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यजुर्वेद अध्याय - 10

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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 19
    ऋषिः - देवावात ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - विराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    2

    प्र पर्व॑तस्य वृष॒भस्य॑ पृ॒ष्ठान्नाव॑श्चरन्ति स्व॒सिच॑ऽइया॒नाः। ताऽआव॑वृत्रन्नध॒रागुद॑क्ता॒ऽअहिं॑ बु॒ध्न्यमनु॒ रीय॑माणाः। विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णमसि॒ विष्णो॒र्विक्रा॑न्तमसि॒ विष्णोः॑ क्रा॒न्तम॑सि॒॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। पर्व॑तस्य। वृ॒ष॒भस्य॑। पृ॒ष्ठात्। नावः॑। च॒र॒न्ति॒। स्व॒सिच॒ इति॑ स्व॒ऽसिचः॑। इया॒नाः। ताः। आ। अ॒व॒वृ॒त्र॒न्। अ॒ध॒राक्। उद॑क्ता॒ इत्युत्ऽअ॑क्ताः। अहि॑म्। बु॒ध्न्य᳖म्। अनु॑। रीय॑माणाः। विष्णोः॑। वि॒क्रम॑ण॒मिति॑ वि॒ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। विक्रा॑न्त॒मिति॒ विऽक्रा॑न्तम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। क्रा॒न्तम्। अ॒सि॒ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिचऽइयानाः । ताऽआववृत्रन्नधरागुदक्ता अहिम्बुध्न्यमनु रीयमाणाः । विष्णोर्विकर्मणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। पर्वतस्य। वृषभस्य। पृष्ठात्। नावः। चरन्ति। स्वसिच इति स्वऽसिचः। इयानाः। ताः। आ। अववृत्रन्। अधराक्। उदक्ता इत्युत्ऽअक्ताः। अहिम्। बुध्न्यम्। अनु। रीयमाणाः। विष्णोः। विक्रमणमिति विऽक्रमणम्। असि। विष्णोः। विक्रान्तमिति विऽक्रान्तम्। असि। विष्णोः। क्रान्तम्। असि॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरत्र राजप्रजाजनैः कीदृशानि यानानि रचनीयानीत्याह॥

    अन्वयः

    हे राजशिल्पिन्! यदि त्वया याः स्वसिच इयाना उदक्ता अहिं बुध्न्यमनुरीयमाणा नावो वृषभस्य प्रपर्वतस्य पृष्ठात् प्रचरन्ति याभिस्त्वं विष्णोर्विक्रान्तमसि, विष्णोर्विक्रमणमसि, विष्णोः क्रान्तमसि, या अधरागाववृत्रंस्तास्त्वं साध्नुहि॥१९॥

    पदार्थः

    (प्र) (पर्वतस्य) मेघस्य। पर्वत इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰१.१०) (वृषभस्य) वर्षकस्य (पृष्ठात्) उपरिभागात् (नावः) सागरोपरि नाव इव विमानानि (चरन्ति) (स्वसिचः) याः स्वैर्जनैर्जलेन सिच्यन्ते ताः (इयानाः) गन्त्र्यः (ताः) (आ) (अववृत्रन्) अर्वाचीनो वृत्र इवाचरन्, अत्राचारे सुबन्तात् क्विप् (अधराक्) मेघादधस्तात् (उदक्ताः) पुनरूर्ध्वं गच्छन्त्यः (अहिम्) मेघम् (बुध्न्यम्) बुध्नेऽन्तरिक्षे भवम् (अनु) पश्चात् (रीयमाणाः) चालनेन गच्छन्त्यः (विष्णोः) व्यापकस्येश्वरस्य (विक्रमणम्) विक्रमतेऽस्मिंस्तत् (असि) (विष्णोः) व्यापकस्य वायोः (विक्रान्तम्) विविधतया क्रान्तम् (असि) (विष्णोः) व्यापकस्य विद्युद्वस्तुनः (क्रान्तम्) क्रमाधिकरणम् (असि)॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५.४.२.५.६) व्याख्यातः॥१९॥

