ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 9
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्राब्रह्मणस्पती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒यं वां॑ ब्रह्मणस्पते सुवृ॒क्तिर्ब्रह्मेन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑ अकारि । अ॒वि॒ष्टं धियो॑ जिगृ॒तं पुरं॑धीर्जज॒स्तम॒र्यो व॒नुषा॒मरा॑तीः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वा॒म् । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिः । ब्रह्म॑ । इन्द्रा॑य । व॒ज्रिणे॑ । अ॒का॒रि॒ । अ॒वि॒ष्टम् । धियः॑ । जि॒गृ॒तम् । पुर॑म्ऽधीः । ज॒ज॒स्तम् । अ॒र्यः । व॒नुषा॑म् । अरा॑तीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वां ब्रह्मणस्पते सुवृक्तिर्ब्रह्मेन्द्राय वज्रिणे अकारि । अविष्टं धियो जिगृतं पुरंधीर्जजस्तमर्यो वनुषामरातीः ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । वाम् । ब्रह्मणः । पते । सुऽवृक्तिः । ब्रह्म । इन्द्राय । वज्रिणे । अकारि । अविष्टम् । धियः । जिगृतम् । पुरम्ऽधीः । जजस्तम् । अर्यः । वनुषाम् । अरातीः ॥ ७.९७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ब्रह्मणस्पते) हे सर्वाधिपते ! (वाम्) तव (इयम्) इयं (सुवृक्तिः) दोषरहिता स्तुतिः या (ब्रह्म, इन्द्राय) ऐश्वर्यवते भवते (वज्रिणे) ज्ञानमयाय (अकारि) कृता, सा (अविष्टम्) अस्मान्रक्षतु, तथा (धियः, जिगृतम्, पुरन्धीः) अस्माकं भावनां स्वीकरोतु तथा (अर्यः) ईश्वरः (वनुषाम्) प्रार्थयमानानां नः (अरातीः) शत्रून् (जजस्तम्) अपवर्तयताम् ॥९॥
भावार्थः
इस मन्त्र में ब्रह्मणस्पति शब्द उसी वेदपति परमात्मा के लिये प्रयुक्त हुआ है, जिसका वर्णन इस सूक्त के कई एक मन्त्रों में प्रथम भी आ चुका है।ब्रह्मणस्पति के अर्थ वेद के पति हैं अर्थात् आदिसृष्टि में ब्रह्मवेदविद्या का दाता एकमात्र परमात्मा था, इसी अभिप्राय से परमात्मा को (ब्रह्म) वेद का पति कथन किया गया है ॥यद्यपि ब्रह्मशब्द के अर्थ प्रकृति के भी हैं, ब्रह्म बड़े को भी कहते हैं, इस प्रकार पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों का नाम भी ब्रह्म है, तथापि मुख्य नाम ब्रह्म परमात्मा का ही है, जैसा कि “तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म”। यजु० अ० ३२।१॥ इसमें अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म ये सब परमात्मा के नाम हैं। एवं “यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्यैष्ठाय ब्रह्मणे नमः“ ॥ अथ० १०।८।४।१॥ यहाँ (ज्येष्ठ) सबसे बड़ा ब्रह्म कह कर ब्रह्म शब्द को ब्रह्मवाचक सिद्ध किया है। एवं “देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म्म ममान्तरम्” ॥ साम० ९।२१।३ ॥ इस मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के लिये आया है। मन्त्र का तात्पर्य यह है कि जो लोग अपनी रक्षा आप नहीं करते, वा यों कहो कि अपनी सेना को आप मारते हैं वा कायरता दिखलाते हैं, ऐसे सैनिकों को विद्वान् लोग नष्ट करें और यह प्रार्थना करें कि परमात्मा (वर्म्म) कवच के समान हमारा रक्षक हो। परमात्मा के सहारे से ही सब शुभ कामों की सिद्धि आस्तिक पुरुषों को रखनी चाहिये, केवल अपने उद्योग से नहीं।इसी प्रकार का मन्त्र ऋग्वेद मं० ६ सू० ७१ संख्या १९ में है। यहाँ भी “ब्रह्म वर्म ममान्तरम्” यह पाठ है। यहाँ भी सूक्त की समाप्ति में परमात्मा को रक्षक माना गया है, किसी अन्य वस्तु को नहीं।जो लोग यह कहा करते हैं कि ऋग्वेद में ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थों में नहीं आया, उनको उक्त मन्त्र से ज्ञानलाभ करना चाहिये, क्योंकि उक्त मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थ में स्पष्ट है।