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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ यत्सा॒कं य॒शसो॑ वावशा॒नाः सर॑स्वती स॒प्तथी॒ सिन्धु॑माता। याः सु॒ष्वय॑न्त सु॒दुघाः॑ सुधा॒रा अ॒भि स्वेन॒ पय॑सा॒ पीप्या॑नाः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । सा॒कम् । य॒शसः॑ । वा॒व॒शा॒नाः । सर॑स्वती । स॒प्तथी॑ । सिन्धु॑ऽमाता । याः । सु॒स्वय॑न्त । सु॒ऽदुघाः॑ । सु॒ऽधा॒राः । अ॒भि । स्वेन॑ । पय॑सा । पीप्या॑नाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यत्साकं यशसो वावशानाः सरस्वती सप्तथी सिन्धुमाता। याः सुष्वयन्त सुदुघाः सुधारा अभि स्वेन पयसा पीप्यानाः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। साकम्। यशसः। वावशानाः। सरस्वती। सप्तथी। सिन्धुऽमाता। याः। सुस्वयन्त। सुऽदुघाः। सुऽधाराः। अभि। स्वेन। पयसा। पीप्यानाः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कीदृश्यः स्त्रियो वरा भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यासां सिन्धुमातेव यद्या सप्तथी सरस्वती वर्तत्ते याः स्वेन पयसा साकं पीप्याना नद्य इव सुदुघाः सुधाराः यशसो वावशाना विदुष्यः स्त्रियोऽभ्यासुष्वयन्त ताः सततं माननीया भवन्ति ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) (यत्) याः (साकम्) सह (यशसः) कीर्तेः (वावशानाः) कामयमानाः (सरस्वती) उत्तमा वाणी (सप्तथी) सप्तमी। अत्र वा छन्दःसीति मस्य स्थाने थः। (सिन्धुमाता) सिन्धूनां नदीनां परिमाणकर्त्री (याः) (सुष्वयन्त) गच्छन्ति (सुदुघाः) सुष्ठु कामान् पूरयित्र्यः (सुधाराः) शोभना धारा यासां ताः (अभि) (स्वेन) स्वकीयेन (पयसा) उदकेन। पय इत्युदकनाम। (निघं०१.१२)(पीप्यानाः) वर्धमानाः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे पुरुषाः ! यथा षण्णां ज्ञानेन्द्रियमनसां मध्ये कर्मेन्द्रियं वाक् सुशोभिता वर्तते यथा जलेन पूर्णा नद्यः शोभन्ते तथा विद्यासत्ये कामयमाना अलंकामाः सत्यवाचः स्त्रियः श्रेष्ठा माननीयाश्च भवन्तीति विजानीत ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कैसी स्त्रियाँ श्रेष्ठ होती हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जिन की (सिन्धुमाता) नदियों का परिमाण करनेवाली सी (यत्) जो (सप्तथी) सातवीं (सरस्वती) उत्तम वाणी वर्त्तमान (याः) जो (स्वेन) अपने (पयसा) जल के (साकम्) साथ (पीप्यानाः) बढ़ती हुई नदियों के समान (सुदुघाः) सुन्दर कामों को पूरी करनेवाली (सुधाराः) सुन्दर धाराओं से युक्त (यशसः) कीर्त्ति की (वावशानाः) कामना करती हुई विदुषी स्त्री (अभि, आ, सुष्वयन्त) सब ओर से जाती हैं, वे निरन्तर मान करने योग्य होती हैं ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे छः अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रिय और मन के बीच कर्मेन्द्रिय वाणी सुन्दर शोभायुक्त है और जैसे जल से पूर्ण नदी शोभा पाती है, वैसे विद्या और सत्य की कामना करती हुई पूर्ण कामनावाली स्त्री श्रेष्ठ और मान करने योग्य हीती है ॥६॥

