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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - आप्रियः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    विश्वे॑ देवा॒: स्वाहा॑कृतिं॒ पव॑मान॒स्या ग॑त । वा॒युर्बृह॒स्पति॒: सूर्यो॒ऽग्निरिन्द्र॑: स॒जोष॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । देवाः॑ । स्वाहा॑ऽकृतिम् । पव॑मानस्य । आ । ग॒त॒ । वा॒युः । बृह॒स्पतिः॑ । सूर्यः॑ । अ॒ग्निः । इन्द्रः॑ स॒जोष॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवा: स्वाहाकृतिं पवमानस्या गत । वायुर्बृहस्पति: सूर्योऽग्निरिन्द्र: सजोषसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे । देवाः । स्वाहाऽकृतिम् । पवमानस्य । आ । गत । वायुः । बृहस्पतिः । सूर्यः । अग्निः । इन्द्रः सजोषसः ॥ ९.५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवमानस्य) सर्वपूज्यपरमात्मनः (स्वाहाकृतिम्) सुवाचं (वायुः) सर्वविधविद्याज्ञः (बृहस्पतिः) सुवक्ता (सूर्यः) दार्शनिकतत्त्वप्रकाशकः (अग्निः) प्रतिभाशाली (इन्द्रः) विद्यात्मकैश्वर्यवान् (विश्वे, देवाः) इमे सर्वे विद्वांसः (सजोषसः) मिथः सखायः (आगत) अस्मिन् ज्ञानयज्ञे आगच्छन्तु ॥११॥ इति पञ्चमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवमानस्य) सर्वपूज्य परमात्मा की (स्वाहाकृतिम्) सुन्दरवाणी को (वायुः) सर्व विद्याओं में गतिवाला (बृहस्पतिः) सुन्दर वक्ता (सूर्यः) दार्शनिक तत्त्वों का प्रकाशक (अग्निः) प्रतिभाशाली (इन्द्रः) विद्यारूपी ऐश्वर्य्यवाला (विश्वे देवाः) ये सब विद्वान् (सजोषसः) परस्पर प्रेमभाव रखनेवाले (आगत) इस ज्ञानरूपी यज्ञ में आकर उपस्थित हों ॥११॥

    भावार्थ

    इस सूक्त के उपसंहार में विद्वानों की सङ्गति कथन की है कि उक्तगुणसम्पन्न विद्वान् लोग ज्ञानयज्ञ में आकर विविध प्रकार के ज्ञानों को उपलब्ध करें। तात्पर्य यह है कि इस मन्त्र में ज्ञानयज्ञ का सर्वोपरि वर्णन किया है। वस्तुतः ज्ञानयज्ञ सर्वोपरि है। इसी अभिप्राय से गीता में कहा है कि “श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप” ! हे शत्रुतापक अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है ॥११॥ ५वाँ सूक्त और २५वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सर्वदेवाधिष्ठानता

    पदार्थ

    [१] (विश्वेदेवाः) = सब देव (पवमानस्य) = इस पवित्र करनेवाले सोम की (स्वाहाकृतिम्) = शरीरयज्ञ में आहुति देने पर (आगत) = आयें। जिस समय सोम की शरीर में ही आहुति दी जाये, अर्थात् सोम का शरीर में ही रक्षण हो उस समय यह शरीर सब देवों का अधिष्ठान बने। [२] (वायुः) = यहाँ वायु का आगमन हो । वायु की तरह हम निरन्तर क्रियाशील बनें। (बृहस्पतिः) = ज्ञानियों के भी ज्ञानी का यहाँ आगमन हो। हम ऊँचे ज्ञानवाले बनें। (सूर्य:)=- सूर्य की तरह प्रकाश को फैलानेवाले हम हों । (अग्नि:) = अग्नि की तरह सब रोगों व वासनाओं को दग्ध करें । (इन्द्रः) = 'सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य' इन्द्र की तरह शक्तिशाली (सजोषसः) = कार्यों के करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम के रक्षण से हमारा शरीर सब देवों का अधिष्ठान बनता है। अगले सूक्त में भी प्रस्तुत सूक्त की तरह 'असित देवल काश्यप' प्रार्थना करता है कि-

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    विषय

    तेजस्वी जनों की अभिषिक्त राजा से मान प्राप्ति ।

    भावार्थ

    (वायुः) वायुवत् बलशाली, (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पालक, (सूर्यः) सूर्यवत् तेजस्वी, सर्वप्रकाशक, (अग्निः) अग्रणी नायक (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् वर्ग (विश्वे देवाः) सब विद्वान् वीर (सजोषसः) परस्पर समान प्रीतियुक्त होकर (पवमानस्य) उक्त अभिषेक योग्य, प्रजा को पावनकारक राजा के (स्वाहा-कृतिम्) उत्तम वाणी धन आदि दान एवं मान को (आ गत) प्राप्त हों। इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः। आप्रियो देवता ॥ छन्द:-- १, २, ४-६ गायत्री। ३, ७ निचृद गायत्री। ८ निचृदनुष्टुप्। ९, १० अनुष्टुप्। ११ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May all divinities of the world come and join this holy song of homage in honour of the lord of piety, purity and beatitude. Let the vibrant pioneer, eminent scholar, brilliant giver of enlightenment, enlightened leader, mighty ruler, all dear and united in love and faith, come and join and celebrate in peace and joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या सूक्ताच्या उपसंहारात विद्वानांच्या संगतीचे कथन केलेले आहे की वरील गुणसंपन्न विद्वान लोकांनी ज्ञान यज्ञात विविध प्रकारचे ज्ञान उपलब्ध करावे. तात्पर्य हे आहे की या मंत्रात ज्ञानयज्ञाचे सर्वोपरि वर्णन केलेले आहे वास्तविक ज्ञानयज्ञ सर्वोत्कृष्ट आहे. याच अभिप्रायाने गीतेत म्हटले आहे की ‘‘श्रेयान् द्रव्यभयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप!’’ हे शत्रुतापक अर्जुन! द्रव्ययज्ञापेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ आहे. ॥११॥

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