ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 6
निरा॑विध्यद्गि॒रिभ्य॒ आ धा॒रय॑त्प॒क्वमो॑द॒नम् । इन्द्रो॑ बु॒न्दं स्वा॑ततम् ॥
स्वर सहित पद पाठनिः । अ॒वि॒ध्य॒त् । गि॒रिऽभ्यः॑ । आ । धा॒रय॑त् । प॒क्वम् । ओ॒द॒नम् । इन्द्रः॑ । बु॒न्दम् । सुऽआ॑ततम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
निराविध्यद्गिरिभ्य आ धारयत्पक्वमोदनम् । इन्द्रो बुन्दं स्वाततम् ॥
स्वर रहित पद पाठनिः । अविध्यत् । गिरिऽभ्यः । आ । धारयत् । पक्वम् । ओदनम् । इन्द्रः । बुन्दम् । सुऽआततम् ॥ ८.७७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, the ruler, should break the clouds for showers of rain, open out caverns of mountains to drive out destructive elements, build up ample food stocks and expand the armaments for defence.
मराठी (1)
भावार्थ
गिरि = हा शब्द उपलक्षक आहे. पुष्कळ दुष्ट लोक पर्वत इत्यादी अगम्य स्थानी लपतात. तेथे ही त्यांना राहू देऊ नये व जेव्हा जेव्हा प्रजेमध्ये अन्नाची कमतरता होईल तेव्हा तेव्हा राजाने तयाचा पूर्ण प्रबंध करावा. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
य इन्द्रो राजा । स्वाततम्=सुष्ठु सर्वत आततं=विस्तृतम् । बुन्दम्=इषुम् । आदायेति शेषः । गिरिभ्योऽपि= अतिशयसघनवनप्रभृतिस्थानेभ्योऽपि । गुप्तान् चोरादीन् । निरविध्यद्=निःसारयति । तथा प्रजाहितार्थम् । पक्वमोदनम् । आधारयत्=सदा बिभर्ति । स हि प्रशंसनीयो भवति ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
जो (इन्द्रः) महाराज (स्वाततम्) अतिविस्तृत (बुन्दम्) बाण आदि आयुधों को हाथ में लेकर (गिरिभ्यः) अतिशय सघन पर्वतों, वनों और ईदृग् अन्यान्य स्थानों से छिपे हुए चोर-डाकू आदि दुष्टों को (निरविध्यत्) निकाल बाहर करता रहता है और प्रजा के लिये (पक्वम्+ओदनम्) पके भात रोटी आदि भोज्य पदार्थ सदा (आधारयत्) प्रस्तुत रहते हैं, वे ही प्रजाओं में विख्यात होते हैं ॥६ ॥
भावार्थ
गिरि=यह शब्द उपलक्षक है । बहुत से दुष्ट पर्वतादि अगम्य स्थान में जा छिपते हैं, वहाँ भी उन्हें न रहने देवें और जब-जब प्रजाओं में अन्न की विकलता होवे, तब-तब राजा उसका पूरा प्रबन्ध करे ॥६ ॥
विषय
मेघ छेदन-भेदन वत् शत्रु पर भेद नीति का कार्य।
भावार्थ
( इन्द्रः ) सूर्य वा विद्युत् जिस प्रकार ( गिरिभ्यः ) मेघों से ( निर् अविध्यत् ) जल गिराने को उन्हें खूब ताड़ित करता है, और ( ओदनं ) अन्न, धान्य को ( पक्वम् ) परिपक्व रूप में ( आ धारयत्) परिपुष्ट करता है और अपने ( सु-आततम् ) खूब विस्तृत ( बुन्दं ) चमकते प्रकाश को भी फेंकता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता राजा, (गिरिभ्यः ) मेघवत् अन्यों का माल निगल जाने वाले दुष्ट पुरुषों को सुधारने और उन से सत्य निकलवाने या हड़पा हुआ माल निकलवाने के लिये ( निर् अविध्यत् ) उन को खूब ताड़ना दे और उनसे ( पक्वम् ) पक्व ( ओदनम् ) वचन, शपथ, ( oath ) (आधारयत् ) धारा या पक्की जुबान के रूप में कानूनवत् करा लेवे कि फिर वे ऐसा न करेंगे। और वह ( सु आततम् ) खूब विस्तृत ( बुन्दं ) भयकारी, उन को भेदने फोड़ने वाला, अपना सैन्य बल भी ( आ धारयत् ) सर्वत्र स्थापित करले।
टिप्पणी
‘बुन्दं’—बुन्दो वा भिन्दो वा भयदो वा भासमानो द्रवतीति वा निरु० ६। ३४॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
* कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
विषय
पक्वम् ओदनम्
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (सु आततम्) = अत्यन्त विस्तृत (बुन्दम्) = ज्ञानरूप बाण को [भासमानो द्रवतीति वा नि०] (आ-धारयत्) = समन्तात् धारण करता है। इस ज्ञानरूप बाण से वह (निराविध्यत्) = वासनारूप शत्रुओं को सुदूर बाहर विद्ध करनेवाला होता है। वासनाओं को विद्ध करके बाहर निकाल देता है। [२] यह इन्द्र (गिरिभ्यः) = ज्ञानोपदेष्टा गुरुओं से (पक्वं ओदनम्) = पूर्ण परिपक्व ज्ञान के भोजन को प्राप्त करता है। इस ओदन को पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करनेवाला यह जीव 'पञ्चौदन' कहा गया है।
भावार्थ
भावार्थ- एक जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञानरूप बाण से वासनारूप शत्रु को मारकर पञ्चौदन बनता है ।
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