Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 15 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    मि॒त्रं न यं सुधि॑तं॒ भृग॑वो द॒धुर्वन॒स्पता॒वीड्य॑मू॒र्ध्वशो॑चिषम्। स त्वं सुप्री॑तो वी॒तह॑व्ये अद्भुत॒ प्रश॑स्तिभिर्महयसे दि॒वेदि॑वे ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रम् । न । यम् । सु॒ऽधि॑तम् । भृग॑वः । द॒धुः । वन॒स्पतौ॑ । ईड्य॑म् । ऊ॒र्ध्वऽशो॑चिषम् । सः । त्वम् । सुऽप्री॑तः । वी॒तऽह॑व्ये । अ॒द्भु॒त॒ । प्रश॑स्तिऽभिः । म॒ह॒य॒से॒ । दि॒वेऽदि॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रं न यं सुधितं भृगवो दधुर्वनस्पतावीड्यमूर्ध्वशोचिषम्। स त्वं सुप्रीतो वीतहव्ये अद्भुत प्रशस्तिभिर्महयसे दिवेदिवे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रम्। न। यम्। सुऽधितम्। भृगवः। दधुः। वनस्पतौ। ईड्यम्। ऊर्ध्वऽशोचिषम्। सः। त्वम्। सुऽप्रीतः। वीतऽहव्ये। अद्भुत। प्रशस्तिऽभिः। महयसे। दिवेऽदिवे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अद्भुत ! यं मित्रं न सुधितं वनस्पतावीड्यमूर्ध्वशोचिषं भृगवो दधुः स त्वं प्रशस्तिभिर्दिवेदिवे सुप्रीतः सन् वीतहव्ये महयसे तस्मात्सेवनीयोऽसि ॥२॥

    पदार्थः

    (मित्रम्) सखायम् (न) इव (यम्) (सुधितम्) सुष्ठु स्थितम् (भृगवः) विद्वांसो मनुष्याः (दधुः) दधति (वनस्पतौ) वनानां किरणानां पालके सूर्य्ये (ईड्यम्) उत्तमैर्गुणैः प्रशंसनीयम् (ऊर्ध्वशोचिषम्) ऊर्ध्वज्वालम् (सः) (त्वम्) (सुप्रीतः) सुष्ठु प्रसन्नः (वीतहव्ये) वीतं व्याप्तं ग्रहीतव्यं वस्तु येन तस्मिन् (अद्भुत) महाशय। अद्भुतमिति महन्नाम। (निघं०३.३) (प्रशस्तिभिः) प्रशंसनीयाभिर्धर्म्याभिः क्रियाभिः (महयसे) सत्क्रियसे (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सखा कार्य्याणि साध्नोति तथैवाग्निः सुसम्प्रयुक्तः कार्य्याणि साध्नोति ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अद्भुत) महाशय ! (यम्) जिस (मित्रम्) मित्र को (न) जैसे वैसे (सुधितम्) उत्तम प्रकार स्थित को (वनस्पतौ) किरणों के पालक सूर्य्य में (ईड्यम्) उत्तम गुणों से प्रशंसा करने योग्य (ऊर्ध्वशोचिषम्) ऊपर को ज्वाला जिसकी उसको (भृगवः) विद्वान् मनुष्य (दधुः) धारण करते हैं (सः) वह (त्वम्) आप (प्रशस्तिभिः) प्रशंसा करने योग्य धर्म्मयुक्त क्रियाओं से (दिवेदिवे) प्रतिदिन (सुप्रीतः) उत्तम प्रकार प्रसन्न हुए (वीतहव्ये) व्याप्त हुआ ग्रहण करने योग्य वस्तु जिससे उसमें (महयसे) सत्कार किये जाते हो, इससे सेवन करने योग्य हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे मित्र कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे ही अग्नि उत्तम प्रकार प्रयोग किया कार्य्यों को सिद्ध करता है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वनस्पति रूप आचार्याग्नि के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ऊर्ध्व-शोचिषम् ) अग्नि के समान ऊपर उठती कान्ति वाले ( ईड्यम् ) पूज्य, वाणी उपदेश के योग्य, विद्या के इच्छुक पुरुष को ( वनस्पतौ ) सूर्यवत् विद्यायाचक, विद्यार्थी जनों के पालक आचार्य के अधीन रहते हुए नाना ( भृगवः ) वेद वाणियों को धारण करने वाले ( यम् ) जिसको (सुधितं दधुः ) उत्तम रूप से सुरक्षित रखते हैं ( सः स्वं ) वह आप हे ( अद्भुत ) महाशय ! ( वीतहव्ये ) दान करने और आदर से ग्रहण करने योग्य ज्ञान के देने वाले गुरु के अधीन ही ( सुप्रीतः ) अति प्रसन्न होकर ( प्रशस्तिभिः ) उत्तम २ प्रशंसाओं और उपदेश वचनों से ( दिवे-दिवे ) दिनों दिन ( महयसे ) पूजा आदर वचनों को प्राप्त हो । ऐश्वर्यो का पालक पढ़ ‘वनस्पति’ उस पर पूज्य तेजस्वी पुरुष भी ( भृगवः ) गो रक्षक और वाणी के धारण करने वाले विद्वान् और भूमि के धारक सामन्तजन जिसकी पुष्टि रक्षा करते हैं वह तू महान् ! सुप्रसन्न होकर उत्तम शासनों से दिनों दिन आदर को प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भृगु+वीतहव्य

