ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 13
मो ते रि॑ष॒न्ये अच्छो॑क्तिभिर्व॒सोऽग्ने॒ केभि॑श्चि॒देवै॑: । की॒रिश्चि॒द्धि त्वामीट्टे॑ दू॒त्या॑य रा॒तह॑व्यः स्वध्व॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । ते । रि॒ष॒न् । ये । अच्छो॑क्तिऽभिः । व॒सो॒ इति॑ । अग्ने॑ । केभिः॑ । चि॒त् । एवैः॑ । की॒रिः । चि॒त् । हि । त्वाम् । ईट्टे॑ । दू॒त्या॑य । रा॒तऽह॑व्यः । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मो ते रिषन्ये अच्छोक्तिभिर्वसोऽग्ने केभिश्चिदेवै: । कीरिश्चिद्धि त्वामीट्टे दूत्याय रातहव्यः स्वध्वरः ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति । ते । रिषन् । ये । अच्छोक्तिऽभिः । वसो इति । अग्ने । केभिः । चित् । एवैः । कीरिः । चित् । हि । त्वाम् । ईट्टे । दूत्याय । रातऽहव्यः । सुऽअध्वरः ॥ ८.१०३.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, shelter home of the world, may they never come to harm who any way by any actions offer honour and worship to you in holy words. The celebrant, bearing havi to perform the holy yajna in service to you, prays to you to bring him knowledge, honour and prosperity in life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर आपल्या आदर्शाने दिव्य गुणांचा संदेशवाहक आहे. त्याच्या गुणांचे गान साधकाला दिव्य गुण धारण करण्याची प्रेरणा देते. त्यासाठी परमेश्वराची खऱ्या मनाने स्तुती करणारा असे कोणतेही कर्म करत नाही, ज्यामुळे त्याची हानी होईल. ॥१३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अग्ने) ज्ञान तथा तेजःस्वरूप (वसो) वासदाता प्रभु! जो साधक (अच्छोक्तिभिः) शुभ वचनों द्वारा, और (कः) सुखकर (एभिः चित्) प्रशस्त कर्मों द्वारा भी आपकी वन्दना करते हैं (ते) वे (मोरिषन्) कभी कष्ट नहीं पाते। क्योंकि (कीरिः चित्) तेरा गुणगान कर्ता तो (रातहव्यः) देने योग्य अपना सर्वस्व आपको समर्पित किये हुए, इसीलिये (स्वध्वरः) यज्ञ का सुष्ठु अनुष्ठाता बना हुआ (दूत्याय) दिव्य गुण धर्मों के सन्देशवाहकत्व हेतु (त्वाम् ईट्टे) आपको ऐश्वर्य का हेतु बनाता है॥१३॥
भावार्थ
प्रभु अपने आदर्श से दिव्यगुणों का सन्देश देने वाला है। उसके गुणों का गान साधक को दिव्य गुण धारण करने को प्रेरित करता है। इसीलिये प्रभु की सत्य मन से स्तुति करने वाले ऐसा कोई कर्म नहीं करते जो उन्हें क्षति पहुँचावे॥१३॥
विषय
वही सर्वोपास्य है।
भावार्थ
हे ( वसो ) सब में बसे ! सब को बसाने हारे ! ( अग्ने ) ज्ञान के प्रकाशक ! (ये) जो ( अच्छोक्तिभिः ) उत्तम वचनों और (केभिः-चित् एवैः) किसी प्रकार के भी उत्तम साधनों से ( त्वाम् ) तेरी उपासना करते हैं ( ते मो रिषन् ) वे कभी पीड़ित नहीं होते। ( कीरिः चित् हि ) उत्तम स्तुति करने हारा ही ( दूत्याय ) तेरे स्तुति कर्म के लिये ( रातहव्यः सु-अध्वरः ) अन्नादि चरु देता और उत्तम यज्ञ करता हुआ ( त्वाम् ईडे ) तेरी उपासना किया करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
निर्मल स्तुतिवचन व सुख वृद्धिवाले कर्म
पदार्थ
[१] हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! (ते) = वे (उ) = निश्चय से (मा रिषन्) = मत हिंसित हों, (ये) = जो (अच्छोक्तिभिः) = निर्मल स्तुतिवचनों से तथा (केभिः चित् एवै:) = [ क सुख] निश्चय से सुख के वृद्धिकर कर्मों से आपके स्तुति करनेवाले होते हैं। [२] (कीरिः) = स्तोता (चित्) = निश्चय से (त्वाम्) = आपको (ईट्टे) = स्तुत करता है। यह (दूत्याय) = ज्ञानसन्देश के वहन रूप कर्म को करनेवाला होता है। इस कर्म के लिये ही अपने जीवन को अर्पित करता है। (रातहव्यः) = हव्यों को देनेवाला, अर्थात् अग्निहोत्र करनेवाला होता है। (स्वध्वर:) = उत्तम हिंसारहित कर्मों में प्रवृत्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ-हम निर्मल स्तुतिवचनों से तथा सुखवृद्धि के कारणभूत कर्मों से प्रभु का उपासन करें। ज्ञान-सन्देश को सर्वत्र प्राप्त करायें, यज्ञशील हों, उत्तम हिंसारहित कर्मों में प्रवृत्त हों।
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