    भावार्थः

    यथा मेघो वर्षित्वा भूमितलं प्राप्याकाशमाप्नोति, तज्जलं नदीर्गत्वाऽन्ततः समुद्रं प्राप्नोति, तत्पृष्ठे नावो गच्छन्ति। या अप्स्वन्तरर्थाद् यासामुपर्यधो जलं भवति, तद्वत् सर्वैः शिल्पिभिर्विमानानि नावश्च यानानि रचयित्वा भूमिजलाऽन्तरिक्षमार्गेणाभीष्टे देशे गमनागमने यथेष्टे कार्य्ये। यावदेतानि न साध्नुवन्ति, तावद् द्वीपद्वीपान्तरं गन्तुं कश्चिदपि न शक्नोति, यथा पक्षिण इदं शरीरमयं संघातं गमयन्ति, तथैव विचक्षणैः शिल्पिभिरेतदाकाशं यानैर्विक्रमणीयम्॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर इस जगत् में राजा और प्रजाजनों को किस प्रकार के यान बनाने चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजा के कारीगर पुरुष! जो तू (स्वसिचः) जिनको अपने लोग जल से सींचते हैं, (इयानाः) चलते हुए (उदक्ताः) फिर-फिर ऊपर को जावें (अहिम्, बुध्न्यम्) अन्तरिक्ष में रहने वाले मेघ के (अनुरीयमाणाः) पीछे-पीछे चलाने से चलते हुए (नावः) समुद्र के ऊपर नौकाओं के समान चलते हुए विमान (वृषभस्य) वर्षा करनेहारे (पर्वतस्य) मेघ के (पृष्ठात्) ऊपर के भाग से (प्रचरन्ति) चलते हैं, जिनसे तू (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के इस जगत् में (विक्रमणम्) पराक्रम सहित (असि) है, (विष्णोः) व्यापक वायु के बीच (विक्रान्तम्) अनेक प्रकार चलने हारा (असि) है और (विष्णोः) व्यापक बिजुली के बीच (क्रान्तम्) चलने का आधार (असि) है, जो (अधराक्) मेघ से नीचे (आववृत्रन्) मेघ के समान विचरते हैं, उन विमानादि यानों को तू सिद्ध कर॥१९॥

    भावार्थ

    जैसे मेघ वर्ष के भूमि के तले को प्राप्त होके पुनः आकाश को प्राप्त होता है। वह जल नदियों में जाके पीछे समुद्र को प्राप्त होता है। जो जल के भीतर अर्थात् जिनके ऊपर-नीचे जल होता है, वैसे ही सब कारीगर लोगों को चाहिये कि विमानादि यानों और नौकाओं को बना के भूमि जल और आकाश मार्ग से अभीष्ट देशों में यथेष्ट जाना-आना करें। जब तक ऐसे यान नहीं बनाते, तब तक द्वीप-द्वीपान्तरों में कोई भी नहीं जा सकता। जैसे पक्षी अपने शरीररूप संघात को आकाश में उड़ा ले चलते हैं, वैसे चतुर कारीगर लोगों को चाहिये कि इस अपने शरीर आदि को यानों के द्वारा आकाश में फिरावें॥१९॥

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    विषय

    विक्रमण-विक्रान्ता-क्रान्त

    पदार्थ

    १. ( पर्वतस्य ) = पर्वाणि विद्यन्ते यस्य = अमावास्या-पूर्णिमा आदि पर्वों में तथा प्रतिदिन दिन-रात्रि के पर्वरूप प्रातः-सायं के समय जिसका उद्बोधन किया जाता है उस ‘पर्वत’ नामवाली ( वृषभस्य ) = [ वर्षितुः—उ० ] वर्षा करनेवाली अग्नि के ( पृष्ठात् ) = पृष्ठ से उठकर ( नावः ) = [ नूयन्ते स्तूयन्ते ] स्तुति के योग्य ( स्वसिचः ) = धनों का सेचन करनेवाले ( इयानाः ) = गमनशील जल ( प्रचरन्ति ) = आदित्यमण्डल के प्रति प्राप्त होते हैं। मनु के शब्दों में अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते अग्नि में डाली हुई आहुतियाँ सूर्य तक पहुँचती हैं। ‘स्व-सिचः शब्द का अर्थ है ‘धनों का सेचन करनेवाले’। समय पर वर्षा होती है तो कृषकों के मुख से भी यह शब्द निकलता है कि ‘सोना बरस रहा है’। एवं, ये जल धन का सेचन करते हैं। ये मेघजल ( नावः ) = स्तुत्य तो हैं ही, ये ‘अमरवारुणी’ देवताओं की मद्य कहलाते हैं। 

    २. ( ताः उदक्ताः ) = ऊपर [ उत् ] आदित्यमण्डल तक गये हुए [ अक्ताः ] जल ( बुध्न्यम् ) = [ बुध्न =  अन्तरिक्ष ] अन्तरिक्ष में होनेवाले ( अहिम् ) = मेघ में ( अनुरीयमाणाः ) = क्रमशः गति करते हुए ( आववृत्रन् ) = इस पृथिवी पर लौट आते हैं। 

    ३. इस प्रकार इन जलों की गति आदित्य के आधारभूत द्युलोक में, मेघ के आधारभूत अन्तरिक्षलोक में तथा अग्नि के आधारभूत इस पृथिवीलोक में दिखती है। ये जल शरीर में रेतस्रूप से हैं और स्थूलशरीररूप पृथिवी में ये नीरोगता के कारण होते हैं, मनरूप अन्तरिक्ष में ये नैर्मल्य का कारण बनते हैं और बुद्धि व मस्तिष्करूप द्युलोक में ये उज्ज्वलता का साधन होते हैं। 

    ४. ये रेतस्रूप आपः शरीर में व्याप्त होने पर ‘विष्णु’ कहलाते हैं। यो वै विष्णुः सोमः सः—श० ३।३।४।२। वीर्यं विष्णुः—तै० १।७।२।२। यह ‘विष्णु’ तीनों लोकों का—शरीर, मन व बुद्धि का—विजय करता है। यही इसकी ‘विक्रमण त्रयी’ कही गई है। मन्त्र के ऋषि देववात से कहते हैं कि तू ( विष्णोः ) = इस सोम के ( विक्रमणम् ) = पृथिवीलोकरूप विजयवाला है, ( विष्णोः ) = सोम के ( विक्रान्तम् असि ) = अन्तरिक्षलोकरूप विजयवाला है और अन्ततः ( विष्णोः ) = सोम के ( क्रान्तमसि ) = द्युलोकरूप विजयवाला है। इन सब लोकों का विजय करके तू सब देवताओं को अपनानेवाला होता है— विष्णुः सर्वा दैवताः ऐ०—१।१, अर्थात् मनुष्य रेतस् की रक्षा के द्वारा सब दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह रेतस् की रक्षा द्वारा इन रेतःकणों को शरीर में ही व्याप्त करनेवाला बने और अपने शरीर, मन व बुद्धि को स्वस्थ रखनेवाला हो।

