ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 30
त्वामिद्वृ॑त्रहन्तम सु॒ताव॑न्तो हवामहे । यदि॑न्द्र मृ॒ळया॑सि नः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । इत् । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ । सु॒तऽव॑न्तः । ह॒वा॒म॒हे॒ । यत् । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळया॑सि । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिद्वृत्रहन्तम सुतावन्तो हवामहे । यदिन्द्र मृळयासि नः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । इत् । वृत्रहन्ऽतम । सुतऽवन्तः । हवामहे । यत् । इन्द्र । मृळयासि । नः ॥ ८.९३.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 30
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Blest with the beauty, grace and excellence of life, we invoke and celebrate you only, greatest destroyer of the darkness, evil and suffering of life since you are the highest power kind and gracious to us.
मराठी (1)
भावार्थ
जगातील विविध पदार्थ प्रदान करून सुखी ठेवण्याचे सामर्थ्य परमेश्वराचेच आहे. त्यासाठी तो एकमेव प्रार्थनीय आहे. ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वृत्रहन्तम) जीवनयज्ञ में आनेवाले विघ्न आदि दूर करने में (इन्द्र) अति समर्थ प्रभु! (यत्) क्योंकि (नः) आप हमें (मृडयासि) सुख देते हैं अतएव (सुतावन्तः) ऐश्वर्य सम्पन्न हुए हमारे द्वारा (त्वाम् इत्) आपका ही (हवामहे) आह्वान करते हैं॥३०॥
भावार्थ
संसार के नाना पदार्थों को प्रदान कर सुखी रखने की शक्ति परमेश्वर में ही है इसलिए वही वन्दनीय है॥३०॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( यत् ) जो तू हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ( नः मृडयासि ) हमें सुखी करता है, हे ( वृत्रहन्तम ) दुष्ट पुरुषों को अच्छी प्रकार दण्ड देने हारे ! ( सुतावन्तः ) ऐश्वर्यवान् हम लोग। ( त्वाम् इत् हवामहे ) तुझे ही रक्षार्थ प्रार्थना करते हैं। इति षड्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
वृत्रहन्तम
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्तम) = वासनाओं को अधिक से अधिक विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (सुतावन्तः) = सोम का सम्यक् सवन करनेवाले, सोम को शरीर में सुरक्षित करनेवाले, हम (त्वां इत्) = आपको ही (हवामहे) = पुकारते हैं। आपकी आराधना ही वासना विनाश के द्वारा हमें सोम के रक्षण के योग्य बनायेगी। [२] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (यत्) = क्योंकि (नः) = हमें (मृडयासि) = आप ही सुखी करते हैं। आपकी आराधना करते हुए हम पवित्र व शान्त जीवनवाले बनते हैं। वासनारूप शत्रुओं का विनाश करती है और हमें सोमरक्षण
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की आराधना हमारे द्वारा सुखी करती है।
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