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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि ये मि॒थो व॒नुषः॒ सप॑न्ते रा॒तिं दि॒वो रा॑ति॒षाचः॑ पृथि॒व्याः। अहि॑र्बु॒ध्न्य॑ उ॒त नः॑ शृणोतु॒ वरू॒त्र्येक॑धेनुभि॒र्नि पा॑तु ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । ये । मि॒थः । व॒नुषः॑ । सप॑न्ते । रा॒तिम् दि॒वः । रा॒ति॒ऽसाचः॑ । पृ॒थि॒व्याः । अहिः॑ । बु॒ध्न्यः॑ । उ॒त । नः॒ । शृ॒णो॒तु॒ । वरू॑त्री । एक॑धेनुऽभिः । नि । पा॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि ये मिथो वनुषः सपन्ते रातिं दिवो रातिषाचः पृथिव्याः। अहिर्बुध्न्य उत नः शृणोतु वरूत्र्येकधेनुभिर्नि पातु ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। ये। मिथः। वनुषः। सपन्ते। रातिम् दिवः। रातिऽसाचः। पृथिव्याः। अहिः। बुध्न्यः। उत। नः। शृणोतु। वरूत्री। एकधेनुऽभिः। नि। पातु ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः परस्परं किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    ये दिवो रातिषाच एकधेनुभिस्सह मिथो वनुषो नो रातिमाभि सपन्ते उतापि वरूत्री बुध्न्योऽहिरिवास्मान् पृथिव्या नि पातु स सर्वोजनोऽस्माकमधीतं शृणोतु ॥५॥

    पदार्थः

    (अभि) (ये) (मिथः) परस्परम् (वनुषः) याचमानान् (सपन्ते) आक्रुष्यन्ति (रातिम्) (दिवः) कमनीयस्य (रातिषाचः) दानस्य दातुः (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षस्य वा मध्ये (अहिः) मेघः (बुध्न्यः) बुध्न्येऽन्तरिक्षे भवः (उत) अपि (नः) अस्मान् (शृणोतु) (वरूत्री) वरणीया नीतियुक्ता माता (एकधेनुभिः) एकैव धेनुर्वाक् सहायभूता येषां तैः सह (नि) पातु ॥५॥

    भावार्थः

    येऽस्मान् विद्याहीनान् दृष्ट्वा निन्दन्ति विदुषो दृष्ट्वा प्रशंसन्त्यैकमत्याय प्रेरयन्ति त एवास्माकं कल्याणकरा भवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (ये) जो (दिवः) मनोहर (रातिषाचः) दान देनेवाले के (एकधेनुभिः) एक वाणी ही है सहायक जिनकी उनके साथ (मिथः) परस्पर (वनुषः) माँगते हुए (नः) हम लोगों की (रातिम्) देने को (अभि, सपन्ते) अच्छे प्रकार सब ओर से नियम करते हैं (उत) और (वरूत्री) स्वीकार करने योग्य माता (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में प्रसिद्ध हुए (अहिः) मेघ के समान हम लोगों को (पृथिव्याः) भूमि और अन्तरिक्ष के बीच (नि, पातु) निरन्तर रक्षा करे, वह समस्त जनमात्र हमारा पढ़ा हुआ (शृणोतु) सुने ॥५॥

    भावार्थ

    जो हम लोगों को विद्याहीन देख निन्दा करते और विद्वान् देख प्रशंसा करते और एकता के लिये प्रेरणा देते हैं, वे ही हमारे कल्याण करनेवाले होते हैं ॥५॥

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    विषय

    परमेश्वर से नाना रक्षा की प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो हम लोग ( मिथः ) परस्पर मिलकर ( वनुषः ) ज्ञानैश्वर्य के दाता ( दिवः) सूर्यवत् तेजस्वी, प्रकाशस्वरूप ( पृथिव्याः ) भूमि के समान विशाल (राति-षाच:) दानदाता प्रभु की ( रातिम् ) दान सम्पदा को ( सपन्ते ) मिलकर प्राप्त करते हैं वे ( उत ) और ( बुध्न्यः अहिः ) आकाश में उत्पन्न या स्थित मेघ के समान उदार प्रभु ( नः शृणोतु ) हमारी विनय सुने । और वह ( वरूत्री ) श्रेष्ठ माता के समान ( एक-धेनुभिः ) एक वाणी से बद्ध सहायकों द्वारा ( नः नि पातु ) हमारी रक्षा करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १—६ सविता । ६ सविता भगो वा । ७, ८ वाजिनो देवताः॥ छन्दः-१, ३, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४,६ स्वराट् पंक्तिः । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥ इत्यष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु अत्यन्त उदार है

    पदार्थ

    पदार्थ- (ये) = जो हम लोग (मिथः) = मिलकर (वनुषः) = ज्ञानैश्वर्यदाता (दिवः) = प्रकाशस्वरूप (पृथिव्याः) = भूमि-तुल्य विशाल (रातिषाचः) = सुखदाता प्रभु के (रातिम्) = दान को (सपन्ते) = प्राप्त करते हैं वे (उत) = और (बुध्न्यः अहिः) = आकाश में उत्पन्न मेघ-तुल्य उदार प्रभु (नः शृणोति) = हमारी विनय सुने और वह (वरूत्री) = श्रेष्ठ माता के समान एक-(धेनुभिः) = एक वाणी से बद्ध सहायकों द्वारा (नः नि पातु) = हमारी रक्षा करे।

    भावार्थ

    भावार्थ-विद्वान् जन बताते हैं कि वह परमात्मा अपने भक्तों की पुकार को सुनता है। क्योंकि आकाश में घिरे बादलों की भाँति वह प्रभु बड़ा उदार है। माता जैसे बच्चे की वाणी को समझकर सुनती है वह प्रभु भी माता की भाँति रक्षा व पालना करता है। वह पिता तो भूमि के समान विशाल दानदाता है जरा माँग कर तो देखो वह अवश्य देगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आम्हाला विद्याहीन पाहून निंदा करतात व विद्वान पाहून प्रशंसा करतात व एकत्वाची प्रेरणा देतात तेच आमचे कल्याणकर्ते असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We are the supplicants all together who seek and pray for the grace and gifts of generous heaven and earth. May the lord creator, original cause of the universe all pervasive in space, listen, and may the divine mother protector and giver of vision protect us with all those virtues which converge and focus on a single thought, voice and decisive action.

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