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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 19
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निं धी॒भिर्म॑नी॒षिणो॒ मेधि॑रासो विप॒श्चित॑: । अ॒द्म॒सद्या॑य हिन्विरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । धी॒भिः । म॒नी॒षिणः॑ । मेधि॑रासः । वि॒पः॒ऽचितः॑ । अ॒द्म॒ऽसद्या॑य । हि॒न्वि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं धीभिर्मनीषिणो मेधिरासो विपश्चित: । अद्मसद्याय हिन्विरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । धीभिः । मनीषिणः । मेधिरासः । विपःऽचितः । अद्मऽसद्याय । हिन्विरे ॥ ८.४३.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 19
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thoughtful intellectuals, men of yajnic actions and wise sages all with their thoughts, words and actions invoke, invite and call upon Agni for the common welfare of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जेव्हा श्रेष्ठ पुरुष संपूर्ण मनोरथाच्या सिद्धीसाठी त्यालाच (ईश्वराला) प्रसन्न करतात, तेव्हा तुम्हीही इतर भौतिक अग्नी, सूर्य इत्यादीची उपासना व पूजा सोडून केवळ त्याचीच पूजा करा. ॥१९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सर्वपूज्य ईश्वर एवास्तीति प्रदर्श्यते ।

    पदार्थः

    मनीषिणः=मनस्विनो मनसः प्रभवः । मेधिरासः=मेधाविनः । विपश्चितः=तत्वविद् आत्मद्रष्टारः । ईदृशा जनाः । अद्मसद्याय=ज्ञानविज्ञानसिद्धये । धीभिः=सर्वाभिः सुमतिभिः कर्मभिश्च । अग्निमेव । हिन्विरे=प्रीणयन्ति ॥१९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    सर्वपूज्य ईश्वर ही है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (मनीषिणः) मनस्वी और मन के ऊपर अधिकार रखनेवाले (मेधिरासः) विद्वान् और (विपश्चितः) तत्त्ववित् और आत्मद्रष्टा ऐसे जन (अद्मसद्याय) ज्ञान-विज्ञान की सिद्धि के लिये अथवा विविध भोग के लिये (धीभिः) सर्व प्रकार की सुमतियों तथा कर्मों से (अग्निम्) अग्नि-वाच्य परमात्मा को ही प्रसन्न करते हैं ॥१९ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! जब श्रेष्ठ पुरुष निखिल मनोरथ की सिद्धि के लिये उसी को प्रसन्न करते हैं, तब आप भी अन्यान्य भौतिक अग्नि सूर्य्यादिकों की उपासना पूजा छोड़कर केवल उसी को पूजो ॥१९ ॥

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    विषय

    सर्वाध्यक्ष प्रभु।

    भावार्थ

    ( मेघिरासः ) अन्नादि के स्वामी, ( मनीषिणः ) मनों को सन्मार्ग में चलाने वाले, ( विपश्चितः ) ज्ञानवान् विद्वान् लोग ( धीभिः) उत्तम ज्ञानों, कर्मों तथा धारण योग्य वेदवाणियों, स्तुतियों से (अद्म सद्याय) कालाग्नि रूप से अन्नवत् खाने योग्य, समस्त विश्व में अधिष्ठातृवत् विराजने और व्यापने के अर्थ ( हिन्वन्ति ) तेरी स्तुति करते हैं। ( २ ) यज्ञ में विद्वान् चरु ग्रहणार्थ अग्नि को बढ़ाते हैं। गृह में अन्न भोजनार्थ अतिथि विद्वान् को प्रार्थना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अद्मसद्याय ( घर में रहने के लिए )

    पदार्थ

    [१] (मनीषिण:) = मन का शासन करनेवाले, (मेधिरासः) = बुद्धिमान्, (विपश्चितः) = ज्ञानी पुरुष (धीभिः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों को करने के द्वारा (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (अद्मसद्याय) = शरीररूप गृह में (सद्) = बैठना निवास के लिए (हिन्विरे) = प्रीणित करते हैं-प्रसन्न करते हैं, मनाते हैं। [२] जब मनीषी, मेधिर, विपश्चित, पुरुष ज्ञानपूर्वक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, तो प्रभु को शरीररूप गृह में निवास के लिए प्रेरित कर लेते हैं। इन मनीषियों के शरीरों में प्रभु का वास होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ:- हम मन को वश में करें, बुद्धिमान् बनें तथा विपश्चित् [ज्ञानी] हों। ऐसा बनकर ज्ञानपूर्वक कर्मों में प्रवृत्त हों। तब प्रभु का हमारे हृदय में दर्शन होगा।

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