Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा व॒ एनो॑ अ॒न्यकृ॑तं भुजेम॒ मा तत्क॑र्म वसवो॒ यच्चय॑ध्वे। विश्व॑स्य॒ हि क्षय॑थ विश्वदेवाः स्व॒यं रि॒पुस्त॒न्वं॑ रीरिषीष्ट ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । वः॒ । एनः॑ । अ॒न्यऽकृ॑तम् । भु॒जे॒म॒ । मा । तत् । क॒र्म॒ । व॒स॒वः॒ । यत् । चय॑ध्वे । विश्व॑स्य । हि । क्षय॑थ । वि॒श्व॒ऽदे॒वाः॒ । स्व॒यम् । रि॒पुः । त॒न्व॑म् । रि॒रि॒षी॒ष्ट॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा व एनो अन्यकृतं भुजेम मा तत्कर्म वसवो यच्चयध्वे। विश्वस्य हि क्षयथ विश्वदेवाः स्वयं रिपुस्तन्वं रीरिषीष्ट ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। वः। एनः। अन्यऽकृतम्। भुजेम। मा। तत्। कर्म। वसवः। यत्। चयध्वे। विश्वस्य। हि। क्षयथ। विश्वऽदेवाः। स्वयम्। रिपुः। तन्वम्। रिरिषीष्ट ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वसवो विश्वदेवा ! यूयं विश्वस्य मध्ये यच्चयध्वे यद्धि क्षयथ यथा रिपुस्तन्वं स्वशरीरं रीरिषीष्ट तथा तद्वोऽन्यकृतमेनो वयं मा भुजेम तद्दुष्टं कर्म मा कर्म ॥७॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (वः) युष्माकम् (एनः) अपराधम् (अन्यकृतम्) अन्येन कृतम् (भुजेम) (मा) (तत्) (कर्म) कुर्य्याम (वसवः) वासहेतवः (यत्) (चयध्वे) संचिनुथे (विश्वस्य) (हि) यतः (क्षयथ) निवसथ (विश्वदेवाः) सर्वे विद्वांसः (स्वयम्) (रिपुः) शत्रुः (तन्वम्) शरीरम् (रीरिषीष्ट) भृशं हिंस्यात् ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यूयं कस्यापि दुष्टस्यानुकरणं मा कुरुत स्वशरीरघातं मा विधत्ताऽन्यकृतस्याऽपराधस्य सङ्गिनो मा भवत ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वसवः) वास के हेतु (विश्वदेवाः) सब विद्वानो ! तुम (विश्वस्य) संसार के बीच (यत्) जो (चयध्वे) इकट्ठा करो और (हि) जिससे जिसको (क्षयथ) निवास करो जैसे (रिपुः) शत्रु (तन्वम्) अपने शरीर को (स्वयम्) आप (रीरिषीष्ट) निरन्तर मारे, वैसे उस (वः) तुम्हारे (अन्यकृतम्) और से किये हुए (एनः) अपराध को हम लोग (मा) मत (भुजेम) भोगें (तत्) उस दुष्ट कर्म को (मा) मत (कर्म) करें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! तुम किसी दुष्ट का अनुकरण मत करो, अपने शरीर को नष्ट मत करो तथा और के किये हुए अपराध के सङ्ग मत होओ ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उत्तम पुरुषों से प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( वसवः ) राष्ट्र में बसने वाले, विद्वान् पुरुषो ! आप लोग अपने में से भी ( अन्यकृतं ) किसी अन्य के किये ( एनः ) पाप या अपराध को हम सब ( मा भुजेम ) न भोगें । ( यत् ) जिसे आप लोग ( चयध्वे ) नाश करो, या रोको वह कर्म भी हम ( मा कर्म ) न करें । हे ( विश्व-देवाः ) समस्त विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( विश्वस्य हि क्षयथ ) सब कार्यों के स्वामी हो । मनुष्य प्रायः स्वयं अपने आप भी ( रिपुः ) शत्रु होकर कभी २ (तन्वं) अपने शरीर का (रीरिषीष्ट) विनाश कर लेता है। इसलिये सावधान रहो कि कहीं हमीं में ऐसा न हो कि एक के किये से और दुःख पावें, और जो काम स्वयं बाद नष्ट करना पड़े, उसको कर बैठे।

    टिप्पणी

    चयति समुच्चये हिंसायां च । क्षि निवासे ऐश्वर्ये च ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    [पापी अपने आप से नष्ट हो ]

    पदार्थ

    [१] हे (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले देवो! (वः) = आपके उपासक हम (अन्यकृतम्) = दूसरे से किये हुए (एनः) = पाप को (मा भुजेम) = मत भोगें । अर्थात् दूसरों से किये जानेवाले पापकर्मों के शिकार न हो जाएँ। (यत्) = जिस पाप कर्म से [येन सा०] (चयध्वे) = आप हिंसित करते हो, (तत्) = उस पाप कर्म को (मा कर्म) = हम मत करें। जिन कर्मों के द्वारा हम हिंसित होते हैं, उनसे हम बचें। [२] हे (विश्वदेवा:) = सब देवो! आप (हि) = ही (विश्वस्य क्षयथ) = सब के स्वामी हो। (रिपुः) = औरों का विदारण करनेवाला शत्रु (स्वयम्) = अपने आप (तन्वम्) = अपने शरीर को (रिरिषीष्ट) = हिंसित करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- दूसरों के पाप कर्मों के हम शिकार न हों। जिन कर्मों का परिणाम विनाश है, उनसे हम बचें। पापी स्वयं अपना विनाश करनेवाला है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! तुम्ही कोणत्याही दुष्टाचे अनुकरण करू नका. आपले शरीर नष्ट करू नका व दुसऱ्याच्या अपराधात भागीदार बनू नका. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vasus, givers of peace and settlement, dispensers of the laws of nature and humanity, let us not suffer your dispensation’s punishment for the sin and crime committed by others, nor let us do that act which you hate and prohibit. You are the rulers of the world and dispensers of justice and punishment, O divinities of nature and humanity. Let the hater and the evil doer be the instrument of his own self-infliction.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened persons ! whatever you gather while living in the world and where you dwell happily, let us participate in that and enjoy delight. Let us never be accomplices or partners in anybody's sinful act. Let us never perform any wicked deed.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Foot Notes

    (एन:) अपराधम् । एनः इण आगसि (उणदिकोषे 4, 198) । ईयते प्राप्यते दु:ख मनेन तत् एनः पापम् । = Crime, sin. (क्षयथ) निवसथ। क्षि-निवासगत्योः (तुदा.)। = Dwell. (रीरिषीष्ट) भृशं हिस्यात् । रिष-हिंसायाम् (भ्वा.) । = Harm, kill or suicide.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top