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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒भूष॑न्नग्न उ॒भयाँ॒ अनु॑ व्र॒ता दू॒तो दे॒वानां॒ रज॑सी॒ समी॑यसे। यत्ते॑ धी॒तिं सु॑म॒तिमा॑वृणी॒महेऽध॑ स्मा नस्त्रि॒वरू॑थः शि॒वो भ॑व ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभूष॑न् । अ॒ग्ने॒ । उ॒भया॒न् । अनु॑ । व्र॒ता । दू॒तः । दे॒वाना॑म् । रज॑सी॒ इति॑ । सम् । ई॒य॒से॒ । यत् । ते॒ । धी॒तिम् । सु॒ऽम॒तिम् । आ॒ऽवृ॒णी॒महे॑ । अध॑ । स्म॒ । नः॒ । त्रि॒ऽवरू॑थः । शि॒वः । भ॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभूषन्नग्न उभयाँ अनु व्रता दूतो देवानां रजसी समीयसे। यत्ते धीतिं सुमतिमावृणीमहेऽध स्मा नस्त्रिवरूथः शिवो भव ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभूषन्। अग्ने। उभयान्। अनु। व्रता। दूतः। देवानाम्। रजसी इति। सम्। ईयसे। यत्। ते। धीतिम्। सुऽमतिम्। आऽवृणीमहे। अध। स्म। नः। त्रिऽवरूथः। शिवः। भव ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स ईश्वर उपासितः किं करोतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यस्त्वं रजसी देवानां दूतः सन् व्रता विभूषन्नुभयान् मनुष्याननु विभूषन् रजसी समीयसे यत्ते धीतिं सुमतिं वयमावृणीमहे सोऽध त्रिवरूथस्त्वं नः शिवः स्मा भव ॥९॥

    पदार्थः

    (विभूषन्) अलं कुर्वन् (अग्ने) सर्वदुःखदाहक परमेश्वर (उभयान्) विद्वदविद्वन्मनुष्यान् (अनु) (व्रता) कर्म्माणि (दूतः) यो दोषान् दुनोति दूरीकरोति धर्म्मार्थमोक्षान् प्रापयति वा (देवानाम्) विदुषाम् (रजसी) द्यावापृथिव्यौ (सम्) (ईयसे) व्याप्नोषि (यत्) यस्य (ते) तव (धीतिम्) धारणां धियं वा (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम्। (आवृणीमहे) स्वीकुर्महे (अध) अथ (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (त्रिवरूथः) त्रीण्युत्तममध्यमनिकृष्टानि वरूथा गृहाणीव निवासस्थानानि यस्य सः। (शिवः) मङ्गलकारी (भव) ॥९॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या जगत्स्रष्टुरीश्वरस्याज्ञामनुवर्त्तन्ते तस्य गुणकर्म्मस्वभावैः सदृशान्त्स्वगुणकर्म्मस्वभावान् कुर्वन्ति तान् स दूत इव सर्वविद्यासमाचारं बोधयन् सहजतया मुक्तिपदं नयति तस्मात् सर्वदैवाऽयमुपासनीयोऽस्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह उपासित ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सम्पूर्ण दुःखों को जलाने अर्थात् दूर करनेवाले परमेश्वर ! जो आप (रजसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (देवानाम्) विद्वानों के (दूतः) दोषों को दूर करने अथवा धर्म्म, अर्थ और मोक्ष को प्राप्त करानेवाले होते हुए (व्रता) कर्मों को (विभूषन्) शोभित करते और (उभयान्) विद्वान् और अविद्वान् मनुष्यों को (अनु) पीछे शोभित करते हुए अन्तरिक्ष और पृथिवी को (सम्, ईयसे) व्याप्त होते हैं और (यत्) जिस (ते) आपकी (धीतिम्) धारणा वा बुद्धि को (सुमतिम्) श्रेष्ठ बुद्धि को हम लोग (आवृणीमहे) स्वीकार करें वह (अध) इसके अनन्तर (त्रिवरूथः) तीन उत्तम, मध्यम, निकृष्ट गृहों के सदृश निवासस्थानवाले आप (नः) हम लोगों के लिये (शिवः) कल्याणकारी (स्मा) ही (भव) हूजिये ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य जगत् के रचनेवाले ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करते हैं तथा उसके गुण, कर्म्म और स्वभावों के सदृश अपने गुण, कर्म्म और स्वभावों को करते हैं, उनको वह जैसे दूत, वैसे सब विद्या के समाचार को जनाता हुआ सहज से मुक्ति के पदको प्राप्त कराता है, इससे सब काल में ही इसकी उपासना करनी चाहिये ॥९॥