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    विषय

    अभिषेक वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( पर्वतस्य पृष्ठात् ) पर्वत या मेघ के पृष्ठ से ( इयानाः ) निकलनेहारी ( नावः ) जल धाराएं बहती हैं। उसी प्रकार ( वृषभस्य) नरश्रेष्ठ राजा के पीठ पर से भी ( इयाना: ) जाती हुई (स्वसिचः शरीर का सेचन करनेवाली ( नाव: ) जलधाराएं अभिषेक काल में ( चरन्ति ) बहें । ( ताः ) वे ( अधराक् उदक् ) नीचे और ऊपर सर्वत्र ( बुध्न्यम् ) सबके आश्रय में स्थित ( अहम् ) अहन्तव्य,वीर पुरुष को पर्वत की जलधाराएं जिस प्रकार उसके मूल भाग को घेरती हैं उसी प्रकार (रीयमाणाः ) घेरती हुई ( ता: ) वे ( आववृत्रन् ) उसको घेरें या प्राप्त करें | शत० ५ । ४ । २ । ५, ६ ॥ राजा प्रजा पक्ष में - ( नाव : ) स्तुति करनेवाली प्रजाएं (स्वसिचः ) स्व अर्थात् धन से राजा को सेचन वृद्धि करनेवाली (पर्वतस्य) पर्वत के समान एवं ( वृषभस्य ) वृषभ के समान बलवान् अथवा मेघ के समान सब के काम्य सुखों के वर्षक अति दानशील पुरुष के ( पृष्ठात्) पीठ से, उसके आश्रय लेकर ( इयानाः ) सर्वत्र गमन करती हुई ( चरन्ति ) विचरण करती है । ( ताः ) वे समस्त प्रजाएं अपने राजा को ( बुध्न्यम् ) आश्रय- भूत सबके अहन्ता पालक का ( अनु रीयमाणाः ) अनुगमन करती हुई उसको (अधराक् ) नीचे से और ( उदक् ) ऊपर से ( आववृन्नन्) व्याप्त होकर रहती हैं । उसको घेरे रहती हैं । हे पृथिवी तू (विष्णोः क्रमणम् असि ) व्यापक राजशक्ति का विक्रम करने का स्थान है । हे अन्तरिक्ष ! शासकगण ! तू ( विष्णोः ) वायु के समान बलशाली राजा का ( विक्रान्तम् असि ) नाना प्रकार के पराक्रमों का स्थान है । हे स्वः लोक ! राज्यपद ! तु आदित्य के समान ( विष्णोः ) राजा के पराक्रम का ( कान्तम् असि ) स्थान है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देववात ऋषिः । विष्णुर्देवता । विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मेघ भूमीवर बरसतो, ते जल नंतर नद्यांमधून वाहते, समुद्राला मिळते. त्यानन्तर ते पुन्हा आकाशात जाते. वर-खाली सर्व ठिकाणी जल असते. त्यामुळे सर्व कारागिरांनी विमान व नौका बनवाव्यात आणि भूमी, जल व आकाशमार्गे इच्छित देशांमध्ये जाणे-येणे करावे. जोपर्यंत अशी याने तयार होत नाहीत तोपर्यंत द्वीपद्वीपान्तरी कोणीही जाऊ शकत नाही. ज्याप्रमाणे पक्षी आकाशात विहार करतात त्याप्रमाणे चतुर तंत्रज्ञ लोकांनी आकाशात विहार करणारी याने तयार करावीत व त्यातून प्रवास करावा.

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    विषय

    यानंतर पुढील मंत्रात हा विषय सांगितला आहे की या जगात राजा आणि प्रजाजनांनी कोणत्या प्रकारच्या यान वाहन आदींची निर्मिती करावी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (प्रजाजन राज्याच्या एका शिल्पी, कारागीर वैज्ञानिक, यांत्रिकजनास उद्देशून म्हणन आहेत) राजांचे हे शिल्पी, (अभियांत्रिकी कलेचे ज्ञाता व कारागीर) मनुष्या, तुम्ही (स्वसिच:) (असे मान तयार करा की) ज्यांना लोक आपल्या जनाने सिंचित करतात (पाण्याच्या वाफेवर चालणारी वाहनें बनवा) तसेच जे यान (इयाना:) चालत-चालत (उदक्ता:) पुन्हा आकाशात वर जातात. आणि जे (अहिबुध्न्यम्) अंतरिक्षात असणार्‍या मेघाच्या (अनुरीमयाणा:) मागे-मागे जातात तर कधी (नाव:) समुद्रात ज्याप्रमाणे नौका चालतात, त्याप्रमाणे (वृषमस्य) पाऊस करणार्‍या (पर्वतस्य) ढगाच्या (पृष्ठात्) वरच्या भागातून (प्रचरन्ति) जातात (वा उडतात) या यान-विमानादींमुळेच तुम्ही (शिल्पी, अभियांत्रिकजन) (विष्णो:) व्यापक ईश्वराच्या या जगात (विक्रमणम्) पराक्रमी (असि) झाला आहात तसेच (विष्णो:) व्यापक वायू मधून (विक्रान्तय्) अनेकप्रकारे गति करणारे आणि (विष्णो:) व्यापक विद्युतेप्रमाणे (क्रान्तम्) गतिचा आधार असणार्‍या विमानादीचे तुम्ही निर्माते (असि) आहात. तसेच (अधराक्) मेघाच्या खालून (आववृत्तन्) मेघाप्रमाणे उडतात. अशा यानाचा तुम्ही शोध लावा व निर्मिती करा (आकाशात मेघाच्या वरून वा खालून गति करणार्‍या, भूमीवरून वेग घेऊन आकाशात जाणार्‍या शत्रूवर पराक्रम गाजविण्यास समर्थ असणार्‍या वेगवान विमान आदी यानांची निर्मिती करा ॥19॥