जिन लोगों ने आजकल वेदों की हिंसा करके उनको निष्कलङ्क बनाने पर कमर बाँधी है, उन्होंने उक्त मन्त्र को सामवेदसंहिता से उड़ा दिया, क्योंकि उनके परिवार में यह मन्त्र ऋग्वेद में आ चुका।पहले तो यह कथन ही सर्वथा मिथ्या है कि यह मन्त्र पूर्णाङ्गतया ऋग्वेद में आ चुका, क्योंकि ऋग्वेद में “ब्रह्म वर्म ममान्तरम्” इतने पर समाप्त है और सामवेद में “शर्म वर्म ममान्तरम्” इतना और है, जिसके अर्थ वाक्यभेद से सर्वथा भिन्न हैं अर्थात् “योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः”।अथर्व० ३।।६।२७।१ ॥ जब यह अन्य वाक्य के साथ मिलकर आने से छह वार आने पर भी पुनरुक्त नहीं, तो फिर भी उक्त सामवेद का मन्त्र क्यों पुनरुक्ति के दोष से दूषित किया जाता है।अन्य उत्तर यह है कि ऋग्वेद में यह मन्त्र योद्धाओं के प्रकरण में आया है और सामवेद में ईश्वर के प्रकरण में है। इस प्रकार प्रकरणभेद से भी अर्थ भिन्न हैं। अस्तु, इस विषय को हम वेदमर्यादा में बहुत लिख आए है। यहाँ मुख्य प्रसङ्ग यह है कि जो लोग ब्रह्म शब्द के अर्थ वेदों में ईश्वर के नहीं मानते, किन्तु स्तोत्र वा गीत के ही मानते हैं, उनके मत के निरास के लिये उक्त मन्त्र का उदाहरण दिया गया।प्रायः यूरोपनिवासी विद्वानों का यह विचार है कि ब्रह्म शब्द केवल औपनिषद समय में आकर सर्वव्यापक ब्रह्म शब्द के अर्थों में लिया गया, पहले नहीं।इसका समाधान एक प्रकार से तो हम चारों वेदों का एक-एक मन्त्र प्रमाण दे कर आए, परन्तु विशेषरीति से समाधान यह है कि यदि वैदिक समय में ब्रह्म शब्द का प्रयोग सर्वव्यापक ब्रह्म में नहीं मानो, तो “यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः” ॥ अथर्व १०।८।।४।१ ॥ में तीनों कालों में रस और सब से बड़ा ब्रह्म शब्द का अर्थ क्यों माना जाता ? इसी आधार को लेकर उपनिषदों में “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥ तै० २।१॥ “प्रज्ञानं ब्रह्म” ऐ० ३।१॥ “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म” ॥ बृ० ३।९।१८॥ “ब्रह्मैवेदं विश्वं” ॥ मु०। २।११ ॥ “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” ॥छा० ३।१४।१ ॥ “तपसा चीयते ब्रह्म” ॥मु० १।१।८ ॥ “यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्” ॥मु० ३।३॥ इत्यादि वाक्यों में ब्रह्म का निरूपण किया है। यह ब्रह्मनिरूपण एकमात्र वेद के आधार पर है, इसी अभिप्रायः से ब्रह्मविद्या वेदमूलक मानी गई है।केवल उपनिषदों में ही ब्रह्म का निरूपण नहीं, किन्तु जो प्रमाण १ प्रथम ऋग्वेद के मं० ६ का दिया गया है, उससे स्पष्ट सिद्ध है कि ब्रह्म नाम वेद में भी सर्वोपरि विश्वकर्त्ता जगदीश्वर का है।इसलिये कतिपय मन्त्रों में ब्रह्मणस्पति आ जाने से यह सन्देह नहीं करना चाहिये कि जब ब्रह्म का पति कोई और हुआ तो ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थ नहीं देता ? किन्तु उक्त स्थान में यह स्पष्ट है कि यहाँ ब्रह्म नाम वेद का है। यों तो “यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदनः” ॥ कठ० १।२।१५॥ यहाँ ब्रह्म शब्द ब्राह्मण स्वभाववाले वर्ण के लिये भी आता है, एवं “तदेतद् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रः ॥” बृ०। १।४।१५ ॥ यहाँ भी वर्णवाची ब्रह्म शब्द है, परन्तु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि प्रथम ब्रह्म शब्द जात्यादिकों का वाची ही था और बहुत देर बाद ईश्वरवाची समझा गया, अस्तु। यह कल्पना सर्वथा युक्तिहीन और निराधार है।