ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्राब्रह्मणस्पती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमु॒ ज्येष्ठं॒ नम॑सा ह॒विर्भि॑: सु॒शेवं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ गृणीषे । इन्द्रं॒ श्लोको॒ महि॒ दैव्य॑: सिषक्तु॒ यो ब्रह्म॑णो दे॒वकृ॑तस्य॒ राजा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । ज्येष्ठ॑म् । नम॑सा । ह॒विःऽभिः॑ । सु॒ऽशेव॑म् । ब्रह्म॑णः । पति॑म् । गृ॒णी॒षे॒ । इन्द्र॑म् । श्लोकः॑ । महि॑ । दैव्यः॑ । सि॒स॒क्तु॒ । यः । ब्रह्म॑णः । दे॒वऽकृ॑तस्य । राजा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु ज्येष्ठं नमसा हविर्भि: सुशेवं ब्रह्मणस्पतिं गृणीषे । इन्द्रं श्लोको महि दैव्य: सिषक्तु यो ब्रह्मणो देवकृतस्य राजा ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊँ इति । ज्येष्ठम् । नमसा । हविःऽभिः । सुऽशेवम् । ब्रह्मणः । पतिम् । गृणीषे । इन्द्रम् । श्लोकः । महि । दैव्यः । सिसक्तु । यः । ब्रह्मणः । देवऽकृतस्य । राजा ॥ ७.९७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तम्, उ) तमेव (ज्येष्ठम्) सर्वस्मात्परं (ब्रह्मणस्पतिम्) वेदानां पतिं (नमसा, गृणीषे) गृह्णामि (इन्द्रम्, महि) तमैश्वर्यवन्तं महात्मानं (दैव्यः, श्लोकः) इयं दिव्यस्तुतिः (सिसक्तु) सेवतां (यः) यो हि (देवकृतस्य ब्रह्मणः) ईश्वरनिर्मितवेदस्य (राजा) प्रकाशकः (सुशेवम्) स सर्वेषामुपास्योऽस्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तम्, उ) उसी (ज्येष्ठम्) सबसे बड़े और (ब्रह्मणस्पतिम्) वेद के पति परमात्मा को (नमसा, गृणीषे) नम्रता से ग्रहण करता हूँ, यहाँ उत्तम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग व्यत्यय से है, (इन्द्रं, महि) उस परमैश्वर्यसम्पन्न परमात्मा को (दैव्यः, श्लोकः) यह दिव्य स्तुति (सिसक्तु) सेवन करे, (यः) जो (देवकृतस्य, ब्रह्मणः) ईश्वरकृत वेद का (राजा) प्रकाशक है और वह परमात्मा (सुशेवम्) सबका उपास्य देव है ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में इस बात का उपदेश किया गया है कि वेदप्रकाशक परमात्मा ही एकमात्र पूजनीय है, उसको छोड़ कर ईश्वरत्वेन और किसी की उपासना नहीं करनी चाहिये ॥३॥
विषय
प्रार्थना स्तुति।
भावार्थ
(यः) जो (देव-कृतस्य) परमेश्वर के दिव्य पदार्थ पृथिवी आदि वा जीवों के लिये बनाये हुए ( ब्रह्मणः ) महान् ब्रह्माण्ड का (राजा) स्वामी है उस ( महि ) महान् ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् प्रभु परमेश्वर को ही ( दैव्यः ) विद्वानों की देवोचित ( श्लोकः ) स्तुति और ( दैव्यः श्लोकः ) देव, प्रभु परमेश्वर से प्राप्त ‘श्लोक’ अर्थात् वेदवाणी, (सिषक्तु) प्राप्त होती है, वह उसी का वर्णन करती, वह उसीको अपना लक्ष्य करती है । ( तम् उ ज्येष्ठं ) उसी सर्वश्रेष्ठ, सब से महान् (सु-शेवं) उत्तम सुखदाता, आनन्दकन्द ( ब्रह्मणः पतिम् ) ब्रह्माण्ड, प्रकृति और वेद के पालक प्रभु की मैं ( हविर्भिः ) उत्तम वचनों से या अन्नौषधि आदि की आहुतियों सहित ( गृणीषे ) स्तुति करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ इन्द्रः। २,४—८ बृहस्पतिः। ३,९ इन्द्राब्रह्मणस्पती। १० इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्दः—१ आर्षी त्रिष्टुप्। २, ४, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ५, ६, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वेदवाणी से स्तुति
पदार्थ
पदार्थ- (यः) = जो (देव-कृतस्य) = परमेश्वर रचित दिव्य पदार्थ, पृथिवी आदि (ब्रह्मणः) = ब्रह्माण्ड का (राजा) = स्वामी है उस (महि) = महान् (इन्द्रं) = प्रभु को (दैव्यः) = विद्वानों की (श्लोकः) = महान् स्तुति और (दैव्यः श्लोकः) = प्रभु से प्राप्त 'श्लोक' अर्थात् वेदवाणी, (सिषक्तु) = प्राप्त होती है, वह उसी का वर्णन करती है। (तम् उ ज्येष्ठं) = उसी सर्वश्रेष्ठ, (सु-शेवं) = सुखदाता, आनन्दकन्द (ब्रह्मणः पतिम्) = ब्रह्माण्ड और वेद के पालक प्रभु की मैं (हविर्भिः) = उत्तम वचनों से (गृणीषे) = स्तुति करूँ।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य ईश्वर की स्तुति वेदवाणियों से किया करे। यह वेदवाणी प्रभु ने प्रदान की है इसमें ईश्वर के स्वरूप, उसकी महिमा तथा समस्त ब्रह्माण्ड के ज्ञान-विज्ञान का समावेश है।
इंग्लिश (1)
Meaning
The same lord supreme of the universe, merciful protector and saviour, I adore with humility, reverence and offers of homage, and may this song of divine adoration reach the great lord Indra who rules this world of divine creation and reveals the divine Word of the Veda, universal knowledge.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात या गोष्टीचा उपदेश केलेला आहे, की वेदप्रकाशक परमात्माच एकमेव पूजनीय आहे. त्याला सोडून इतर कुणाचीही उपासना करू नये ॥३॥
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