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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 16
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मा ते॑ गोदत्र॒ निर॑राम॒ राध॑स॒ इन्द्र॒ मा ते॑ गृहामहि । दृ॒ळ्हा चि॑द॒र्यः प्र मृ॑शा॒भ्या भ॑र॒ न ते॑ दा॒मान॑ आ॒दभे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । ते॒ । गो॒ऽद॒त्र॒ । निः । अ॒रा॒म॒ । राध॑सः । इन्द्र॑ । मा । ते॒ । गृ॒हा॒म॒हि॒ । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । अ॒र्यः । प्र । मृ॒श॒ । अ॒भि । आ । भ॒र॒ । न । ते॒ । दा॒मानः॑ । आ॒ऽदभे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा ते गोदत्र निरराम राधस इन्द्र मा ते गृहामहि । दृळ्हा चिदर्यः प्र मृशाभ्या भर न ते दामान आदभे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । ते । गोऽदत्र । निः । अराम । राधसः । इन्द्र । मा । ते । गृहामहि । दृळ्हा । चित् । अर्यः । प्र । मृश । अभि । आ । भर । न । ते । दामानः । आऽदभे ॥ ८.२१.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (गोदत्र) हे तेजोद, विद्याप्रद गवादिदानशील वा (इन्द्र) सेनापते ! (ते) तव वयम् (राधसः) धनात् (मा, निरराम) मा निर्गच्छेम (ते) वयं तवातः (मा, गृहामहि) अन्यस्मान्मा गृह्णाम (अर्यः) स्वामी त्वम् (दृढा, चित्, प्रमृश) दृढानि एव देहि (अभ्याभर) अभितः आहर (ते, दामानः) तव दानानि (न, आदभे) आदब्धुं न शक्यन्ते ॥१६॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्तते ।

    पदार्थः

    हे गोदत्र=गवादिपशूनां दातः ! ते=तव उपासकाः वयम् । राधसः=धनात् । मा+निरराम=मा निर्गमाम । ते=तवोपासकाः । वयम् । मा+गृहामहि=अन्यस्मात् न गृह्णीमः । अर्य्यः=स्वामी त्वम् । दृढाचित्=दृढान्यपि धनानि । प्र+मृश=अस्मासु स्थापय । अभ्याभर=अभितः समन्तात् पोषय । ते=तव । दामानः=दानानि । न । आदभे=आदभ्यन्ते आदम्भितुं शक्यन्ते ॥१६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (गोदत्र) हे तेजःप्रद अथवा विद्याप्रद वा गवादिवर्धक (इन्द्र) सेनापते ! (ते) आपके हम सब प्रजाजन (राधसः) धन से (मा, निरराम) पृथक् मत हों (ते) और हम सब आप ही के रक्ष्य हैं इससे (मा, गृहामहि) अन्य किसी से ऋणादिरूप से किसी पदार्थ को मत लें (अर्यः) आप स्वामी हैं अतः (दृढा, चित्, प्रमृश) सब दृढ़ पदार्थों को दें (अभ्याभर) सम्यक् पालन-पोषण करें (ते, दामानः) आपके दिये दान (न, आदभे) किसी से बाधित नहीं किये जा सकते ॥१६॥

    भावार्थ

    सेनापति को चाहिये कि राष्ट्र के किसी एक विभाग में धन या किसी अन्य वस्तु की न्यूनता हो तो वह दूसरे विभाग से पूर्ण करे और जहाँ तक हो सके पौरुष, ज्ञान, विज्ञान तथा गो आदि पदार्थों की वृद्धि करता रहे, जिससे नित्यावश्यक पदार्थों से उसका राष्ट्र क्लेशित न हो ॥१६॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (गोदत्र) हे गवादि पशुओं के दाता ! (ते) तेरे उपासक हम लोग (राधसः) सम्पत्तियों से (मा+निरराम) पृथक् न होवें । और (ते) तेरे उपासक हम (मा+गृहामहि) दूसरे का धन न ग्रहण करें । (अर्यः) तू धनस्वामी है (दृढाचित्) दृढ़ धनों को भी (प्र+मृश) दे (अभि+आभर) सब तरह से हमको पुष्ट कर (ते+दामानः) तेरे दान न (आदभे) अनिवार्य हैं ॥१६ ॥

    भावार्थ

    हम अपने पुरुषार्थ से धनसंग्रह करें । दूसरों के धनों की आशा न करें । ईश्वर से ही अभ्युदय के लिये माँगें ॥१६ ॥

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    विषय

    न्यायप्रद प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( गोदत्र ) भूमियों, वाणियों और इन्द्रियों के देने हारे प्रभो ! हम लोग ( ते राधसः ) तेरे दिये धन-आराधना से ( मा नि रराम ) कभी वञ्चित न हों। हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हम ( ते ) तेरे होकर ( मा गृहामहि ) दूसरे का ग्रहण न करें। तू ( अर्यः ) स्वामी होकर ( दृढ़ा ) दृढ़, स्थिर धनों का ( प्र मृश ) प्रदान कर वा तू दृढ़ होकर हमें पकड़, और हमारे विषय में निर्णय, विचार कर। ( अभि आ भर ) हमें उत्तम रीति से पालन कर, सब ओर से हमें पकड़, ( ते दामानः ) तेरे दान और बन्धन ( न आ-दभे ) कभी विनष्ट नहीं हो सकते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेघवत् दाता, महाराज प्रभु।

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    विषय

    किसी ओर से माँगें

    पदार्थ

    [१] हे (गोदत्र) = सब ज्ञान की वाणियों व इन्द्रियों को देनेवाले प्रभो ! हम (ते राधसः) = आपके ऐश्वर्य से (मामत निरराम) = [निर्गमाम ] पृथक् हों, सदा आपसे ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले हों । हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (ते) = तेरे होते हुए हम (मा) = गृहामहि औरों से लेनेवाले न हों। सदा देनेवाले बनें, लेनेवाले नहीं। [२] (अर्य:) = स्वामी होते हुए आप (चित्) = निश्चय से (दृढा) = स्थिर ऐश्वर्यों को (प्रमृश) = हमारे लिये सोचिये । हमें ऐसा ज्ञान दीजिये कि हम स्थिर ऐश्वर्यों को प्राप्त करनेवाले हों। (अभि आभर) = हमें इन ऐश्वर्यों से भर दीजिये। (ते) = आपकी (दामान:) = दान क्रियायें (न आदभे) = कभी हिंसित नहीं होती। आप से प्राप्त धनों को हम भी देनेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें सदा प्रभु के अनुग्रह से धन प्राप्त हो, हम कभी औरों से माँगें नहीं। हमारे धन स्थिर हों। प्रभु के दान के हम सदा पात्र बने रहें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord giver of lands and cows, knowledge and enlightened culture, let us never fall from your gifts of divine munificence. Let us never take anything from anyone other than you. O lord of the world’s wealth, bear and bring us your gifts of permanent value. No one can ever disturb or stop the flow of your gifts of love and charity to humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही आपल्या पुरुषार्थाने धनसंग्रह करावा. दुसऱ्याच्या धनाची आशा करता कामा नये. अभ्युदयासाठी ईश्वराची याचना करावी. ॥१६॥

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