यदि जातिवाचक भी ब्रह्म शब्द समझा जाय, तो आपत्ति यह है कि ब्राह्मण तो उसका अपत्य हुआ पर उससे प्रथम ब्रह्म क्या था ? यदि कहो कि वह भी जातिवाचक था, तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वह किससे उत्पन्न होने के कारण ब्रह्म कहलाया ? यदि कहो कि वह तो गुणवाचक शब्द है अर्थात् जिसमें बड़प्पन है, उसका नाम ब्रह्म है, तो फिर ब्राह्मण शब्द गुणवाची क्यों नहीं अर्थात् जिसका (ब्रह्म) वेद वा ईश्वर से सम्बन्ध हो, उसको ब्राह्मण कहते हैं, जैसा कि ‘शतपथब्राह्मण’ यहाँ ब्राह्मण शब्द के अर्थ होते हैं कि ‘ब्रह्मण इदं ब्राह्मणम्’ जो ब्रह्म से सम्बन्ध रखता हो। यहाँ व्याकरण की रीति से “तस्येदम्” ॥ ४।३।।१२०॥ इस सूत्र से अण् प्रत्यय है। यदि कहो कि “ब्राह्मोऽजातौ” अष्टा० ६।४।१७१॥ इस सूत्र से जातिभिन्नार्थ में सर्वत्र टि का लोप हो जाता है, तो ‘शतपथब्राह्मण’ यहाँ क्यों न हुआ। अस्तु, कुछ हो टि का लोप हो वा न हो, पर ब्राह्मण शब्द का प्रयोग तो जाति से भिन्नार्थ में भी पाया जाता है, जैसा कि ‘मण्डूका ब्राह्मणाः’ ॥मं० ७। सू० १०३ ॥ में पाया जाता है। क्या कोई कह सकता है कि यहाँ भी टि का अलुक् जाति मान कर हुआ है, कदापि नहीं।एवं सूक्ष्म विवेचना करने से सिद्ध यह हुआ कि ब्रह्म शब्द के मुख्यार्थ ईश्वर और गौणार्थ वेद और प्रकृत्यादि अन्य पदार्थ भी हैं।इसी अभिप्राय से गीता में कृष्णजी कहते हैं कि “मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्” ॥ गी० २४।।३॥ इस प्रकार यहाँ ब्रह्मणस्पति के अर्थ प्रकृति के अधिपति के भी लिये गये ॥और बात यह है कि इस सूक्त में ब्रह्मणस्पति और बृहस्पति का समानाधिकरण्य अर्थात् एक अर्थवाची दोनों शब्द हैं, फिर बृहस्पति को द्युलोक और प्रकृति को पृथिवीलोक कैसे पैदा कर सकता है ?यदि यह कहा जाय कि ‘जनित्री’ यह विशेषण द्युलोक और पृथिवीलोक को दिया गया है अर्थात् पृथिवीलोक और द्युलोक दोनों बृहस्पति के पैदा करनेवाले हैं, यह अर्थलाभ होता है, फिर बृहस्पति को पैदा करनेवाले द्युलोक और पृथिवीलोक क्यों न माने जायें ? इसका उत्तर यह है कि “प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस मन्त्र में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जनित्री वा जायमान के अर्थ प्रादुर्भाव के हैं, जिसके सरल भाषा में अर्थ प्रकट होना किये जा सकते हैं। सिद्ध यह हुआ कि द्युलोक और पृथिवीलोक ने परमात्मा के महत्त्व को सिद्ध किया। इसी अभिप्राय से अथर्ववेद में कहा है कि “यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्”॥ १०।४।३२॥ अर्थात् पृथिव्यादि लोक उसके ज्ञान के साधन हैं। इस बात को महर्षि व्यास ने “जन्माद्यस्य यतः” इस दूसरे सूत्र में वर्णन किया है कि इस चराचर संसार की उत्पत्ति, स्थिति, तथा प्रलय जिस बृहस्पति परमात्मा से होती है, उसको ब्रह्म कहते हैं ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ब्रह्मणस्पते) हे ईश्वर ! (वां) तुम्हारी (इयम्) यह (सुवृक्तिः) दोषरहित स्तुति, जो कि (ब्रह्म, इन्द्राय) सर्वोपरि ऐश्वर्ययुक्त (वज्रिणे) ज्ञानस्वरूप आपके लिये (अकारि) की गयी है, वह (आविष्टम्) हमारी रक्षक हो और (धियः, जिगृतं, पुरन्धीः) हमारी सब भावनाओं को स्वीकार करे, (अर्यः) परमात्मा (वनुषाम्) प्रार्थनायुक्त हम लोगों के (अरातीः) शत्रुओं को (जजस्तम्) नाश करे ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में ब्रह्मणस्पति शब्द उसी वेदपति परमात्मा के लिये प्रयुक्त हुआ है, जिसका वर्णन इस सूक्त के कई एक मन्त्रों में प्रथम भी आ चुका है।ब्रह्मणस्पति के अर्थ वेद के पति हैं अर्थात् आदिसृष्टि में ब्रह्मवेदविद्या का दाता एकमात्र परमात्मा था, इसी अभिप्राय से परमात्मा को (ब्रह्म) वेद का पति कथन किया गया है ॥यद्यपि ब्रह्मशब्द के अर्थ प्रकृति के भी हैं, ब्रह्म बड़े को भी कहते हैं, इस प्रकार पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों का नाम भी ब्रह्म है, तथापि मुख्य नाम ब्रह्म परमात्मा का ही है, जैसा कि “तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म”। यजु० अ० ३२।