ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
पीवो॑अन्नाँ रयि॒वृध॑: सुमे॒धाः श्वे॒तः सि॑षक्ति नि॒युता॑मभि॒श्रीः । ते वा॒यवे॒ सम॑नसो॒ वि त॑स्थु॒र्विश्वेन्नर॑: स्वप॒त्यानि॑ चक्रुः ॥
स्वर सहित पद पाठपीवः॑ऽअन्नान् । र॒यि॒ऽवृधः॑ । सु॒ऽमे॒धाः । श्वे॒तः । सि॒ष॒क्ति॒ । नि॒ऽयुता॑म् । अ॒भि॒ऽश्रीः । ते । वा॒यवे॑ । सऽम॑नसः । वि । त॒स्थुः॒ । विश्वा॑ । इत् । नरः॑ । सु॒ऽअ॒प॒त्यानि॑ । च॒क्रुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पीवोअन्नाँ रयिवृध: सुमेधाः श्वेतः सिषक्ति नियुतामभिश्रीः । ते वायवे समनसो वि तस्थुर्विश्वेन्नर: स्वपत्यानि चक्रुः ॥
स्वर रहित पद पाठपीवःऽअन्नान् । रयिऽवृधः । सुऽमेधाः । श्वेतः । सिषक्ति । निऽयुताम् । अभिऽश्रीः । ते । वायवे । सऽमनसः । वि । तस्थुः । विश्वा । इत् । नरः । सुऽअपत्यानि । चक्रुः ॥ ७.९१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुमेधाः) ज्ञानयोगिनो नरः (पीवः, अन्नान्) पुष्टतराण्यन्नानि लभन्ते (रयिवृधः) ऐश्वर्यसम्पन्नाश्च भवन्ति (श्वेताः) सुकर्माणि च (सिसक्ति) सेवन्ते (अभि, श्रीः) शोभा (नियुताम्) या नरेषु नियुक्ता तां प्राप्नुवन्ति, तथा (ते, समनसः) ते स्वायत्तीकृतमानसाः (वायवे) विज्ञानाय (तस्थुः) सन्तिष्ठन्ते (विश्वा, इत्, नरः) इत्थं सर्वे नराः (स्वपत्यानि) शुभकर्माणि (चक्रुः) कुर्वन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुमेधाः) ज्ञानयोगी पुरुष (पीवोऽन्नान्) पुष्ट से पुष्ट अन्नों को लाभ करते हैं (रयिवृधः) और ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं (श्वेतः) और उत्तम कर्मों को (सिसक्ति) सेवन करते हैं, (अभिश्रीः) शोभा (नियुतां) जो मनुष्य के लिये नियुक्त की गई है, उसको प्राप्त होते हैं तथा (ते, समनसः) वे वशीकृत मनवाले (वायवे) विज्ञान के लिये अर्थात् ज्ञानयोग के लिये (तस्थुः) स्थिर होते हैं, (विश्वेन्नरः) ऐसे सम्पूर्ण मनुष्य (स्वपत्यानि) शुभ कर्मों को (चक्रुः) करते हैं ॥३॥
भावार्थ
जो पुरुष ज्ञानयोगी बन कर बुद्धिरूपी श्री को उत्पन्न करते हैं, वे संयमी पुरुष ही कर्मयोगी बन सकते हैं, अन्य नहीं ॥ तात्पर्य यह है कि जिन पुरुषों का अपना मन वशीभूत है, वे ही पुरुष कर्मयोग और ज्ञानयोग के अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं, इस भाव को उपनिषदों में इस प्रकार वर्णन किया है कि−“यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते” ॥कठ० ३।८॥ जो पुरुष समनस्क वशीकृत मनवाला होता है, वही विज्ञानवान् ज्ञानयोगी और शुभ कर्मों द्वारा पवित्र अर्थात् कर्मयोगी बन सकता है, फिर वह प्राकृत संसार में नहीं आता ॥ समनस्क, समनस और वशीकृतमन, संयमी ये सब एकार्थवाची शब्द हैं और इनका तात्पर्य कर्मयोग और ज्ञानयोग में है। इस प्रकार उक्त मन्त्र में कर्मयोग और ज्ञानयोग का वर्णन किया है ॥३॥
विषय
बलवानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( नियुताम् अभिश्रीः ) नियुक्त सैन्यों के बीच सब के आश्रययोग्य एवं उत्तम राज्यलक्ष्मी से सम्पन्न ( श्वेतः ) शुद्ध श्वेत, उज्ज्वल वर्ण का वस्त्र धारे ( सुमेधाः ) शुभ, बुद्धिमान्, उत्तम शत्रुनाशक बलवान् पुरुष ( रयि-वृधः ) ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले, ( पीव:-अन्नात् ) अन्नादि से हृष्ट पुष्ट पुरुषों को ( सिषक्ति ) समवाय बना कर रहता है और ( ते ) वे ( नरः ) समस्त नायक पुरुष ( समनसः ) एक चित्त होकर ( वायवे ) उस अपने बलवान् नायक पुरुष की वृद्धि के लिये ही (वि तस्थुः) उसके समीप सब ओर स्थित होते हैं । वे (विश्वा) सभी ( सु-अपत्यानि ) उत्तम २ सन्तानों के समान ( चक्रुः ) काम करते हैं । अथवा वे सब ( सु-अपत्यानि ) उत्तम, न गिरने के शुभ कर्मों को करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, ३ वायुः । २, ४–७ इन्द्रवायू देवते। छन्दः—१, ४,७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ५, ६ आर्षी त्रिष्टुप् ॥ ३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
कुशल सेनानायक
पदार्थ
पदार्थ- (नियुताम् अभिश्रीः) = नियुक्त सैन्यों के बीच सबके आश्रय-योग्य एवं उत्तम राज्यलक्ष्मी से सम्पन्न (श्वेतः) = उज्ज्वल वस्त्र धारे (सुमेधाः) = बुद्धिमान् शत्रुनाशक पुरुष (रयि-वृधः) = ऐश्वर्य बढ़ानेवाले, (पीव: अन्नान्) = अन्नादि से हृष्ट-पुष्ट पुरुषों का (सिषक्ति) = समवाय बनाकर रहता है और (ते) = वे (नरः) = नायक पुरुष (समनसः) = एक चित्त होकर (वायवे) = नायक पुरुष की वृद्धि के लिये (वि तस्थुः) = उसके आस-पास स्थित होते हैं। वे (विश्वा) = सभी (सु-अपत्यानि) = उत्तम उत्तम सन्तानों के समान (चक्रुः) = काम करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- कुशल सेनानायक शत्रु को जीतने के लिए ऐसी रणनीति बनाता है कि विजय अवश्य मिले। इसके लिए वह अपनी सेना को छोटे-छोटे वर्गों में बाँटकर अलग-अलग महत्त्वपूर्ण स्थलों पर नियुक्त करता है। साथ ही प्रजाजनों में से हृष्ट-पुष्ट युवाओं को भी वर्गों में बाँटकर नियुक्त करता है। ये सब संकेत मिलने पर यथा समय सेनानायक के आदेश का पालन कर विजय में सहयोगी होते हैं। इसे 'गुरिल्ला युद्ध' कहते हैं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Leaders and pioneers of holy intelligence and yajna augment foods, they augment wealth, which the sun like a white orb of heaven favours as it energises the grace and power of the yajnic acts of pioneers with the light of its rays. The Dedicated Scholars together of one mind and resolution for the inspiration and motivation of the people stay strong and, being leaders of the world, they execute holy programmes leading to nobler generations of the future.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष ज्ञानयोगी बनून बुद्धिरूपी श्रीrला उत्पन्न करतात ते संयमी पुरुषच कर्मयोगी बनू शकतात, इतर नव्हे.
टिप्पणी
तात्पर्य हे आहे, की ज्या पुरुषांचे मन स्ववशीभूत आहे, तेच पुरुष कर्मयोग व ज्ञानयोगाचे अधिकारी असतात इतर नव्हे. हा भाव उपनिषदात या प्रकारे वर्णन केलेला आहे. $ स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते’ ॥कठ. ३॥८॥ $ जो पुरुष समनस्क वशीकृत मनाचा असतो तोच विज्ञानवान ज्ञानयोगी व शुभ कर्मांद्वारे पवित्र कर्मयोगी बनू शकतो. पुन्हा तो प्राकृत संसारात येत नाही. $ समनस्क, समनसववशीकृतमन, संयमी हे सर्व एकार्थवाची शब्द आहेत व त्यांचे तात्पर्य कर्मयोग व ज्ञानयोगात आहे. या प्रकारे कर्मयोग व ज्ञानयोगाचे वर्णन केलेले आहे. ॥३॥
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