ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 6
तं श॒ग्मासो॑ अरु॒षासो॒ अश्वा॒ बृह॒स्पतिं॑ सह॒वाहो॑ वहन्ति । सह॑श्चि॒द्यस्य॒ नील॑वत्स॒धस्थं॒ नभो॒ न रू॒पम॑रु॒षं वसा॑नाः ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । श॒ग्मासः॑ । अ॒रु॒षासः॑ । अश्वाः॑ । बृह॒स्पति॑म् । स॒ह॒ऽवाहः॑ । व॒ह॒न्ति॒ । सहः॑ । चि॒त् । यस्य॑ । नील॑ऽवत् । स॒धऽस्थ॑म् । नभः॑ । न । रू॒पम् । अ॒रु॒षम् । वसा॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं शग्मासो अरुषासो अश्वा बृहस्पतिं सहवाहो वहन्ति । सहश्चिद्यस्य नीलवत्सधस्थं नभो न रूपमरुषं वसानाः ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । शग्मासः । अरुषासः । अश्वाः । बृहस्पतिम् । सहऽवाहः । वहन्ति । सहः । चित् । यस्य । नीलऽवत् । सधऽस्थम् । नभः । न । रूपम् । अरुषम् । वसानाः ॥ ७.९७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
इयमेव ब्रह्मावगतिरधस्तनमन्त्रेण निरूप्यते।
पदार्थः
(तम्) तं बृहस्पतिं परमात्मानं (सधस्थम्) सर्वसन्निहितम् (नभः) आकाशमिव विभुं (न, रूपम्) रूपहीनं (अरुषम्) सर्वज्ञं (वसानाः) विषयं कुर्वती (शग्मासः) आनन्दयन्ती (अरुषासः) परमात्मपरायणा (अश्वाः) त्वरितगमना (सहवाहः) परमात्मना सह योजयन्ती इन्द्रियवृत्तिः (वहन्ति) तं प्रापयति, यः (सहः, चित्) बलस्वरूपः (यस्य नीळवत्) यस्येदं ब्रह्माण्डं नीडवत् कुलायवत् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
यह ब्रह्मप्राप्ति नीचे के मन्त्र से निरूपण की जाती है।
पदार्थ
(तम्) उस (बृहस्पतिम्) परमात्मा का जो (सधस्थम्) जीव के अत्यन्त संनिहित है (नभः) और आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है, (न, रूपम्) जिसका कोई रूप नहीं है, उस (अरुषम्) सर्वज्ञ परमात्मा को (वसानाः) विषय करती हुई (शग्मासः) आनन्द को अनुभव करनेवाली (अरुषासः) परमात्मपरायण (अश्वाः) शीघ्रगतिशील (सहवाहः) परमात्मा से जोड़नेवाली इन्द्रियवृत्तियाँ (वहन्ति) उस परमात्मा को प्राप्त कराती हैं, जो परमात्मा (सहः, चित्) बलस्वरूप है और (यस्य, नीळवत्) जिसका नीड अर्थात् घोंसले के समान यह ब्रह्माण्ड है ॥६॥
भावार्थ
श्रवण, मनन, निदिध्यासनादि साधनों से संस्कृत हुई अन्तःकरण की वृत्तियाँ उस नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव ब्रह्म को प्राप्त कराती हैं, जो सर्वव्यापक और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि गुणों से रहित है और कोटानुकोटि ब्रह्माण्ड जिसके एकदेश में जीवों के घोंसलों के समान एक समान एक प्रकार की तुच्छ सत्ता से स्थिर है। इस मन्त्र में उस भाव को विशाल किया है, जिसको “एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” ॥ ऋ. १०।९०।३॥। इस मन्त्र में वर्णन किया है कि कोटानुकोटि ब्रह्माण्ड उस परमात्मा के एकदेश में क्षुद्र जन्तु के घोंसले के समान स्थिर है, अथवा यों कहो कि “युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परितस्थुषः; रोचन्ते रोचना दिवि”। मं. १। सू. ६। १। जो योगी लोग सर्वव्यापक परमात्मा को योगज सामर्थ्य से अनुभव करते हैं अर्थात् योग की वृत्ति द्वारा उस परमात्मा का मनन करते हैं, वे ब्रह्म के प्रकाश को लाभ करके तेजस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनते हैं ॥६॥
विषय
बृहस्पति प्रभु ।
भावार्थ
