ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 28
यद॑ग्ने दिवि॒जा अस्य॑प्सु॒जा वा॑ सहस्कृत । तं त्वा॑ गी॒र्भिर्ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ग्ने॒ । दि॒वि॒ऽजाः । असि॑ । अ॒प्सु॒ऽजाः । वा॒ । स॒हः॒ऽकृ॒त॒ । तम् । त्वा॒ । गीः॒ऽभिः । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने दिविजा अस्यप्सुजा वा सहस्कृत । तं त्वा गीर्भिर्हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अग्ने । दिविऽजाः । असि । अप्सुऽजाः । वा । सहःऽकृत । तम् । त्वा । गीःऽभिः । हवामहे ॥ ८.४३.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 28
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, whether you manifest in heaven, or in the waters or shine in acts of universal divine power, we adore, worship and invoke you in the holiest words.
मराठी (1)
भावार्थ
लोक समजतात की, परमात्मा सूर्य, अग्नी इत्यादी तेजस्वी पदार्थांमध्ये व्यापक आहे. या ऋचेद्वारे हे दर्शविले जाते की, परमात्मा सर्वत्र व्यापक आहे. जो सर्वात व्याप्त आहे. त्याचीच कीर्ती आम्ही गातो, तुम्हीही गा. ॥२८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! हे सहस्कृत=सहसां जगतां कर्तः परमात्मन् ! यद् यत् त्वम् । दिविजाः=सर्वोपरि द्युलोकेऽजायसे । असि वा=अथवा । अप्सुजाः=सर्वत्राकाशेषु जायसे । आप इत्याकाशनाम=निघण्टौ । सर्वव्यापकोऽसीत्यर्थः । तं त्वा=त्वाम् । गीर्भिः । हवामहे=ह्वयामः स्तुमः ॥२८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वशक्ते सर्वगतिप्रद ! (सहस्कृत) हे समस्त जगत्कर्ता परमात्मन् ! (यत्) जो तू (दिविजाः) सर्वोपरि द्युलोक में भी (असि) विद्यमान है (वा) अथवा (अप्सुजाः) सर्वत्र आकाश में तू व्यापक है, (तम्+त्वाम्) उस तुझको (गीर्भिः) वचनों द्वारा (हवामहे) स्तुति करते हैं, तेरी महती कीर्ति को गाते हैं ॥२८ ॥
भावार्थ
लोक समझते हैं कि भगवान् सूर्य्य अग्नि आदि तेजस पदार्थों में ही व्यापक है । इस ऋचा द्वारा दिखलाते हैं कि भगवान् सर्वत्र व्यापक है । जो सबमें व्याप्त है, उसी की कीर्ति हम गाते हैं । आप भी गावें ॥२८ ॥
विषय
आत्मा के तीन रूप।
भावार्थ
अग्नि जिस प्रकार तीन प्रकार का है, ( दिविजाः ) आकाश में प्रकट सूर्य, ( अप्सुजाः ) जलों में प्रकट वा अन्तरिक्ष में उत्पन्न विद्युत्, और ( सहस्कृतः ) बल या मथन से उत्पन्न यह अग्नि, इसी प्रकार आत्मा भी तीन प्रकार से प्रकट होता है। (१) ( दिविजा: ) कामना रूप से प्रकट, ( २ ) ( अप्सुजाः ) प्राणों में प्रकट, ( ३ ) ( सहस्कृतः ) प्रतिरोधी उष्ण शीतादि को सहन करने वाले बल रूप में प्रकट। इसी प्रकार परमेश्वर के तीन गुण, ( दिविजाः ) परम आकाश में सूर्यादि का उत्पादक, ( अप्सुजा: ) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं वा जलों में और अन्तरिक्ष में गत पदार्थों का उत्पादक, ( सहस्कृत ) सर्वातिशायी, सर्वव्यवस्थापक बल होकर विश्व के उत्पादक, हे (अग्ने ) स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्मन् प्रभो ! हे उक्त तीनों विशेषणों वाले ! ( तं त्वा ) उस तुझ को हम ( गीर्भिः ) नाना उत्तम वाणियों से ( हवामहे ) स्तुति करते हैं, तेरा गुण वर्णन करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
दिविजाः, अप्सुजाः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यद्) = जो आप (दिविजाः असि) = ज्ञानज्योति के होने पर प्रादुर्भूत होनेवाले हैं। (वा) = अथवा (अप्सुजाः) = रेतः कणरूप जलों में प्रादुर्भूत होनेवाले हैं। प्रभु का प्रकाश उसी को दिखता है, जो ज्ञानज्योति को अपने अन्दर दीप्त करता है, तथा रेतःकणों का रक्षण करता हुआ ज्ञानाग्नि को समिद्ध करता है। [२] हे (सहस्कृत) = बल का हमारे में सम्पादन करनेवाले प्रभो ! (तं त्वा) = उन आपको हम (गीर्भिः) = स्तुतिवाणियों से हवामहे पुकारते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का दर्शन ज्ञानी व सोमरक्षक संयमी पुरुष को होता है।
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