    पदार्थ

    [१] वनस्पतौ [वन = a ray of light] ज्ञानरश्मियों के रक्षक पुरुष में (मित्रं न) = मित्र के समान (सुधितम्) = उत्तमता से स्थापित (यम्) = जिसको (भृगवः) = ज्ञान से अपना परिपाक करनेवाले व्यक्ति (दधुः) = धारण करते हैं। उन आपको धारण करते हैं जो आप (ईड्यम्) = स्तुति के योग्य व (ऊर्ध्वशोचिषम्) = उत्कृष्ट ज्ञानदीप्तिवाले हैं। [२] हे (अद्भुत) = अनुपम अद्वितीय प्रभो ! (स त्वम्) = वे आप (वीतहव्ये) = हव्य-पवित्र सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करनेवाले पुरुष में (सुप्रीतः) = उत्तम प्रीतिवाले होते हुए (प्रशस्तिभिः) = स्तुतियों के द्वारा (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (महयसे) = पूजित होते हैं । ये वीतहव्य पुरुष आपका स्तवन करते हैं। आपका स्तवन ही वस्तुतः उन्हें वीतहव्य बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान से अपना परिपाक करनेवाले व्यक्ति प्रभु को धारण करते हैं। उत्तम सात्त्विक पदार्थों का सेवन करनेवाले के प्रति प्रभु प्रीतिवाले होते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा मित्र कार्य सिद्ध करतो तसे अग्नी चांगल्याप्रकारे प्रयुक्त केल्यास कार्य सिद्ध करतो. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni whom the wise ones discover in sun rays and generate in arani wood is firm, well placed, sweet as nectar and adorable. As such, O leading light of marvellous knowledge, kind as a friend and rising high in flames of fire and light of life, ever pleased with the supplicant, you are honoured and exalted with holy songs of celebration day by day by the devotees.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O you, who are wonderfully great, whom enlightened men of mature knowledge establish in the sun (regard him as the sun of knowledge illuminating's all sciences), you are firm, admirable and purifier like the fire whose flames go upward. By the praiseworthy righteous acts being very much delighted, you are honored every day by a person who has pervaded all acceptable things or virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as a friend accomplishes works, so Agni (fire or electricity) when applied correctly accomplishes many works.

    Foot Notes

    (भुगवः) विद्वांसो मनुष्याः (भुगवा) प्रथिमुदिजभ्रस्जौ सम्प्रसारणं सलोपश्च (उणादिकोषे 1, 28 ) इति भ्रस्ज पाके इति धातोभृंगु शब्दसिद्धि: तस्मात् परिक्वविज्ञाना: विद्वांसः । = Enlightened men. (वीतहव्ये) वीतं व्याप्तं हव्यं ग्रहीतव्यं वस्तु येन तस्मिन् वी-गतिव्याप्तिप्रजनकान्यसनखादनेषु । अत्र व्याप्त्यर्थ:। = In a man who has accepted a thing worth taking. (वनस्पतौ) वनानां किरणानां पालके सूय्यें | वनमिति रश्मिनाम (NG 1, 15 ) पा रक्षणे। = Rays of the sun.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top