ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
नाभा॒ नाभिं॑ न॒ आ द॑दे॒ चक्षु॑श्चि॒त्सूर्ये॒ सचा॑ । क॒वेरप॑त्य॒मा दु॑हे ॥
स्वर सहित पद पाठनाभा॑ । नाभि॑म् । नः॒ । आ । द॒दे॒ । चक्षुः॑ । चि॒त् । सूर्ये॑ । सचा॑ । क॒वेः । अप॑त्यम् । आ । दु॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नाभा नाभिं न आ ददे चक्षुश्चित्सूर्ये सचा । कवेरपत्यमा दुहे ॥
स्वर रहित पद पाठनाभा । नाभिम् । नः । आ । ददे । चक्षुः । चित् । सूर्ये । सचा । कवेः । अपत्यम् । आ । दुहे ॥ ९.१०.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कवेः) तस्य सर्वज्ञस्य परमात्मनः (अपत्यम्) ऐश्वर्यं (आ, दुहे) प्राप्नुयामहम्, तथा च (नाभिम्) तं चराचरजगतो नियन्तारं (नाभा, नः) स्वहृदये (आददे) ध्यानद्वारा वासयानि यः (सूर्ये, चित्) सूर्येऽपि (चक्षुः, सचा) चक्षूरूपेण सङ्गतोऽस्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कवेः) उस सर्वज्ञ क्रान्तकर्मा परमात्मा के (अपत्यम्) ऐश्वर्य को (आ, दुहे) मैं प्राप्त करूँ और (नाभिम्) “नह्यति बध्नाति चराचरं जगदिति नाभिः” जो चराचर जगत् को नियम में रखता है, उसको (नाभा, नः) अपने हृदय में (आददे) ध्यानरूप से स्थित करूँ जो (सूर्ये, चित्) सूर्य में भी (चक्षुः, सचा) चक्षुरूप से सङ्गत है ॥८॥
भावार्थ
उक्त कामधेनुरूप परमात्मा के ऐश्वर्य को वे लोग ढूढ़ सकते हैं, जो लोग उस परमात्मा को अपने हृदयरूपी कमल में साक्षीरूप से स्थिर समझ कर सत्कर्मी बनते हैं और वह परमात्मा अपनी प्रकाशरूप शक्ति से सूर्य का भी प्रकाशक है। इस मन्त्र में परमात्मा इस भाव का बोधन करते हैं कि जिज्ञासु पुरुषों ! तुम उस प्रकाश से अपने हृदय को प्रकाशित करके संसार के पदार्थों को देखो, जो सर्वप्रकाशक है और जिससे यह भूतवर्ग अपनी उत्पत्ति और स्थिति का लाभ करता है, जैसा कि ‘नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षम्’ “चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत” यजुः १।१२ इत्यादि मन्त्रों में वर्णन किया है कि उसी के नाभिरूप सामर्थ्य से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ और उसी के चक्षुरूप सामर्थ्य से सूर्य उत्पन्न हुआ। चक्षु के अर्थ यहाँ ‘चष्टे पश्यत्यनेनेति चक्षुः’ अर्थात् अपने सात्त्विक सामर्थ्य से सूर्य को उत्पन्न किया, जैसा कि अन्यत्र भी कहा है कि “सत्वात्संजायते ज्ञानम्”। बहुत क्या, “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्म” अर्थात् उसी से यह सब संसारवर्ग आविर्भाव को प्राप्त होता है और उससे लाभ करके स्थिर रहता है और अन्त में परमाणुरूप हो कर उसी में लय हो जाता है। उसी के जानने की इच्छा करनी चाहिये, वही सर्वोपरि ब्रह्म है। “बृंहते वर्धत इति ब्रह्म” जो सदैव वृद्धि को प्राप्त है अर्थात् जिससे कोई बड़ा नहीं, उसका नाम यहाँ ब्रह्म है ॥८॥
विषय
कवि के अपत्य का दोहन
पदार्थ
