द्वारा ज्ञान को बढ़ाते हुए हम प्रभु के प्रकाश को अधिकाधिक देखनेवाले बनें। हम पति-पत्नी दोनों गृहस्थ की गाड़ी को सम्यक् खैंचें । तीक्ष्ण तेजस्विता को प्राप्त करें । अगले सूक्त में भी भरद्वाज स्तुति करते हुए कहते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
हे गृहस्थांनो! तुम्ही आळस सोडून सृष्टिक्रमाने विद्येची उन्नती करा. इतर विद्यार्थ्यांना विद्या ग्रहण करवा. ज्यामुळे सुख वाढेल. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, leading light and power, sustainer of people’s homes, we exalt you and develop power and energy higher and higher with knowledge and inputs of fuel so that our multipower transports and domestic needs be fulfilled. O brilliant lord, enlighten us, teach us by your penetrative and far reaching lustre of knowledge and vision.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the householders endeavor is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O master of the house, who are purifier like the fire! we among men with kindled fuel, make the fire mighty. Let not our householder (be out of. Ed.) gear and vehicles be found defective. Let them be perfectly alright. Sharpen us with your penetrating splendor and unlighten us well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O householder! you should give up all laziness and having made progress in knowledge of physics and other sciences, teach other students also, so that happiness of all kinds may increase. (boost. Ed.)
Foot Notes
(अस्थूरि) अस्थिरं यानम् | = Not strong vehicle. ( सम् शिशाधि ) सम्यक्तया शिक्षय । सम् + शासु अनुशिष्टी अथवा यणानुक्तमम् । शो-तनू करणे इत्यस्य रूप छान्दस । तदः सम्यक् तीक्ष्णी कुरू इत्यर्थ:। = Enlighten us well.
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