ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 109/ मन्त्र 16
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र सु॑वा॒नो अ॑क्षाः स॒हस्र॑धारस्ति॒रः प॒वित्रं॒ वि वार॒मव्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु॒वा॒नः । अ॒क्षा॒रिति॑ । स॒हस्र॑ऽधारः । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । वि । वार॑म् । अव्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सुवानो अक्षाः सहस्रधारस्तिरः पवित्रं वि वारमव्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सुवानः । अक्षारिति । सहस्रऽधारः । तिरः । पवित्रम् । वि । वारम् । अव्यम् ॥ ९.१०९.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 109; मन्त्र » 16
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सहस्रधारः) अनन्तसामर्थ्ययुक्तः परमात्मा (सुवानः) साक्षात्कृतः (विवारम्, अव्यं, तिरः) आवरणं तिरस्कृत्य (पवित्रम्) पूतान्तःकरणं (प्र, अक्षाः) स्वज्ञानप्रवाहेण सिञ्चति ॥१६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सहस्रधारः) अनन्तसामर्थ्ययुक्त परमात्मा (सुवानः) साक्षात्कार किया हुआ (विवारं, अव्यं, तिरः) आवरण को तिरस्कार करके (पवित्रं) पवित्र अन्तःकरण को (अक्षाः) अपने ज्ञान के प्रवाह से सिञ्चन करता है ॥१६॥
भावार्थ
जब तक मनुष्य में अज्ञान बना रहता है तब तक वह परमात्मा का साक्षात्कार कदापि नहीं कर सकता, इसलिये जिज्ञासु को आवश्यक है कि वह परमात्मा के स्वरूप को ढकनेवाले अज्ञान का नाश करके परमात्मदर्शन करे। अज्ञान, अविद्या तथा आवरण ये सब पर्य्याय शब्द हैं ॥१६॥
विषय
पवित्र, वार, अव्य
पदार्थ
(सुवानः) = शरीर में प्रेरित किया जाता हुआ यह सोम (सहस्त्रधारः) = हजारों प्रकार से धारण करनेवाला है । यह सोम (पवित्रम्) = पवित्र हृदय वाले पुरुष को, (वारम्) = वासनाओं के निवारण करनेवाले को (अव्यम्) = रक्षकों मैं उत्तम को (तिरः) = रुधिर में तिरोहित रूप से (प्र वि अक्षा:) = प्रकर्षेण विशेष रूप से प्राप्त होता है । रुधिर में व्याप्त हुआ हुआ यह सोम सम्पूर्ण शरीर को बल प्राप्त कराता है । और अंग-प्रत्यंग का उत्तमता से धारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम पवित्र हृदय वाले, वासनाओं का वारण करनेवाले, रक्षकों में उत्तम पुरुष को प्राप्त होता है। यह रुधिर में तिरोहित रूप से रहता हुआ शरीर को हजारों प्रकार से धारण करता है ।
विषय
उसका साक्षात्।
भावार्थ
वह (सुवानः) उत्तम रीति से उपासना और प्रार्थना किया गया, (सहस्र-धारः) सहस्रों धारक शक्तियों से सम्पन्न अनेक वेद-वाणियों का आश्रय वा सहस्र अर्थात् समस्त जगत् को धारण करने वाला (पवित्रम्) व्यापक, परम पवित्र, (अव्यम्) अविनाशी, सर्वरक्षक (वारम्) सर्वश्रेष्ठ रूप वा सामर्थ्य को (प्र अक्षाः) प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, १०, १३, १४, १५, १७, १८ आर्ची भुरिग्गायत्री। २–६, ९, ११, १२, १९, २२ आर्ची स्वराड् गायत्री। २०, २१ आर्ची गायत्री। १६ पादनिचृद् गायत्री॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The Soma spirit of divinity realised and exalted by the celebrant, streaming in a thousand showers, reaches and sanctifies the pure, protected and sanctified heart of its cherished devotee.
मराठी (1)
भावार्थ
जोपर्यंत माणसात अज्ञान असते तोपर्यंत तो परमेश्वराचा साक्षात्कार कधीही करू शकत नाही. त्यासाठी जिज्ञासूने परमेश्वराचे स्वरूप झाकणाऱ्या अज्ञानाचा नाश करून परमेश्वराचे दर्शन करावे. अज्ञान, अविद्या व आवरण हे पर्यायी शब्द आहेत. ॥१६॥
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