[१] (नः) = हमारे नाभौ 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः' यज्ञ में (नाभिम्) = शरीर-रथ के केन्द्रभूत सोम को (आददे) = ग्रहण करता हूँ । यज्ञों में प्रवृत्त रहकर मैं सोम का रक्षण करता हूँ । उस समय (चक्षुः) = आँख (चित्) = निश्चय से (सूर्ये) = सूर्य में (सचा) = संगत होती है । अर्थात् यज्ञों में लगे रहना सोमरक्षण का साधन बनता है। सुरक्षित सोम दृष्टि शक्ति की वृद्धि का कारण बनता है। [२] इस सोमरक्षण से जहाँ दृष्टि शक्ति बढ़ती है, वहाँ मैं (कवेः) = उस क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ प्रभु के (अपत्यम्) = अपतन के हेतुभूत ज्ञान को (आदुहे) = अपने में पूरित करता हूँ । सोमरक्षण से ही बुद्धि तीव्र होती है और वेदधेनु के दोहन करनेवाली बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञों में लगे रहने से सोम का रक्षण होता है। उस समय दृष्टि शक्ति भी तीव्र बनती है और उस सर्वज्ञ परमात्मा के वेदज्ञान को हमारी बुद्धि प्राप्त करती है ।
विषय
नयनों के आश्रय रूप सूर्य के तुल्य अध्यक्ष की स्थिति।
भावार्थ
(सूर्ये सचा चक्षुः चित्) सूर्य के आश्रय, जिस प्रकार चक्षु संगत रहती है उसी प्रकार मैं (नः) अपने लोगों के (नाभा) नाभि या केन्द्र स्थान में (नाभिम्) सब को एकत्र बांध रखने वाले केन्द्र रूप व्यक्ति को (आ ददे) मैं स्वीकार कर लूं। और मैं (कवेः) क्रान्तदर्शी विद्वान् पुरुष के (अपत्यम्) सन्तानवत् शिष्य को (आ दुहे) प्राप्त करूं। जैसे यजुर्वेद में लिखा है ‘ऋषिम् आर्षेयम्०’ इत्यादि।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ६, ८ निचृद् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४ भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
In the core of the heart we hold the yajna and the lord of yajna, our eye fixed on the sun with love and reverence, and thereby we distil the light and peace of existence, reflection of omniscient and creative divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक त्या परमात्म्याला आपल्या हृदयरूपी कमलात साक्षीरूपाने स्थिर समजून सत्कर्मी बनतात ते लोक कामधेनूरूपी परमात्म्याच्या ऐश्वर्याचे दोहन करू शकतात. परमात्मा आपल्या प्रकाशरूपी शक्तीने सूर्याचाही प्रकाशक आहे. या मंत्रात परमात्मा उपदेश करतो की हे जिज्ञासू पुरुषांनो! तुम्ही त्याच्या प्रकाशाने आपल्या हृदयाला प्रकाशित करून जागतील पदार्थ दृश्यरूपात पाहिलेले आहेत. तो सर्व प्रकाशक आहे. त्याच्याद्वारे हा भूतवर्ग आपल्या उत्पत्ती स्थितीचा लाभ घेतो. जसे नाभ्या आसीदन्तरिक्षम् चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्योऽअजायत यजु. १।१२ या मंत्रात म्हटलेले आहे की त्याच्याच नाभीरूप सामर्थ्याने अंतरिक्ष लोक उत्पन्न झाला. त्याच्याच चक्षुरूप सामर्थ्याने सूर्य उत्पन्न झाला. चक्षूचा अर्थ येथे ‘चष्टे पश्यत्य नेनेति चक्षु:’ अर्थात आपल्या सात्त्विक सामर्थ्याने सूर्य उत्पन्न झाला असे अन्यत्रही म्हटलेले आहे. सत्वात्संजायते ज्ञानम एवढेच नव्हे तर यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तदब्रह्म । त्याच्या द्वारेच हा संसार प्रकट होतो व त्याच्या सत्तेनेच स्थिर होतो. तसेच परमाणू बनून त्याच्यातच लय होतो. त्यालाच जाणण्याची इच्छा केली पाहिजे. तोच सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म आहे. बृहते वर्धत- इति ब्रह्म. ज्याची सदैववृद्धी झालेली असते. ज्याच्यापेक्षा कोणीही मोठा नाही त्याचे नाव ब्रह्म आहे. ॥८॥
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