ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 14
त्वं ह्य॑ग्ने अ॒ग्निना॒ विप्रो॒ विप्रे॑ण॒ सन्त्स॒ता । सखा॒ सख्या॑ समि॒ध्यसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । अ॒ग्ने॒ । अ॒ग्निना॑ । विप्रः॑ । विप्रे॑ण । सन् । स॒ता । सखा॑ । सख्या॑ । स॒म्ऽइ॒ध्यसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह्यग्ने अग्निना विप्रो विप्रेण सन्त्सता । सखा सख्या समिध्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । अग्ने । अग्निना । विप्रः । विप्रेण । सन् । सता । सखा । सख्या । सम्ऽइध्यसे ॥ ८.४३.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You rise and shine, O lord of light and life, as fire with the fiery, as vibrant scholarship with the vibrant scholar, as holy spirit with the holy people, and as love and friendship with the friend.
मराठी (1)
भावार्थ
जसे सूर्य व वायू इत्यादी दृश्य असतात तसा परमात्मा स्वरूपाने कुठेही दृश्य होत नाही. त्याचे कोणतेही आकृतिरूप नाही. त्यासाठी वेद म्हणतो तत् तत् रूपाबरोबर तत् तत् स्वरूपही तो आहे ‘रुपं रूपं प्रतिरूपो बभूवे’ इत्यादी याच अभिप्रायाने म्हटलेले आहे. त्यामुळे तो अगम्य आहे. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
अनयेश्वरस्य महत्त्वं दर्शयति ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वगतिप्रद ! हि=यतः । अग्निना सह अग्निर्भूत्वा । त्वं समिध्यसे=सम्यग् दीप्यसे । विप्रेण=मेधाविना सह विप्रो भूत्वा समिध्यसे । सता=साधुना सह । सन्=साधुर्भूत्वा । सख्या सह=सखाभूत्वा समिध्यसे । अतस्तत्तद्रूपोऽसीत्यर्थः । अत एवागम्योऽसि ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस ऋचा से ईश्वर का महत्त्व दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगतिप्रद परमात्मन् ! (हि) जिस हेतु (त्वम्) तू (अग्निना) अग्नि के साथ अग्नि होकर (समिध्यसे) भासित होता है, (विप्रेण) मेधावी विद्वान् के साथ (विप्रः) विद्वान् होकर (सता) साधु के साथ (सत्) साधु होकर (सख्या+सखा) मित्र के साथ मित्र होकर प्रकाशित हो रहा है, अतः तू अगम्य और अबोध्य हो रहा है ॥१४ ॥
भावार्थ
जैसे सूर्य्य और वायु आदि दृश्य होते हैं, तद्वत् परमात्मा स्वरूप से कहीं पर भी दृश्य नहीं होता । उसकी कोई आकृति रूप नहीं । अतः वेद भगवान् कहते हैं कि तत्-तत् रूप के साथ तत्-तत् स्वरूप ही वह है । “रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव” इत्यादि भी इसी अभिप्राय से कहा गया है, अतः वह अगम्य हो रहा है ॥१४ ॥
विषय
उसके प्रकाशित होने का प्रकार।
भावार्थ
जिस प्रकार ( अग्निना अग्निः समिध्यते ) एक अग्नि से दूसरी अग्नि मिलकर और अधिक दीप्तियुक्त होता है और जिस प्रकार ( विप्रः विप्रेण समिध्यते ) विद्वान् पुरुष विद्वान् से मिलकर और अधिक ज्ञान का प्रकाश करता है और जिस प्रकार ( सन् सता ) सज्जन सज्जन से मिलकर प्रसन्न होता है, ( सखा सख्या समिध्यते ) स्नेही मित्र से स्नेहवान्, जन मिलकर अधिक प्रसन्न होता है उसी प्रकार हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप सर्वप्रकाशक प्रभो ! तू भी ( अग्निना ) स्वप्रकाश आत्मा द्वारा ( समिध्यसे ) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है, तू ( विप्रः ) विविध ज्ञानों से पूर्ण है, वह तू ( विप्रेण ) विशेष आत्मज्ञान से ‘पूर्ण’ आत्मा द्वारा ही ( समिध्यसे ) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता, जाना जाता है। तू ( सन् ) सत् स्वरूप (सता) सत् नित्य आत्मा से ही जाना जाता है। तू (सखा) आत्मा का परम स्नेही है, तू ( सख्या ) अपने मित्र आत्मा द्वारा ही जाना जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'अग्नि+विप्र+सन्+सखा'
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वं) = आप (हि) = निश्चय से (अग्निना) = प्रगतिशील उपासक से (समिध्यसे) = हृदयदेश में समिद्ध किये जाते हैं। (विप्रः) = ज्ञानी आप विप्रेण ज्ञानी उपासक के द्वारा समिद्ध होते हैं। (सन्) = सब उत्तमताओं वाले सत्यस्वरूप आप (सता) = सज्जनता को अपनानेवाले उपासक से समिद्ध किये जाते हैं। (सखा) = सबके मित्रभूत आप (सख्या) = मित्रभाव से चलनेवाले पुरुष के द्वारा उपासित होते हैं। [२] उपास्य के रंग में अपने को रंगता हुआ उपासक ही सभी उपासना कर पाता है। सो हम 'अग्नि' बनकर 'अग्नि' नामक प्रभु का उपासन करें। 'विप्र' बनकर विप्र प्रभु को पूजित करें। 'सत्' बनकर सत्यस्वरूप प्रभु के सेवक हों और मित्रता को अपनाकर सबके मित्र प्रभु को प्रसन्न करें। ब्रह्मचर्याश्रम में 'अग्नि', गृहस्थ में 'विप्र', वानप्रस्थ में 'सत्' व संन्यास में 'सखा' होऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु का उपासक 'अग्नि, विप्र, सत् व सखा' होता है।
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