ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - सविता, सविता भगो वा
छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
अनु॒ तन्नो॒ जास्पति॑र्मंसीष्ट॒ रत्नं॑ दे॒वस्य॑ सवि॒तुरि॑या॒नः। भग॑मु॒ग्रोऽव॑से॒ जोह॑वीति॒ भग॒मनु॑ग्रो॒ अध॑ याति॒ रत्न॑म् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । तत् । नः॒ । जाःऽपतिः॑ । मं॒सी॒ष्ट॒ । रत्न॑म् । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । इ॒या॒नः । भग॑म् । उ॒ग्रः । अव॑से । जोह॑वीति । भग॑म् । अनु॑ग्रः । अध॑ । या॒ति॒ । रत्न॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु तन्नो जास्पतिर्मंसीष्ट रत्नं देवस्य सवितुरियानः। भगमुग्रोऽवसे जोहवीति भगमनुग्रो अध याति रत्नम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठअनु। तत्। नः। जाःऽपतिः। मंसीष्ट। रत्नम्। देवस्य। सवितुः। इयानः। भगम्। उग्रः। अवसे। जोहवीति। भगम्। अनुग्रः। अध। याति। रत्नम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजादिमनुष्यैः किं कृत्वा किं प्रापणीयमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथोग्रो जास्पतिस्सवितुर्देवस्य भगमियानः यद्रत्नं स्वार्थं मंसीष्ट तन्नोऽनु मंसीष्ट यं भगमवसेऽनुग्रो जनो जोहवीति तद्रत्नमध याति ॥६॥
पदार्थः
(अनु) (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (जास्पतिः) प्रजापालकः (मंसीष्ट) मन्यताम् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (सवितुः) सर्वान्तर्यामिणः (इयानः) प्राप्नुवन् (भगम्) ऐश्वर्यम् (उग्रः) तेजस्वी (अवसे) रक्षणाद्याय (जोहवीति) भृशमाददाति (भगम्) ऐश्वर्यम् (अनुग्रः) अतेजस्वी (अधः) हीनताम् (याति) प्राप्नोति (रत्नम्) रमणीयं धनम् ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो राजा परमेश्वरस्य सृष्टौ सर्वेषां रक्षणाय प्रवर्तते स एव सर्वमैश्वर्यं लब्ध्वा सर्वानानन्दयति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा आदि मनुष्यों को क्या करके क्या प्राप्त करने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (उग्रः) तेजस्वी (जास्पतिः) प्रजा पालनेवाला (सवितुः) सर्वान्तर्यामी (देवस्य) सब प्रकाश करनेवाले के (भगम्) ऐश्वर्य्य को (इयानः) प्राप्त होता हुआ जिस (रत्नम्) रमणीय धन को स्वार्थ (मंसीष्ट) मानता है (तत्) उस को (नः) हम लोगों के लिये (अनु) अनुकूल माने जिस (भगम्) ऐश्वर्य्य को (अवसे) रक्षा आदि के (अनुग्रः) तेजरहित जन (जोहवीति) निरन्तर ग्रहण करता है वह (रत्नम्) रमणीय धन (अधः) हीन दशा को (याति) प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो राजा परमेश्वर की सृष्टि में सब की रक्षा के लिये प्रवृत्त होता है, वही सब ऐश्वर्य को पाकर सब को आनन्दित कराता है ॥६॥
विषय
परमेश्वर से नाना रक्षा की प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( देवस्य ) सर्वेश्वर्य के दाता ( सवितुः ) सर्व शासक, सर्व जगत् के उत्पादक परमेश्वर के ( रत्नम् ) रमणीय, उत्तम ( भगम् ) ऐश्वर्यं को ( इयानः ) प्राप्त करता हुआ ( उग्रः ) बलवान् ( जास्पतिः ) प्रजा का पालक ( तत् ) उसे (नः अनु मंसीष्ट ) हमें शक्ति प्रदान करे । ( अध ) इस प्रकार ( अनुग्रः ) निर्बल पुरुष भी ( अवसे ) अपनी रक्षा के लिये जिस ( रत्नं ) उत्तम ( भग ) ऐश्वर्य की ( जोहवीति ), याचना करता है वह भी उसे ( याति ) प्राप्त कर लेता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १—६ सविता । ६ सविता भगो वा । ७, ८ वाजिनो देवताः॥ छन्दः-१, ३, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४,६ स्वराट् पंक्तिः । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥ इत्यष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सर्व ऐश्वर्यदाता प्रभु
पदार्थ
पदार्थ - (देवस्य) = सर्वैश्वर्यदाता (सवितुः) - शासक, जगदुत्पादक परमेश्वर के (रत्नम्) = रमणीय, (भगम्) = ऐश्वर्य को (इयानः) = प्राप्त करता हुआ (उग्रः) = बलवान् (जास्पतिः) = प्रजा-पालक (तत्) = वह (नः अनु मंसीष्ट) = हमें शक्ति दे। (अध) = इस प्रकार (अनुग्रः) = निर्बल पुरुष भी (अवसे) = अपनी (रक्षार्थ) = जिस (रत्नं) = उत्तम भगं ऐश्वर्य की (जोहवीति) = याचना करता है वह भी उसे (याति) = पा लेता है।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् जन बतावें कि समस्त ऐश्वर्य का दाता सर्वजगत् का उत्पादक परमेश्वर ही है। प्रजा का पालन करनेवाला राजा भी उसी से याचना करता है। निर्बल पुरुष भी उस प्रभु से ही रक्षा एवं ऐश्वर्य की याचना करे।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो राजा परमेश्वराच्या सृष्टीत सर्वांचे रक्षण करण्यास प्रवृत्त होतो तोच सर्व ऐश्वर्य प्राप्त करून सर्वांना आनंदित करतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the ruler and protector of the people know and believe that whatever the jewel wealth for life he receives from Savita, self-refulgent lord giver of light and life, all that is for the people, for all of us, so that whatever honour and prosperity the man of passion and ambition invokes and achieves, the same after all, the man of peace and dispassion who receives in consequence.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal