ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
हि॒न्वा॒नासो॒ रथा॑ इव दधन्वि॒रे गभ॑स्त्योः । भरा॑सः का॒रिणा॑मिव ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒न्वा॒नासः॑ । रथाः॑ऽइव । द॒ध॒न्वि॒रे । गभ॑स्त्योः । भरा॑सः । का॒रिणा॑म्ऽइव ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिन्वानासो रथा इव दधन्विरे गभस्त्योः । भरासः कारिणामिव ॥
स्वर रहित पद पाठहिन्वानासः । रथाःऽइव । दधन्विरे । गभस्त्योः । भरासः । कारिणाम्ऽइव ॥ ९.१०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
सः (रथाः, इव) विद्युदिव (गभस्त्योः, दधन्विरे) स्वचमत्कृतरश्मीनां धारकः (हिन्वानासः) सततगतिशीलोऽस्ति तथा च (कारिणाम्, इव) कर्मयोगिन इव (भरासः) शश्वत्सत्कर्मभारं वोढुमुद्यतोऽस्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(रथाः, इव) विद्युत् के समान ((गभस्त्योः, दधन्विरे) अपनी चमत्कृत रशिमयों को धारण किये हुये है। (हिन्वानासः) सदैव गतिशील है और (कारिणाम्, इव) कर्मयोगियों के समान सदैव सत्कर्म के (भरासः) भार उठाने को समर्थ है ॥२॥
भावार्थ
जिस प्रकार कर्मयोगी सत्कर्म को करने में सदैव तत्पर रहता है, इसी प्रकार संसार की उत्पत्ति स्थिति प्रलयादि कर्मों में परमात्मा सदैव तत्पर रहता है अर्थात् उक्त कर्म उस में स्वतःसिद्ध और अनायास से होते हैं, इसी अभिप्राय से ब्राह्मणग्रन्थों में उसे “सर्वकर्मा सर्वगन्धः सर्वरसः” ऐसा प्रतिपादन किया है कि सर्व प्रकार के कर्म और सब प्रकार के गन्ध तथा रस उसी से अपनी-२ सत्ता का लाभ करते हैं। इस प्रकार परमात्मा सदैव गतिशील है, इसी अभिप्राय से गतिकर्मा रंहति धातु से निष्पन्न रथ की उपमा दी है। जो लोग उसको अक्रिय कहकर यह सिद्ध करते हैं कि शुद्ध ब्रह्म में कोई क्रिया नहीं होती, क्रिया करने की शक्ति माया के साथ मिलकर आती है, अन्यथा नहीं, इसलिये ईश्वर जगत् का कारण है, ब्रह्म नहीं, ऐसा कथन करनेवाले वैदिक सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न हैं, क्योंकि वेदों में “भूमिं जनयन् देव एकः” यजुः १७।१९। “सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’” “विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्ता” मुं० १।१।१ इत्यादि वेदोपनिषद् के वाक्यों में शुद्ध ब्रह्म में जगत्कर्तृत्व कदापि न पाया जाता, यदि ईश्वर में क्रिया न होती, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि ईश्वर में क्रिया स्वतःसिद्ध है, इसी अभिप्राय से कहा है कि “स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” ॥२॥
विषय
सोमकणों का भुजाओं में धारण
पदार्थ
[१] (इव) = जैसे (रथाः) = रथ लक्ष्यदेश की ओर जाते हैं, इसी प्रकार शरीरस्थ सोमकण (हिन्वानासः) = प्रभु प्राप्ति की ओर प्रेरित होते हैं। रथ हमें लक्ष्य - स्थान पर ले जाता है । सोमकण भी हमें 'साकाष्ठा, सापरागति:' इन शब्दों में वर्णित प्रभु की ओर ले जाते हैं । [२] (इव) = जैसे (कारिणाम्) = कर्म करनेवालों की भुजाओं पर (भरासः) = भार (दधन्विरे) = धारण किये जाते हैं, इसी प्रकार ये सोम भी (गभस्त्योः) = हमारी भुजाओं में स्थापित किये जाते हैं। ये सोमकण ही भुजाओं को शक्तिशाली बनाते हैं। इनके भुजाओं में स्थापन का यह भी भाव है कि जब मनुष्य सदा क्रियाशील बना रहता है तो वासनाओं से अनाक्रान्त होने के कारण वह इनका रक्षण कर पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमकण ही सुरक्षित होकर भुजाओं को शक्तिसाली बनाते हैं, तथा जीवनयात्रा की सफल पूर्ति का साधन बनते हैं ।
विषय
शिल्पियों के हाथों में रथों के समान श्रमियों के आश्रय शासकों की स्थिति।
भावार्थ
(हिन्वानासः भरासः रथाः इव) आगे बढ़ते हुए और वेग से मनुष्यों को ढोकर ले जाने वाले रथ जिस प्रकार (कारिणाम्) कर्मकुशल पुरुषों के (गभस्त्योः) हाथों में रहते, उनकी बागडोर सदा उनके हाथों में रहती है उसी प्रकार (भरासः) प्रजा के भरण पोषण करने वाले जन भी सदा (कारिणाम्) कर्म करने में समर्थ, श्रमशील, कुशल जनों के (गभस्त्योः) बाहुओं पर उनके बाहुबल पर (दधन्विरे) स्थापित और पोषित होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ६, ८ निचृद् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४ भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Dynamic are the seekers like heroes commanding superfast chariots laden with riches, holding controls in their hands, their shouts of victory rising like poet’s songs of celebration.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे कर्मयोगी सत्कर्म करण्यास सदैव तत्पर असतो. त्याच प्रकारे जगाची उत्पत्ती, स्थिती, प्रलय इत्यादी कर्मात परमात्मा सदैव तत्पर असतो. अर्थात वरील कर्म त्याच्यात स्वत: सिद्ध व अनायास होत असतात. याच अभिप्रायाने ब्राह्मणग्रंथात त्याला ‘‘सर्वकर्मा सर्वगन्ध: सर्वरस:’’ असे प्रतिपादित केलेले आहे की सर्व प्रकारचे कर्म व सर्व प्रकारचे गंध व रस त्याच्याकडूनच आपल्याला प्राप्त होतात.
टिप्पणी
या प्रकारे परमात्मा सदैव गतिशील असतो. त्यामुळे गतिकर्मारहित धातूने निष्पन्न रथाची उपमा दिलेली आहे जे लोक त्याला अक्रिय म्हणतात व हे सिद्ध करतात की शुद्ध ब्रह्मात कोणतीच क्रिया नसते. क्रिया करण्याची शक्ती मायेबरोबर मिळून येते. अन्यथा नाही. त्यासाठी ईश्वर जगाचे कारण आहे ब्रह्म नाही. असे कथन करणारे वैदिक सिद्धांतापासून सर्वस्वी भिन्न आहेत. कारण वेदांमध्ये ‘‘भूमिं जनयन देव एक:’’ यजु. १७।१९ ‘‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वेम कल्पयत विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्ता’’ मुं. १।१।१ इत्यादी वेदोपनिषद वाक्यात शुद्ध ब्रह्मात जगत्कर्तृत्व कधीही आढळले नसते, जर ईश्वरात क्रिया नसती. यावरून स्पष्ट सिद्ध होते की ईश्वरात क्रिया स्वत: सिद्ध असते. यामुळे असे म्हटलेले आहे की ‘‘स्वाभाविकी ज्ञानबल क्रियाच’’ ॥२॥
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