१॥ इसमें अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म ये सब परमात्मा के नाम हैं। एवं “यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्यैष्ठाय ब्रह्मणे नमः“ ॥ अथ० १०।८।४।१॥ यहाँ (ज्येष्ठ) सबसे बड़ा ब्रह्म कह कर ब्रह्म शब्द को ब्रह्मवाचक सिद्ध किया है। एवं “देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म्म ममान्तरम्” ॥ साम० ९।२१।३ ॥ इस मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के लिये आया है। मन्त्र का तात्पर्य यह है कि जो लोग अपनी रक्षा आप नहीं करते, वा यों कहो कि अपनी सेना को आप मारते हैं वा कायरता दिखलाते हैं, ऐसे सैनिकों को विद्वान् लोग नष्ट करें और यह प्रार्थना करें कि परमात्मा (वर्म्म) कवच के समान हमारा रक्षक हो। परमात्मा के सहारे से ही सब शुभ कामों की सिद्धि आस्तिक पुरुषों को रखनी चाहिये, केवल अपने उद्योग से नहीं।इसी प्रकार का मन्त्र ऋग्वेद मं० ६ सू० ७१ संख्या १९ में है। यहाँ भी “ब्रह्म वर्म ममान्तरम्” यह पाठ है। यहाँ भी सूक्त की समाप्ति में परमात्मा को रक्षक माना गया है, किसी अन्य वस्तु को नहीं।जो लोग यह कहा करते हैं कि ऋग्वेद में ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थों में नहीं आया, उनको उक्त मन्त्र से ज्ञानलाभ करना चाहिये, क्योंकि उक्त मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थ में स्पष्ट है।जिन लोगों ने आजकल वेदों की हिंसा करके उनको निष्कलङ्क बनाने पर कमर बाँधी है, उन्होंने उक्त मन्त्र को सामवेदसंहिता से उड़ा दिया, क्योंकि उनके परिवार में यह मन्त्र ऋग्वेद में आ चुका।पहले तो यह कथन ही सर्वथा मिथ्या है कि यह मन्त्र पूर्णाङ्गतया ऋग्वेद में आ चुका, क्योंकि ऋग्वेद में “ब्रह्म वर्म ममान्तरम्” इतने पर समाप्त है और सामवेद में “शर्म वर्म ममान्तरम्” इतना और है, जिसके अर्थ वाक्यभेद से सर्वथा भिन्न हैं अर्थात् “योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः”।अथर्व० ३।।६।२७।१ ॥ जब यह अन्य वाक्य के साथ मिलकर आने से छह वार आने पर भी पुनरुक्त नहीं, तो फिर भी उक्त सामवेद का मन्त्र क्यों पुनरुक्ति के दोष से दूषित किया जाता है।अन्य उत्तर यह है कि ऋग्वेद में यह मन्त्र योद्धाओं के प्रकरण में आया है और सामवेद में ईश्वर के प्रकरण में है। इस प्रकार प्रकरणभेद से भी अर्थ भिन्न हैं। अस्तु, इस विषय को हम वेदमर्यादा में बहुत लिख आए है। यहाँ मुख्य प्रसङ्ग यह है कि जो लोग ब्रह्म शब्द के अर्थ वेदों में ईश्वर के नहीं मानते, किन्तु स्तोत्र वा गीत के ही मानते हैं, उनके मत के निरास के लिये उक्त मन्त्र का उदाहरण दिया गया।प्रायः यूरोपनिवासी विद्वानों का यह विचार है कि ब्रह्म शब्द केवल औपनिषद समय में आकर सर्वव्यापक ब्रह्म शब्द के अर्थों में लिया गया, पहले नहीं।इसका समाधान एक प्रकार से तो हम चारों वेदों का एक-एक मन्त्र प्रमाण दे कर आए, परन्तु विशेषरीति से समाधान यह है कि यदि वैदिक समय में ब्रह्म शब्द का प्रयोग सर्वव्यापक ब्रह्म में नहीं मानो, तो “यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः” ॥ अथर्व १०।८।।४।१ ॥ में तीनों कालों में रस और सब से बड़ा ब्रह्म शब्द का अर्थ क्यों माना जाता ? इसी आधार को लेकर उपनिषदों में “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥ तै० २।१॥ “प्रज्ञानं ब्रह्म” ऐ० ३।१॥ “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म” ॥ बृ० ३।९।१८॥ “ब्रह्मैवेदं विश्वं” ॥ मु०। २।११ ॥ “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” ॥छा० ३।१४।१ ॥ “तपसा चीयते ब्रह्म” ॥मु० १।१।८ ॥ “यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्” ॥मु० ३।३॥ इत्यादि वाक्यों में ब्रह्म का निरूपण किया है। यह ब्रह्मनिरूपण एकमात्र वेद के आधार पर है, इसी अभिप्रायः से ब्रह्मविद्या वेदमूलक मानी गई है।केवल उपनिषदों में ही ब्रह्म का निरूपण नहीं, किन्तु जो प्रमाण १ प्रथम ऋग्वेद के मं० ६ का दिया गया है, उससे स्पष्ट सिद्ध है कि ब्रह्म नाम वेद में भी सर्वोपरि विश्वकर्त्ता जगदीश्वर का है।इसलिये कतिपय मन्त्रों में ब्रह्मणस्पति आ जाने से यह सन्देह नहीं करना चाहिये कि जब ब्रह्म का पति कोई और हुआ तो ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थ नहीं देता ? किन्तु उक्त स्थान में यह स्पष्ट है कि यहाँ ब्रह्म नाम वेद का है। यों तो “यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदनः” ॥ कठ० १।२।१५॥ यहाँ ब्रह्म शब्द ब्राह्मण स्वभाववाले वर्ण के लिये भी आता है, एवं “तदेतद् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रः ॥” बृ०। १।४।१५ ॥ यहाँ भी वर्णवाची ब्रह्म शब्द है, परन्तु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि प्रथम ब्रह्म शब्द जात्यादिकों का वाची ही था और बहुत देर बाद ईश्वरवाची समझा गया, अस्तु। यह कल्पना सर्वथा युक्तिहीन और निराधार है।यदि जातिवाचक भी ब्रह्म शब्द समझा जाय, तो आपत्ति यह है कि ब्राह्मण तो उसका अपत्य हुआ पर उससे प्रथम ब्रह्म क्या था ? यदि कहो कि वह भी जातिवाचक था, तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वह किससे उत्पन्न होने के कारण ब्रह्म कहलाया ? यदि कहो कि वह तो गुणवाचक शब्द है अर्थात् जिसमें बड़प्पन है, उसका नाम ब्रह्म है, तो फिर ब्राह्मण शब्द गुणवाची क्यों नहीं अर्थात् जिसका (ब्रह्म) वेद वा ईश्वर से सम्बन्ध हो, उसको ब्राह्मण कहते हैं, जैसा कि ‘शतपथब्राह्मण’ यहाँ ब्राह्मण शब्द के अर्थ होते हैं कि ‘ब्रह्मण इदं ब्राह्मणम्’ जो ब्रह्म से सम्बन्ध रखता हो। यहाँ व्याकरण की रीति से “तस्येदम्” ॥ ४।३।।१२०॥ इस सूत्र से अण् प्रत्यय है। यदि कहो कि “ब्राह्मोऽजातौ” अष्टा० ६।४।१७१॥ इस सूत्र से जातिभिन्नार्थ में सर्वत्र टि का लोप हो जाता है, तो ‘शतपथब्राह्मण’ यहाँ क्यों न हुआ। अस्तु, कुछ हो टि का लोप हो वा न हो, पर ब्राह्मण शब्द का प्रयोग तो जाति से भिन्नार्थ में भी पाया जाता है, जैसा कि ‘मण्डूका ब्राह्मणाः’ ॥मं० ७। सू० १०३ ॥ में पाया जाता है। क्या कोई कह सकता है कि यहाँ भी टि का अलुक् जाति मान कर हुआ है, कदापि नहीं।एवं सूक्ष्म विवेचना करने से सिद्ध यह हुआ कि ब्रह्म शब्द के मुख्यार्थ ईश्वर और गौणार्थ वेद और प्रकृत्यादि अन्य पदार्थ भी हैं।इसी अभिप्राय से गीता में कृष्णजी कहते हैं कि “मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्” ॥ गी० २४।।३॥ इस प्रकार यहाँ ब्रह्मणस्पति के अर्थ प्रकृति के अधिपति के भी लिये गये ॥और बात यह है कि इस सूक्त में ब्रह्मणस्पति और बृहस्पति का समानाधिकरण्य अर्थात् एक अर्थवाची दोनों शब्द हैं, फिर बृहस्पति को द्युलोक और प्रकृति को पृथिवीलोक कैसे पैदा कर सकता है ?यदि यह कहा जाय कि ‘जनित्री’ यह विशेषण द्युलोक और पृथिवीलोक को दिया गया है अर्थात् पृथिवीलोक और द्युलोक दोनों बृहस्पति के पैदा करनेवाले हैं, यह अर्थलाभ होता है, फिर बृहस्पति को पैदा करनेवाले द्युलोक और पृथिवीलोक क्यों न माने जायें ? इसका उत्तर यह है कि “प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस मन्त्र में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जनित्री वा जायमान के अर्थ प्रादुर्भाव के हैं, जिसके सरल भाषा में अर्थ प्रकट होना किये जा सकते हैं। सिद्ध यह हुआ कि द्युलोक और पृथिवीलोक ने परमात्मा के महत्त्व को सिद्ध किया। इसी अभिप्राय से अथर्ववेद में कहा है कि “यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्”॥ १०।४।३२॥ अर्थात् पृथिव्यादि लोक उसके ज्ञान के साधन हैं। इस बात को महर्षि व्यास ने “जन्माद्यस्य यतः” इस दूसरे सूत्र में वर्णन किया है कि इस चराचर संसार की उत्पत्ति, स्थिति, तथा प्रलय जिस बृहस्पति परमात्मा से होती है, उसको ब्रह्म कहते हैं ॥९॥