( सहवाहः अश्वाः यथा बृहस्पतिं वहन्ति ) एक साथ चलने वाले अश्व, या अश्वारोही, जिस प्रकार बड़े सैन्य के स्वामी को अपने ऊपर धारण करते हैं उसी प्रकार ( यस्य ) जिस परमेश्वर का ( सधस्थं ) साथ रहना ही ( नीडवत् ) गृह के समान आश्रय देने वाला और (सहः चित्) सब दुःखों को सहन करा देने में समर्थ बल है और जिसका ( रूपं नभः न ) रूप आकाश वा सूर्य के समान व्यापक और ( अरुषं ) अति उज्वल तेजोमय है, ( तं ) उस प्रभु को, ( वसानाः ) इस जगत् में रहने वाले, या उसी की भक्ति में रहने वाले, ( शग्मासः ) सुखी, आनन्दमग्न, शक्तिमान् ( अरुषासः ) उज्ज्वल रूपयुक्त, तेजस्वी सूर्यवत् प्रकाशमान ( अश्वाः ) विद्या विज्ञान में निष्णात पुरुष वा अति वेग से जाने वाले सूर्यादि लोक ( सह-वाहः ) एक साथ मिलकर-संसार यात्रा करते हुए, वा ( सह-वाहः ) एक साथ विश्व को धारण करते हुए, ( बृहस्पतिं वहन्ति ) उस महान् ब्रह्माण्ड के पालक प्रभु को अपने ऊपर धारण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ इन्द्रः। २,४—८ बृहस्पतिः। ३,९ इन्द्राब्रह्मणस्पती। १० इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्दः—१ आर्षी त्रिष्टुप्। २, ४, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ५, ६, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ईश्वर की भक्ति का बल
पदार्थ
पदार्थ- (सहवाहः अश्वाः यथा बृहस्पतिं वहन्ति) = एक साथ चलनेवाले अश्व जैसे बड़े सैन्य के स्वामी को अपने ऊपर धारते हैं वैसे ही (यस्य) = जिस परमेश्वर का (सधस्थं) = साथ रहना ही (नीडवत्) = गृह के समान आश्रय देता और (सहः चित्) = सब दुःखों को सहन कराने में समर्थ बल है और जिसका (रूपं नभः न) = रूप आकाश वा सूर्य के समान व्यापक और (अरुषं) = तेजोमय है, (तं) = उस प्रभु को, (वसाना:) = उसकी भक्ति में रहनेवाले, (शग्मासः) = आनन्दमग्न, शक्तिमान्, (अरुषासः) = उज्ज्वल रूपयुक्त, सूर्यवत् प्रकाशमान (अश्वाः) = विद्या-विज्ञान में निष्णात पुरुष वा सूर्यादि लोक (सह-वाहः) = एक साथ मिलकर संसार यात्रा करते हुए (बृहस्पतिं वहन्ति) = महान् ब्रह्माण्ड के पालक प्रभु को अपने ऊपर धारण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की भक्ति में लीन रहनेवाले पुरुष हर समय परमात्मा को अपने अंग संग अनुभव करते हैं इससे उनका आत्मा इतना बलवान् हो जाता है कि सब दुःखों को सहन करने में समर्थ हो जाते हैं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
The powerful red rays of the rising sun in their united majesty, wearing the glorious mantle of his sublime form expansive as space, and bearing at heart the message of his omnipotence immanent in the universe like the treasure of Infinity, reveal, express and communicate the presence of Brhaspati, sustainer and ruler of the world of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
श्रवण, मनन, निदिध्यासन इत्यादी साधनांनी संस्कारित झालेल्या अंत:करणाच्या वृत्ती नित्य, बुद्ध, मुक्त स्वभाव ब्रह्माला प्राप्त करवितात. जो सर्वव्यापक व शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इत्यादी गुणांनी रहित आहे व कोट्यानुकोटी ब्रह्मांड ज्याच्या एकदेशात जीवाच्या घरट्याप्रमाणे एक प्रकारच्या अल्प किंवा नगण्य सत्तेने स्थिर आहे. या मंत्रात याच भावाचा विस्तार केलेला आहे. ज्याला ‘एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्व पूरुष: । पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि’ ॥ऋ. १०/९०/३॥
टिप्पणी
या मंत्रात हे वर्णन आहे, की कोट्यानुकोटी ब्रह्मांड त्या परमात्म्याच्या एकदेशात क्षुद्र जंतूच्या घरट्याप्रमाणे स्थिर आहे किंवा ‘युज्जति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परितस्थुष:, रोचन्ते रोचना दिवि’ मं. १। सू. ६।१। जे योगी सर्वव्यापक परमात्म्याला योगज सामर्थ्याने अनुभवतात अर्थात योगाच्या वृत्तीद्वारे त्या परमात्म्याचे चिंतन, मनन करतात ते ब्रह्माचा प्रकाश प्राप्त करून तेजस्वी व ब्रह्मवर्चस्वी बनतात. ॥६॥
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