ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 11
यस्य॑ ते॒ नू चि॑दा॒दिशं॒ न मि॒नन्ति॑ स्व॒राज्य॑म् । न दे॒वो नाध्रि॑गु॒र्जन॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । नु । चि॒त् । आ॒ऽदिश॑म् । न । मि॒नन्ति॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् । न । दे॒वः । न । अध्रि॑ऽगुः । जनः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते नू चिदादिशं न मिनन्ति स्वराज्यम् । न देवो नाध्रिगुर्जन: ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । नु । चित् । आऽदिशम् । न । मिनन्ति । स्वऽराज्यम् । न । देवः । न । अध्रिऽगुः । जनः ॥ ८.९३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
No power can violate your sphere of self-rule and sovereignty nor what you ordain, neither human nor super human howsoever irresistible it be.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाचे मन, त्याची मननशक्ती इतकी प्रबळ आहे, की मानवी जीवनात त्याच्या शासनाचा कोणी प्रतिद्वंद्वी नाही. मानवी जीवनात ते सर्वेसर्वा आहे. जरी माणूस दिव्य गुणी, इन्द्रियजयी, विद्वान असेल किंवा अधीर प्रकृतीचा असेल तरीही मनाला समर्थ बनविणे आवश्यक आहे. ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे मेरे मन! (यस्य) जिस तेरे (आदिशम्) आदेश को तथा (स्वराज्यम्) प्रतिद्वन्द्वितारहित अपनी निजी व्यवस्था को (न मिनन्ति) कोई भी ध्वस्त नहीं करता; (न देवः) न तो कोई इन्द्रियवशी विद्वान् ही और (न) न ही (अध्रिगुः) अधीरता से कार्य करने वाला (जनः) व्यक्ति ही॥११॥
भावार्थ
मानव मन की मननशक्ति इतनी प्रचण्ड है कि मानव-जीवन में उसके शासन का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं; मानव जीवन में वही सर्वेसर्वा है; भले ही व्यक्ति दिव्यगुणी इन्द्रियजयी विद्वान् ही हो या अधीर प्रकृति का मनुष्य। अतएव मन को समर्थ बनाना चाहिये॥११॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा सेवनीय ! हे विद्वन् ! तू ( गृणानः ) स्तुति किया जाता हुआ, वा हमें उपदेश करता हुआ हे विद्वन् ! ( नः ) हमारे लिये ( दुर्गे ) दुर्गम स्थान में भी ( सुगं कृधि ) सुगम मार्ग कर। हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं च नः वशः ) और तू सदा हमें प्रेम से चाह और हमें अपने वश में रख। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
प्रभु के आदेश का पालन व स्वराज्य
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (यस्य ते) = जिन आपके (आदिशम्) = आदेश को, आज्ञा को (नु चित्) = निश्चय से (न मिनन्ति) = कोई भी हिंसित नहीं कर पाते। वस्तुतः आपकी आज्ञा को हिंसित न करते हुए वे (स्वराज्यम्) = आत्मशासन को नष्ट नहीं करते। [२] (न देवः) = न तो देव (न) = नहीं (आध्रिगुः जनः) = अधृत गमन मनुष्य विषय-वासनाओं से जिनकी गति रोकी नहीं जाती वे मनुष्य, आपके शासन को तोड़ते हैं। ये देव व अध्रिगुजन सदा स्वराज्य का उपभोग करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम देव व विषयों से न रोकी हुई गतिवाले बनकर प्रभु के शासन में चलें, तथा सदा स्वराज्य का उपभोग करें। विषयों व किन्हीं दूसरों के पराधीन न हो जायें।
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