ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 3
स न॒ इन्द्र॑: शि॒वः सखाश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत् । उ॒रुधा॑रेव दोहते ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । इन्द्रः॑ । शि॒वः । सखा॑ । अश्व॑ऽवत् । गोऽम॑त् । यव॑ऽमत् । उ॒रुधा॑राऽइव । दो॒ह॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स न इन्द्र: शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत् । उरुधारेव दोहते ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । इन्द्रः । शिवः । सखा । अश्वऽवत् । गोऽमत् । यवऽमत् । उरुधाराऽइव । दोहते ॥ ८.९३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
That same Indra who is blissful, a gracious friend and companion, commands the wealth of cows and horses, nourishment and achievement, knowledge and enlightenment and distils for us power, honour and excellence from nature such as the torrential showers of rain.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा साधक आपल्या मननशक्तीने दुर्भावना, रोग इत्यादी विघ्नांना दूर करतो तेव्हा त्याची ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये निर्विघ्न होऊन समृद्धीचे अर्जन करतात. ॥२,३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जिस इन्द्र अर्थात् मानव की प्रज्ञा ने (बाह्वोजसा) अपने दूर-दूर तक प्रभावशाली ओज से (नव नवतिम्) ९x९०=८१० अर्थात् अनेक (पुरः) शत्रुभावनाओं की बस्तियों को विभेद छिन्न-भिन्न किया और उस (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य के तुल्य (अहिम्) सर्प-जैसी दुष्टभावनाओं तथा रोगादि का (अवधीत्) उन्मूलन किया (सः) वह (नः) हमारी (शिवः) कल्याणकारिणी, (सखा) मित्र (इन्द्रः) प्रजा (अश्वावत्) कर्मबलयुक्त (गोमत्) ज्ञानबलयुक्त (यवमत्) और दोनों के मिश्रणभूत फल को (उरुधारेव) बड़ी विशालधाराओं में ही (दोहते) दूध के तुल्य प्रदान करती है॥२, ३॥
भावार्थ
साधक जब अपनी मननशक्ति द्वारा दुर्भावना, रोग आदि विघ्नों को दूर कर दे तो उसकी कर्मेन्द्रियाँ एवं ज्ञानेन्द्रियाँ निर्विघ्न हो समृद्धि अर्जित करती हैं॥२,३॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( सः ) वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् ( शिवः ) कल्याणकारक, सब में व्यापक, सब सुखों का दाता, ( सखा ) सब का मित्रवत् प्रिय ( अश्वावत् गोमत्, यवमत् ) अश्व, गौ, और यव से सम्पन्न ( उरु-धारा इव ) बहतों की पोषक भूमि, वा बहुत धारा वाली गौ के समान, वा बड़ी विशाल वेद वाणी के समान ( दोहते ) हमें सुख ज्ञानादि प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
अश्वावत् गोमत् यवमत्
पदार्थ
[१] (सः) = वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारा (शिवः सखा) = कल्याणकारी मित्र है। [२] ये प्रभु हमारे लिये (अश्वावत्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाले, (गोमत्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाले व (यवमत्) = बुराइयों को पृथक् करके अच्छाइयों को प्राप्त करानेवाले ऐश्वर्य का इस प्रकार (दोहते) = प्रपूरण करते हैं, (इव) = जैसे (उरुधारा) = विशाल दुग्ध की धाराओंवाली गौ वत्स के लिये दूध का दोहन करती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे शिव मित्र हैं। वे हमारे लिये उस ऐश्वर्य को देते हैं, जो हमारी इन्द्रियों को उत्तम बनाता है और हमें सब बुराइयों से पृथक् करके अच्छाइयों से मिलाता है ।
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