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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 13
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अ॒भ्रा॒तृ॒व्यो अ॒ना त्वमना॑पिरिन्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि । यु॒धेदा॑पि॒त्वमि॑च्छसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भ्रा॒तृ॒व्यः । अ॒ना । त्वम् । अना॑पिः । इ॒न्द्र॒ । ज॒नुषा॑ । स॒नात् । अ॒सि॒ । यु॒धा । इत् । आ॒पि॒ऽत्वम् । इ॒च्छ॒से॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभ्रातृव्यः । अना । त्वम् । अनापिः । इन्द्र । जनुषा । सनात् । असि । युधा । इत् । आपिऽत्वम् । इच्छसे ॥ ८.२१.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्ययुक्त सेनापते ! (त्वम्, अभ्रातृव्यः) अशत्रुः (अना) अनेतृकः (जनुषा) जन्मना (सनात्) सदा (अनापिः) बन्धुरहितः (असि) भवसि (युधा, इत्) संग्रामेणैव (आपित्वम्) सम्बन्धम् (इच्छसे) वाञ्छसि ॥१३॥

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    विषयः

    तदीयगुणा गेया इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वम् । जनुषा=जन्मना । सनादेव=चिरादेव । अभ्रातृव्यः=शत्रुरहितः । अना=अनायकः । अनापिः=अबन्धुः । युधा=युद्धेन । आपित्वम् । इच्छसे=इच्छसि ॥१३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्यसम्पन्न सेनापते ! (त्वम्) आप (अभ्रातृव्यः) शत्रुरहित (अना) स्वतन्त्र तथा (जनुषा) जन्म ही से (सनात्) सदा (अनापिः, असि) बन्धुरहित रहते हैं (युधा, इत्) केवल संग्राम ही से (आपित्वम्) सम्बन्ध को (इच्छसे) चाहते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    सेनापति को जन्म ही से बन्धुरहित इसलिये कहा है कि वह बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्यव्रत द्वारा विविध शस्त्रास्त्र सीखने के लिये वन्धुओं से वियुक्त रहता है, फिर शिक्षित होने पर विविध रक्षाओं में तत्पर रहने के कारण सामान्य जन के समान बान्धवों के साथ नहीं रहने पाता और संग्राम में सम्बन्ध को चाहना इसलिये कहा है कि बलप्रधान होने के कारण इसका सम्बन्ध बल ही के द्वारा होता है अर्थात् बलवान् शत्रु पराजित होकर और सामान्य प्रजाजन उसके प्रताप को सुनकर सम्बन्धी हो जाते हैं ॥१३॥

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    विषय

    उसके गुण गाने योग्य हैं, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (जनुषा) संसार के जन्म के साथ-२ (सनात्) सर्वदा (अभ्रातृव्यः+असि) तू शत्रुरहित है । (अना) तेरा नायक कोई नहीं (त्वम्+अनापिः) तू बन्धुरहित है (युधा+इत्) युद्ध द्वारा (आ+पित्वम्) बन्धुता को (इच्छसे) चाहता है ॥१३ ॥

    भावार्थ

    यद्यपि परमेश्वर सर्वोपाधिरहित है, तथापि इसका बन्धु जीवात्मा है, उस जीवात्मा को इस संसार में विजयी देखना चाहता है, जो विजयी होता है, वही उसका वास्तविक बन्धु है ॥१३ ॥

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    विषय

    प्रभु या राजा की सहायता से दुष्टों को दण्डित करने का संकल्प।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( अभ्रातृव्यः ) शत्रुरहित (अना) नेता रहित और ( सनात् ) अनादि काल से ( जनुषा ) स्वभावतः ( अनापिः असि ) बन्धुरहित है। तू ( युधा इत् ) युद्ध द्वारा ही ( आपित्वम् इच्छसे ) बन्धुता को चाहता है। जैसे कोई बलवान् राजा निर्बल पर आक्रमण करके ही उसके द्वारा प्रस्तुत सन्धि से बंधकर उसे अपना मित्र वा सम्बन्धी बना लेता है उसी प्रकार प्रभु परमेश्वर जीवगण को उनके कर्मानुसार ( युधा ) दण्डित करके ही उनको अपना भक्त बना लेता है, दुष्कर्म के बदले दण्ड पा कर दुःखी होकर वे प्रभु की शरण में ही आते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    युधा इत् आपित्वं इच्छसे

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (अभ्रातृव्यः) = शत्रुरहित (असि) = हैं। तथा (जनुषा) = पूर्णरूप से शक्तियों के प्रादुर्भाव के द्वारा (सनात्) = सदा से ही (अना) = अनेतृक व (अनापिः) = अबन्धु (असि) = हैं। आप सबके नेता हैं, आपका कोई और नेता नहीं। आपके समान शक्तियोंवाला कोई और नहीं, सो समानता के अभाव में आपका कोई बन्धु भी नहीं। [२] आप उपासकों के मित्र अवश्य होते हैं। परन्तु (युधा) = युद्ध के द्वारा (इत्) = ही (आपित्वम्) = मित्रभाव को (इच्छसे) = चाहते हैं। अर्थात् जब एक व्यक्ति 'काम-क्रोध-लोभ' आदि से युद्ध करता है, इन्हें जीतने का प्रयत्न करता है, तभी प्रभु इसके मित्र होते हैं। प्रभु जितनी पूर्णता कठिन है, परन्तु उस पूर्णता की ओर चलनेवाला ही प्रभु की मित्रता का पात्र होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु शत्रुरहित हैं। प्रभु का कोई नेता नहीं, वे सब के नेता हैं। समानता के द्वारा कोई प्रभु का बन्धु नहीं, प्रभु की बराबरी का नहीं। जो भी काम-क्रोध आदि से संघर्ष करता है वही प्रभु का मित्र बन पाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of absolute might by nature, since birth of the universe, indeed for eternity, you are without a rival, need no leader, no friend and no comrade, but in the dynamics of human life you do want that the human should be your companion in and for his struggle for self-evolution and social progress.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जरी परमेश्वर सर्वोपाधिरहित आहे तरी त्याचा बंधू जीवात्मा आहे. तो जीवात्म्याला या जगात विजयी पाहू इच्छितो. जो जीव विजयी होतो तोच त्याचा खरा बंधू आहे. ॥१३॥

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