विषय
बृहस्पति प्रभु ।
भावार्थ
हे (ब्रह्मणस्पते ) ब्रह्मज्ञान वेद और बड़े राष्ट्र के पालक ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! जीव ! ( वां ) आप दोनों की ( इन्द्राय वज्रिणे ) शक्तिशाली आत्मा की ( इयं ) यह ( सुवृक्तिः ) उत्तम स्तुति (अकारि) की जाती है । आप दोनों ( धियः अविष्टं ) उत्तम बुद्धियों, कर्मों की रक्षा करो और ( पुरन्धीः जिगृतम् ) नाना कर्म करने वाले वा देह को पुरवत् धारण करने वाले जीवों को उत्तम उपदेश करो । ( वनुषां ) कर्म फल सेवन करने वाले जीवों के ( अरातीः ) सुखादि न देने वाले, बाधक ( अर्यः ) शत्रुओं को ( जजस्तम् ) नाश करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ इन्द्रः। २,४—८ बृहस्पतिः। ३,९ इन्द्राब्रह्मणस्पती। १० इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्दः—१ आर्षी त्रिष्टुप्। २, ४, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ५, ६, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ईश्वर की स्तुति
पदार्थ
पदार्थ- हे (ब्रह्मणस्पते) = वेद और राष्ट्र के पालक ! हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन्! जीव! (वां) = आप दोनों की (इन्द्राय वज्रिणे) = शक्तिशाली आत्मा की (इयं) = यह (सुवृक्तिः) = उत्तम स्तुति (अकारि) = की है। आप दोनों (धियः अविष्टं) = उत्तम बुद्धियों, कर्मों की रक्षा करो और (पुरन्धीः जिगृतम्) = देह के पुरवत् धारक जीवों को उपदेश करो। (वनुषां) = कर्मफल सेवन करनेवाले जीवों के (अराती:) = सुखादि न देनेवाले, बाधक (अर्यः) = शत्रुओं को (जजस्तम्) = नष्ट करो ।
भावार्थ
भावार्थ-वेदवाणी के पालक विद्वान् ईश्वर की स्तुति करते हुए उत्तम बुद्धि एवं श्रेष्ठ कर्मों की रक्षा करते हैं। अन्यों को भी उपदेश करके उनको सुखी बनाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Brahmanaspati, lord sustainer and protector of the vast reality of existence and its law and divine knowledge, this holy song of adoration is addressed to you and Indra in honour of the might and majesty of your glory and divine protection against darkness and evil. Pray listen, and protect our mind and action, awaken the rulers and protectors of our social order, fight out and destroy the enemies and oppositions of the devotees.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात ब्रह्मणस्पती शब्द त्याच वेदपती परमात्म्यासाठी प्रयुक्त झालेला आहे. त्याचे वर्णन या सूक्ताच्या कित्येक मंत्रांत यापूर्वी आलेले आहे.
टिप्पणी
ब्रह्मणस्पतीचा अर्थ वेदाचा पती असा आहे. अर्थात, आदि सृष्टीत ब्रह्मविद्येचा दाता एकमेव परमात्मा होता. याच अर्थाने परमात्म्याला (ब्रह्म) वेदाचा पती म्हटले आहे. $ जरी ब्रह्म शब्दाचा अर्थ प्रकृती असाही आहे. मोठ्यालाही ब्रह्म म्हटले आहे, तसेच पृथ्वी इत्यादी लोक लोकांतरांचे नावही ब्रह्म आहे. तरीही मुख्य नाव ब्रह्म हे परमात्म्याचेच आहे. जसे ‘तदेवाग्निस्तदा- दित्यस्तद्वायुस्तदुचन्द्रमा: । तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म’ । यजु. अ. ३२/१ ॥ यात अग्नी, आदित्य, वायू, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्म ही सर्व परमात्म्याची नावे आहेत व ‘यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वे यश्वाधितिष्ठति स्वर्यस्य च केवल तस्मैज्येष्ठाय ब्रह्मणेनम:’ ॥ अथ. १०/८/४/१ ॥ येथे (ज्येष्ठ) सर्वांत मोठा ब्रह्मशब्द ब्रह्मवाचक सिद्ध केलेला आहे व देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म्म ममान्तरम्’ ॥ साम. ९/२१/३॥ या मंत्रात ब्रह्म शब्द ईश्वरासाठी आलेला आहे. मंत्राचा आशय हा, की जे आपले स्वत:चे रक्षण करू शकत नाहीत किंवा आपल्या सेनेला मारतात, कायरता प्रदर्शित करतात अशा सैनिकांना विद्वान लोकांनी नष्ट करावे व ही प्रार्थना करावी, की परमात्मा (वर्म्म) कवचाप्रमाणे आमचा रक्षक असावा. परमात्म्याच्या आश्रयानेच सर्व शुभ कर्माची सिद्धी आस्तिक पुरुषांनी ठेवली पाहिजे. केवळ आपल्याच पुरुषार्थाने नव्हे. $ याच प्रकारे मंत्र ऋग्वेद मं. ६ सूक्त ७१ संख्या १९ मध्येही ‘ब्रह्म वर्म ममान्तरम्’ हा पाठ आहे. सूक्ताच्या शेवटी परमात्म्यालाच रक्षक मानलेले आहे, दुसऱ्याला नाही. $ जे लोक असे म्हणतात, की ऋग्वेदात ब्रह्म शब्द ईश्वराच्या अर्थाने नाही त्यांना वरील मंत्रावरून ज्ञानाचा लाभ घेतला पाहिजे. कारण वरील मंत्रात ब्रह्म शब्द ईश्वराच्या अर्थाने स्पष्ट आहे. $ ज्या लोकांनी आज वेदांची हिंसा करून त्यांना निष्कलंक बनविण्याचा चंग धरला आहे, त्यांनी वरील मंत्राला सामदेव संहितेतून वगळून टाकले आहे. कारण त्यांच्या परिवारात हा मंत्र ऋग्वेदात आलेला आहे. $ प्रथम हे विधान संपूर्णपणे मिथ्या आहे, की हा मंत्र पूर्णपणे ऋग्वेदात आलेला आहे. कारण ऋग्वेदात ‘ब्रह्म वर्म ममान्तरम्’वर समाप्त आहे व सामवेदात ‘शर्मवर्मममान्तरम्’ इतके अधिक आहे. ज्याचा अर्थ वाक्यभेदापेक्षा सर्वस्वी भिन्न आहे. अर्थात, ‘योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म:’ । अथर्व. ३/६/२७/१ ॥ जेव्हा हे इतर वाक्यांबरोबर मिळून आल्याने सहा वेळा येण्यानेही पुनरुक्त नाही तेव्हा वरील सामवेदाचा मंत्र पुनरुक्तीच्या दोषांनी दूषित केला जातो. $ दुसरे उत्तर हे, की ऋग्वेदात हा मंत्र योद्ध्यांच्या संदर्भात आलेला आहे व सामवेदात ईश्वरप्रकरणी आहे. या प्रकारे प्रकरणभेदाने अर्थ भिन्न आहे. हा विषय वेद मर्यादेमध्ये लिहिलेला आहे. येथे मुख्यत्वे हे आहे, की जे लोक ब्रह्म शब्द वेदात ईश्वरासाठी मानत नाहीत, तर स्तोत्र किंवा गीत मानतात, त्याचे निरसन व्हावे यासाठी वरील मंत्राचे उदाहरण दिलेले आहे. $ युरोप निवासी विद्वानांच्या मते ब्रह्म शब्द केवळ औपनिषद काळी येऊन सर्वव्यापक ब्रह्म शब्दाच्या अर्थाने घेतलेला आहे. त्यापूर्वी नाही. $ याचे उत्तर हे, की एक प्रकारे आम्ही चारही वेदांचा एक-एक मंत्र प्रमाण दिलेले आहे; परंतु विशेषरीतीने समाधान हे, की जर वैदिक काळी ब्रह्म शब्दाचा प्रयोग सर्वव्यापक ब्रह्मात मानला नाही, तर ‘यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति स्वर्यस्यं च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:’ ॥ अथर्व. १०/८/४/१॥ मध्ये तिन्ही काळात एक रस व सर्वांत मोठा ब्रह्म शब्दाचा अर्थ का मानला गेला याच्या आधारे उपनिषदात ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥ तै. २/१॥ ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ ऐ. ३।१॥ ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ ॥ बृ. ३/९/१८ ॥ ‘ब्रह्मै वेदं विश्वं’ मु. ।२।११’ सर्वखंल्विदं ब्रह्म’ ॥छा. ३।१४।१॥ ‘तपसाचीयते ब्रह्म’ ॥मु. १।१।८॥ ‘यदापश्य: पश्यते रुक्मवर्ण कर्त्तारमीश पुरुषं ब्रह्मयोनिम्’ ॥मु. ३।३॥ इत्यादी वाक्यांत ब्रह्माचे निरूपण केलेले आहे. हे ब्रह्मनिरूपण एकमात्र वेदाच्या आधारावर आहे. याच अभिप्रायाने ब्रह्मविद्या वेदमूलक मानलेली आहे. $ केवळ उपनिषदातच ब्रह्माचे निरूपण नाही तर जे प्रमाण १ प्रथम ऋग्वेदाच्या मं. ६ चे दिलेले होते. त्यावरून हे स्पष्ट होते, की ब्रह्म नाव वेदात सर्वस्वी विश्वकर्त्ता जगदीश्वराचे आहे. $ त्यासाठी कित्येक मंत्रांत ब्रह्मणस्पती शब्द आल्यास संशय येता कामा नये, की जेव्हा ब्रह्माचा पती कुणी दुसरा असल्यास ब्रह्मशब्द ईश्वराच्या अर्थाचा नसता? परंतु वरील स्थानी हे स्पष्ट आहे, की येथे ब्रह्म वेदाचे नाव आहे ‘यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदन:’ ॥ कठ. १।२।१५॥ येथे ब्रह्म शब्द ब्राह्मण स्वभावाच्या वर्णासाठी आलेला आहे व ‘तदेतद् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्र: ॥’ बृ. ।१।४।१५॥ येथेही वर्णवाची ब्रह्म शब्द आहे; परंतु यावरून हे सिद्ध होत नाही, की प्रथम ब्रह्म शब्द जात्यादिकांचा वाची होता. कालांतरानंतर ईश्वरवाची समजला गेला ही कल्पना सर्वस्वी युक्तिहीन व निराधार आहे. $ जर ब्रह्म शब्द जातिवाचक समजला तरी ब्राह्मण तर त्याचे अपत्य होईल. त्यामुळे यापूर्वी प्रथम ब्रह्म काय होता? जरी जातिवाचक मानले तरी प्रश्न उत्पन्न होतो, की तो कुणापासून उत्पन्न झाल्यामुळे ब्रह्म म्हणविला गेला. जर तो गुणवाचक शब्द अर्थात ज्याच्यात मोठेपण आहे त्याचे नाव ब्रह्म आहे. मग ब्राह्मण शब्द गुणवाचक का नाही? अर्थात, ज्याचा (ब्रह्म) वेद किंवा ईश्वराशी संबंध असेल त्याला ब्राह्मण म्हणतात. जसे ‘शतपथ ब्राह्मण’, ‘गोपथ ब्राह्मण’ येथे ब्राह्मण शब्दाचा अर्थ ‘ब्रह्मण इदं ब्राह्मणम्’ जो ब्रह्माशी संबंध ठेवतो. व्याकरणाच्या रीतीने ‘तस्येदम्’ ॥४।३।१२०॥ या सूत्राने अण् प्रत्यय आहे, जर ब्राह्मोऽजातौ ॥ अष्टा. ६।४।१७१॥ या सूत्राने जातिभिन्नार्थात सर्वत्र टि चा लोप होतो. शतपथ ब्राह्मण येथे का झाला नाही. काहीही होओ टि चा लोप होओ अथवा न होओ ब्राह्मण शब्दाचा प्रयोग जातीच्या भिन्न अर्थाने आढळतो. जसे ‘मण्डूका ब्राह्मणा:’ मं. ७।सू. १०३॥ मध्ये आढळतो. कोणी असे म्हणू शकेल काय, की येथेही टि चा अलुक जाती मानून झालेला आहे, कधीच नाही. $ सूक्ष्म विवेचन केल्याने हे सिद्ध होते, की ब्रह्म शब्दाचा मुख्य अर्थ ईश्वर व गौण अर्थ वेद व प्रकृती इत्यादी अन्य पदार्थ आहेत. $ याच अभिप्रायाने गीतेत श्रीकृष्ण म्हणतात, ‘मम योनिर्महद्वह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम्’ गी. १४।३ येथे ब्रह्मणस्पतीचा अर्थ प्रकृतीचा अधिपती होय. $ या सूक्तात ब्रह्मणस्पती व बृहस्पतीचे समानाधिकरण्य अर्थात एकाच अर्थाचे दोन्ही शब्द आहेत. बृहस्पतीला द्युलोक व प्रकृतीला पृथ्वीलोक कसे उत्पन्न करू शकतात? $ जर असे म्हटले, की जनित्री हे विशेषण द्युलोक व पृथ्वीलोकाला दिले. अर्थात, पृथ्वीलोक व द्युलोक दोन्ही बृहस्पतीला उत्पन्न करणारे आहेत, हा अर्थलाभ होतो. मग बृहस्पतीला उत्पन्न करणारे द्युलोक व पृथ्वीलोक का मानू नयेत? याचे उत्तर हे आहे की ‘प्रजापतिश्वरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते’ या मंत्रात ब्रह्माला अजन्मा मानून नंतर म्हटले आहे विजायते अर्थात ‘जनीप्रादुर्भावे’चा प्रयोग केलेला आहे. यावरून स्पष्ट सिद्ध होते, की जनित्री किंवा जायमानचा अर्थ प्रादुर्भावाचा आहे. ज्याचा अर्थ आहे प्रकट होणे. हे सिद्ध झाले, की द्युलोक व पृथ्वीलोकाने परमात्म्याच्या महत्त्वाला सिद्ध केले. याच अभिप्रायाने अथर्ववेदात म्हटलेले आहे ‘यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्’ ॥१०।४।३२॥ अर्थात, पृथ्वी इत्यादी लोक त्याच्या ज्ञानाचे साधन आहेत. महर्षी व्यासांनी ‘जन्माद्यस्ययत:’ दुसऱ्या सूत्रात वर्णन केलेले आहे, की या चराचर संसाराची उत्पत्ती, स्थिती, प्रलय बृहस्पती परमात्म्याकडून होतात, त्याला ब्रह्म म्हणतात. ॥९॥
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