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    विषय

    सप्तमी वाणी का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( स्वेन पयसा पीप्याना: ) अपने जल से परिपूर्ण होकर ( सु-धाराः ) उत्तम जलधाराएं ( सु-स्वयन्त ) खूब वेग से गमन करती हैं और उनमें (सरस्वती) अति वेग से चलने वाली (सप्तथी) आगे बढ़ने वाली ( सिन्धु-माता ) प्रवाह से बहते जलों को अपने भीतर लेने वाली सबकी माता के समान होती है। वे सब ( साकं वावशाना: ) एक साथ मिलकर गर्जती हुई जाती हैं उसी प्रकार ( सरस्वती ) वाणी, (सप्तथी) छः मन सहित ज्ञानेन्द्रियों के बीच सातवीं (सिन्धुमाता) प्राणमय स्रोतों की माता के समान है। और शेष सब भी मिलकर ( सु-दुधाः ) उत्तम ज्ञान से आत्मा को पूर्ण करने वाली ( सु-धारा: ) उत्तम धारणा वा उत्तम वाणी से युक्त होकर ( स्वेन पयसा ) अपने ज्ञान से आत्मा को ( पीप्यानाः ) पुष्ट करती हुई ( सुस्वयन्त ) सुखपूर्वक कार्य करती हैं । वे ( यशसः ) बलयुक्त आत्मा के अधीन (साकं ) एक साथ ही ( वावशानाः ) विषयों की कामना करती हुई (आ) प्राप्त होती हैं उसी प्रकार ( सु-धाराः ) उत्तम वाणी से युक्त विदुषी स्त्रियें भी ( स्वेन पयसा ) अपने बल से बढ़ती हुई सन्मार्ग से जावें । (यशसः ) बलवीर्य को चाहती हुई एक साथ मिलकर उद्योग करें। उनमें प्रशस्त ज्ञान वाली माता के समान वर्त्ते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः । १, ७ भुरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    सरस्वती का सदुपयोग

    पदार्थ

    पदार्थ- जैसे (स्वेन पयसा पीप्याना:) = अपने जल से पूर्ण होकर (सु-धाराः) = उत्तम जलधाराएँ (सु-स्वयन्त) = खूब वेग से जाती हैं और उनमें (सरस्वती) = वेग से चलनेवाली (सप्तथी) = आगे बढ़नेवाली (सिन्धु-माता) = बहते जलों को अपने भीतर लेनेवाली माता के समान होती है। वे सब साकं (वावशाना:) = एक साथ गर्जती हुई जाती हैं। वैसे ही (सरस्वती) = वाणी, (सप्तथी) = छह मन-सहित ज्ञानेन्द्रियों के बीच सातवीं (सिन्धुमाता) = प्राण-स्रोतों की माता के समान है और शेष सब भी (सुदुघा:) = उत्तम ज्ञान से आत्मा को पूर्ण करनेवाली (सु धारा:) = उत्तम वाणी से युक्त होकर (स्वेन पयसा) = अपने ज्ञान से आत्मा को (पीप्याना:) = पुष्ट करती हुईं (सुस्वयन्त) = सुखपूर्वक कार्य करती हैं वे (यशसः) = बलयुक्त आत्मा के अधीन (साकं) = एक साथ (वावशानाः) = विषयों को चाहती हुईं (आ) = प्राप्त होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- अत्यन्त वेग से बहनेवाली जल से परिपूर्ण होकर उत्तम वेग से बहनेवाली गर्जना करती हुई जो नदी समुद्र में जाकर मिल जाती है उस नदी के जल को नहर आदि के द्वारा खेतों में ले जाकर सिंचाई हेतु उपयोग में लाने की व्यवस्था राजा को करानी चाहिए।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सहा अर्थात पाच ज्ञानेंद्रिये व मन यांच्यामध्ये कर्मेन्द्रिय वाणी शोभून दिसते व जसे जलाने पूर्ण नद्या शोभून दिसतात तसे विद्या व सत्याची कामना पूर्ण करणारी स्त्री श्रेष्ठ व मान देण्यायोग्य असते. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sarasvati, the eternal stream of life, of cosmic waters, and of speech and sacred knowledge, the seventh over the streams flowing through five senses and the mind, through five elements and the stuff of mind and intelligence, and through the poetic streams of the Veda, all these streams which flow abundantly, exuberant, magnificent, roaring with splendour, all of them ever growing and rising with their own flood of water: may all these continue to flow together gloriously for us.

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