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    विषय

    तिमंजिले भवन के समान त्रिविध तापवारक प्रभु ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! विद्वन् ! सर्व प्रकाशक ! प्रभो परमेश्वर ! तू ( उभयान् अनु ) विद्वान् और अविद्वान् दोनों प्रकार के मनुष्यों को हितकारी, उनके ( व्रता अनु ) कर्मों के अनुसार ( विभूषन् ) व्यवस्था करता हुआ ( देवानां ) दिव्य समस्त पदार्थों और विद्वानों के बीच में सबसे उपासित, होकर ( रजसी) आकाश और भूमि दोनों लोकों में ( सम् ईयसे ) व्याप्त हो रहा है । ( यत् ) जिस ( ते धीतिम् ) तेरा ध्यान और ( सुमतिम् ) शुभ मति, शुभ ज्ञान को ( आ वृणीमहे ) हम आदर पूर्वक वरण करते हैं । हे प्रभो ! (अध) और तू (नः) हमारे लिये ( त्रि-वरूथः ) तीन मंजिलों वाले घर के समान (त्रि-वरूथः) मन, वाणी, काय तीनों से वरण करने योग्य, वा तीनों प्रकार के दुःखों का वारण करने वाला होकर ( नः शिवः भव) हमारे लिये कल्याणकारी हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सोमपान व सुमति' का वरण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (उभयान्) = गत मन्त्र में उल्लिखित दोनों देवों व साधारण मनुष्यों को (अनुव्रता) = व्रतों के अनुसार, (विभूषन्) = उस- उस शक्ति से अलंकृत करते हुए, (देवानाम्) = देववृत्ति के पुरुषों को (दूतः) = ज्ञान सन्देश प्राप्त कराते हुए (रजसी) = इन द्यावापृथिवी (समीयसे) = संगत होते हैं। सर्वत्र आप विचरते हैं, कर्मानुसार व्यवस्था करते हुए, ज्ञान का सन्देश देते हुए आप सर्वत्र विद्यमान हो रहे हैं। [२] (यत्) = जब (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये हम (धीतिम्) = सोम शक्ति के पान को, वीर्य-संयम को व (सुमतिम्) = वीर्य संयम से उत्पन्न कल्याणी मति को (आवृणीमहे) = हम वरते हैं, (अध स्मा) = तो निश्चय से (नः) = हमारे लिये (त्रिवरूथ:) = शरीर, मन व बुद्धि तीनों को सुरक्षित करनेवाले और इस प्रकार (शिवः) = कल्याणकर (भव) = होइये, तीनों के ऐश्वर्य को हमें प्राप्त कराइये ( वरूथ=wealth)

    भावार्थ

    भावार्थ- सबका कल्याण करते हुए प्रभु सर्वत्र विचरते हैं। प्रभु प्राप्ति के लिये हम 'सोमरक्षण व सुमति' का वरण करते हैं। प्रभु हमें 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों के ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे जगाची निर्मिती करणाऱ्या ईश्वराच्या आज्ञेनुसार वागतात व त्याच्या गुण-कर्मस्वभावानुसार आपले गुण-कर्म स्वभाव बनवितात, तेव्हा दूत जसा विद्येचा समाचार देतो तसा (ईश्वर) सहजतेने त्यांना मुक्तिपद प्राप्त करवून देतो. त्यासाठी सर्वकाळ त्याचीच उपासना केली पाहिजे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord beatific, purifying fire, gracious to both wise and innocent according to your eternal law, self-refulgent light giver for the brilliant and generous, you pervade heaven and earth with your saving presence. As we meditate on your holy light and vision of knowledge, in consequence by your grace be kind and good to us, O lord of three worlds, omnipresent, omniscient and omnificent.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How does God aet and how is 'e is to be adored is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Burner or Destroyer of all miseries like the fire! as you being the remover of all evils or defects the enlightened persons or conveyor of the Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama or fulfilment of all noble desires and moksha (emancipation) and adorning all noble deeds and both the enlightened and ordinary persons pervade the universe when we accept meditation on you and you gracious care. Be to us the most auspicious Protector pervading all the high, middle and low regions as your abodes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God alone should be adored for ever by all who leads to emancipation easily to those persons who obey the commands of the Creator of the world, make their own attributes, functions and temperament according to Him. He enlightens them about all sciences like a messenger.

    Foot Notes

    (रजसी) द्यावापृथिथ्यो । रजसीति द्यावापृथिव्यौ । = The heaven and earth. ( दूतः ) यो दोषान् दुनोति दूरीकरोति धर्मार्थमोक्षान् प्रापयति वा । दु-गतौ (भ्वा० ) गतेस्त्रिष्वर्थेष्वत्न प्राप्त्यर्थंग्रहणम् वरुधम् इति गृहनाम (NG 3, 4) = He who removes all defects or leads to righteousness wealth and emancipation. (घीतिम् ) धारणां धियं वा । = Concentration (meditation) or gracious care, (good intellect). (त्रिवरुथ:) त्रिन्युत्तमंध्य्मनिक्कृष्टानि = He who has the best, middle and low places as his dwelling places. (त्रिवरूथः त्रिषु भूम्यन्तरिक्षेषु-गृहाणि यस्य सः इति महर्षि दयानन्दः यजुर्वेदे 27, 55 भाष्ये । = That means Omnipresent.

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