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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यस्मा॒द्रेज॑न्त कृ॒ष्टय॑श्च॒र्कृत्या॑नि कृण्व॒तः । स॒ह॒स्र॒सां मे॒धसा॑ताविव॒ त्मना॒ग्निं धी॒भिः स॑पर्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त् । रेज॑न्त । कृ॒ष्टयः॑ । च॒र्कृत्या॑नि । कृ॒ण्व॒तः । स॒ह॒स्र॒ऽसाम् । मे॒धसा॑तौऽइव । त्मना॑ । अ॒ग्निम् । धी॒भिः । स॒प॒र्य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्माद्रेजन्त कृष्टयश्चर्कृत्यानि कृण्वतः । सहस्रसां मेधसाताविव त्मनाग्निं धीभिः सपर्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात् । रेजन्त । कृष्टयः । चर्कृत्यानि । कृण्वतः । सहस्रऽसाम् । मेधसातौऽइव । त्मना । अग्निम् । धीभिः । सपर्यत ॥ ८.१०३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    From that gift of light the children of earth shine and continue doing their daily duties. O people, do service in homage to Agni, giver of light and a thousand other gifts as in yajnic generosity. Do so with your heart and soul, sincerely by thought and action.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमप्रभूने नाना प्रकारचे दान दिलेले आहे. त्याच्या गुणांचे श्रवण, मनन व निदिध्यासन याद्वारे माणसाची बुद्धी, त्याची विचारधारा पवित्र होते. पवित्र बुद्धिमान साधक आपले कर्तव्य कर्म करतो तेव्हा एक अभूतपूर्व आभा त्याच्या चेहऱ्यावर आढळून येते. ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (चर्कृत्यानि) बार-बार कर्त्तव्य कर्मों को (कृण्वतः) करते हुए (कृष्टयः) कर्मरूप बीज की कृषि करते हुए मानव (यस्मात्) जिससे (रेजन्ते) चमकते हैं-उस (अग्निम्) प्रभु को, जो (सहस्रासाम्) अनन्तदानदाता है, (मेधसातौ इव) मानो कि पवित्रता के बँटवारे के समय ही, (त्मना) अपने आप (धीभिः) मनन क्रियाओं से (सपर्यत) सेवन करो॥३॥

    भावार्थ

    प्रभु ने भाँति-भाँति के दान दिये हैं--उसके गुणों के श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन से मानव बुद्धि, उसकी विचारधारा, पावन होती है, पवित्र बुद्धि वाला साधक स्व कर्त्तव्य कर्मों को करता हुआ एक अभूतपूर्व आभा से आलोकित रहता है॥३॥

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    विषय

    कृषि फलवत् प्राप्ति।

    भावार्थ

    ( चर्कृत्यानि कृण्वतः यस्मात् ) अपने अवश्य कर्त्तव्य, सर्ग, स्थिति, प्रलय वा मृत्यु आदि नाना कर्मों के सम्पादन करते हुए जिस से ( कृष्टयः ) समस्त मनुष्य मानो अपने देह में कर्म बीज की कृषि करते और कर्मफल का संचय और उपभोग करते हुए समस्त जीव गण (रेजन्ते) भ्रमपूर्वक कांपते और सञ्चालित होते हैं मानो उस ( मेधसातौ इव ) पवित्र अन्नवत् अवश्य प्राप्य फल प्राप्त करने के काल में ( सहस्र-सां) एक सत् बीज का सहस्रों गुणा फल देने वाले ( अग्निं ) उस परम ज्ञानी पूज्य प्रभु की ( धीभिः सपर्यत ) उत्तम कर्मों और ज्ञानों, स्तुतियों से शुश्रूषा किया करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥

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    विषय

    अग्निं धीभिः सपर्यत

    पदार्थ

    [१] (यस्मात्) = जिस प्रभु से (चर्कृत्यानि कृण्वतः) = कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए (कृष्टयः) = श्रमशील मनुष्य (रेजन्त) = दीप्ति को प्राप्त करते हैं [रेज To shine], उस अग्निम् अग्रेणी प्रभु को (धीभिः) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों से (सपर्यत) = पूजो । प्रभु का पूजना कर्मों द्वारा ही होता है। [२] (मेधसातौ) = [मेध यज्ञ, साति = प्राप्ति] यज्ञों के सेवन के होने पर (स्ना इव) = स्वयं ही [एव] बिना किसी अन्य की सहायता के होने पर ही (सहस्त्रसाम्) = अनन्त लाभों के देनेवाले उस प्रभु का पूजन करो। प्रभु ने इन यज्ञों को 'कामधुक्' बनाया है, इनके द्वारा सब इष्टों की पूर्ति होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु क्रियाशील पुरुषों को दीप्त जीवनवाला बनाते हैं। कर्मों द्वारा ही प्रभु का उपासन होता है। यज्ञों के सेवन के होने पर प्रभु सब इष्ट कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

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