ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 10
विश्वेत्ता विष्णु॒राभ॑रदुरुक्र॒मस्त्वेषि॑तः । श॒तं म॑हि॒षान्क्षी॑रपा॒कमो॑द॒नं व॑रा॒हमिन्द्र॑ एमु॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑ । इत् । ता । विष्णुः॑ । आ । अ॒भ॒र॒त् । उ॒रु॒ऽक्र॒मः । त्वाऽइ॑षितः । श॒तम् । म॒हि॒षान् । क्षी॒र॒ऽपा॒कम् । ओ॒द॒नम् । व॒रा॒हम् । इन्द्रः॑ । ए॒मु॒षम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेत्ता विष्णुराभरदुरुक्रमस्त्वेषितः । शतं महिषान्क्षीरपाकमोदनं वराहमिन्द्र एमुषम् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वा । इत् । ता । विष्णुः । आ । अभरत् । उरुऽक्रमः । त्वाऽइषितः । शतम् । महिषान् । क्षीरऽपाकम् । ओदनम् । वराहम् । इन्द्रः । एमुषम् ॥ ८.७७.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, Vishnu, too, lord omniscient and omnipotent, as wished and prayed, brings in all these hundreds of great things, cattle wealth, milky delicacies and rain laden clouds.
मराठी (1)
भावार्थ
मेघाद्वारे तृण व अन्नाची वृद्धी होते त्यापासून पशूंची व पशूंपासून दुध, दही इत्यादीची. ज्याच्या राज्यात सदैव वृष्टी होते व मनुष्य निरामय असतो तेव्हा समजावे की, राजा धर्मात्मा आहे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र महाराज ! त्वेषितः=त्वया प्रार्थितः । उरुक्रमः=सर्वत्र स्थितः विष्णुः=परमात्मापि । ता=तानि । विश्वा+इत् विश्वान्येव=सर्वाण्येव वस्तूनि । आभरत्= आहरति । तानि कानि । शतं+महिषान्=बहून् पशून् । महिषशब्दो गवादिपशूपलक्षकः । क्षीरपाकमोदनम् । एमुषम्=उदकस्य मोषकम् । वराहम्=मेघम् । इत्यादीनि वस्तूनि संप्रयच्छतीति तवैव प्रार्थनाफलम् । अतस्त्वं धन्योऽसि ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे महाराज ! (त्वेषितः) आपसे सुप्रार्थित (उरुक्रमः) सर्वत्र स्थित (विष्णुः) परमात्मा भी (तान्) उन-उन आवश्यक (विश्वा+इत्) समस्त वस्तुओं को (आ+भरत्) देता है । वह ईश्वर आपके राज्य में (शतम्+महिषान्) अपरिमित भैंस, गौ, अश्व, मेष और हाथी पशु देता है और (क्षीरपाकम्+ओदनम्) दूध में पका भात और (एमुषम्) जलप्रद (वराहम्) मेघ देता है । यह आपकी ही प्रार्थना का फल है, अतः आप धन्य और प्रशंसनीय राजा हैं ॥१० ॥
भावार्थ
मेघ से घासों और अन्नों की वृद्धि होती है, उनसे पशुओं की और पशुओं से दूध दही आदि की । जिसके राज्य में सदा वर्षा होती है और मनुष्य निरामय सुखी हों, तो समझना कि राजा धर्मात्मा है ॥१० ॥
विषय
शस्त्रबल।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य के ताप या प्रकाश से प्रेरित वायु महान् आकाश में विचरता समस्त मेघादि को ले आता है उसी प्रकार हे ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन् ! ( त्वा इषितः ) तेरे से प्रेरित होकर ( उरु क्रमः ) बड़ा, पराक्रमी, ( विष्णुः ) व्यापक सामर्थ्यवान् पुरुष ( ता विश्वा इत् ) उन २ समस्त पदार्थों को ( आ अभरत् ) प्राप्त कराता है। वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् ही मानो ( शतं महिपान् ) सैकड़ों बलवान् पुरुषों को ( क्षीरपाकम् ओदनम् ) दूध में पके भात के समान सात्विक भाव से प्राप्त ऐश्वर्य और ( एमुषं ) सब तरफ से ज्ञान संग्रह करने वाले ( वराहम् ) उत्तम वचन के वक्ता वा यज्ञ को भी प्राप्त करे। सूर्य भी अपरिमित बड़े २ मेघ, ( क्षीरपाकं ) पानी से सेचित होकर पकने वाले अन्नादि धान्य और जल को लाने वाली वायु को धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
* कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती। ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम्॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
विषय
महषि, क्षीरपाक ओदन, एमुष वराह
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वा इषितः) = तेरे से प्रार्थना किया हुआ तेरे से जाना गया- यह (विष्णुः) = सर्वव्यापक (उरुक्रमः) = महान् पराक्रमवाला प्रभु (विश्वा इत् ता) = सब ही निश्चय से उन ज्ञानों को गतमन्त्र में वर्णित 'च्यौल वर्षिष्ठ' ज्ञानों को आभरत् प्राप्त कराता है । [२] ये प्रभु ही (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त (महिषान्) = [मह पूजायाम्] पूजा की भावनाओं को अथवा उत्तम यज्ञों को प्राप्त कराते हैं। (क्षीरपाकम्) = वेदधेनु के दुग्ध में पके (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को प्राप्त कराते हैं। तथा (एमुषम्) = [मुष स्तेये] सब बुराइयों का मोषण करनेवाली (वराहम्) = [ वरं वरं आहन्ति, हन् गतौ प्राप्तौ ] उत्तमताओं को प्राप्त करानेवाली वृत्ति को हमारे अन्दर भरते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रार्थना किये हुए प्रभु ज्ञानों को, पूजा की भावनाओं को, वेदधेनु के दुग्ध में पके ज्ञान के भोजन को तथा बुराइयों को समाप्त करनेवाली उत्तमता की वृत्ति को प्राप्त कराते हैं।
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