    भावार्थ

    भावार्थ - आकाशातील ढग ज्याप्रमाणे बरसतात आणि भूमीवर येऊन पुन्हा वाफेच्या रुपाने आकाशात जातात, पुन्हा तेच जल नद्यांत जाऊन नंतर समुद्रास मिळते, म्हणजे मेघाच्या आत, वर आणि खाली जल असते, कारागीर, (वैज्ञानिक व अभियंता) लोकांनी विमानादी यान आणि नौकांची निर्मिती करून भूमीवरून, जलावरून वा आकाशातून गती, प्रवास वा विहार करीत इच्छित देशांकडे यथेष्ट (वारंवार व जशी इच्छा होईल त्याप्रमाणे) जावे व यावे (विदेशगमन अवश्य करावे) जोपर्यंत अशा यान आदींचे निर्माण होत नाही, तोपर्यंत कोणीही द्वीप-द्वीपांतरापर्यंत जाऊ शकत नाही. ज्याप्रमाणे पक्षी स्वत:च्या शरीराला आकाशात घेऊन जातात व उडतात, त्याप्रमाणे कुशल कारागीर (वैमानिक) आदींना पाहिजे की त्यानी यानादीद्वारा आपले शरीर आकाशात न्यावेत (आकाशात विहार करावा) ॥19॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O royal skilled engineer, construct sea-boats, propelled on water by our experts, and aeroplanes, moving and flying up-ward, after the clouds that reside in the mid-region, that fly as the boats move on the sea, that fly high over and below the watery clouds. Be thou, thereby, be prosperous in this world created by the Omnipresent God, and flier in both air, and lightning.

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    Meaning

    From the top of the cloud, over the top of clouds, flying boats, fuelled and driven, roam around in the sky like boats on the sea. Piloted from down below on earth, soaring up like clouds into the sky, they pursue the clouds as Indra pursued Vritra. Master-maker of the nation, in the wide spaces of Lord Vishnu, you are capable of creating various kinds of motion. You are capable of creating special and definite steers of motion as the wind’s. You are the cause and source of motion and speed by the power of energy.

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    Translation

    From the surface of the rain-causing mountain, the navigable rivers flow down self-irrigating and rushing forward. These turn back, moving downwards and upwards, following the path of the clouds of the mid-space. (1) О waters, you are the stepping forth of the sun;(2) you are the moving forward of the sun;(3) you are the crossing over of the sun. (4)

    Notes

    Vrsabhasya, of the rain-causing. Parvatasya, of the mountain. Svasicah, self-irrigating. Navah, navigable streams or rivers. Avavrtran, turn back. Iyan&h, from इण to go; rushing. Adharak, downwards. Udak, upwards. Ahirbudhnyam, clouds of the midspace. Anu nyamanah, अनुसरंत्य:, following the path of Vikramanam, stepping forth. Vikranizm, moving forward. Krantam, crossing over.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরত্র রাজপ্রজাজনৈঃ কীদৃশানি য়ানানি রচনীয়ানীত্যাহ ॥
    পুনঃ এই জগতে রাজা ও প্রজাগণকে কী প্রকারের যান নির্মাণ করা প্রয়োজন, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজ শিল্পী ! (স্বসিচঃ) যাহাকে নিজস্ব লোকেরা জল দ্বারা সিঞ্চন করে (ইয়ানাঃ) চলন্ত অবস্থায় (উদক্তাঃ) পুনঃ পুনঃ উপরের দিকে গমন করে (অর্হি বুধ্নম্) অন্তরিক্ষে থাকা মেঘের (অনুরীয় মাণাঃ) পশ্চাৎ চলন্ত অবস্থায় (নাবঃ) সমুদ্রের উপর নৌকা সমান্ চলিয়া বিমান (বৃষ্ণস্য) বর্ষাকারক (পর্বতস্য) মেঘের (পৃষ্ঠাৎ) উপরের ভাগ দিয়া (প্রচরন্তি) চলে, যদ্দ্বারা তুমি (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক ঈশ্বরের এই জগতে (বিক্রমণম্) পরাক্রম সহিত (অসি) হও । (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক বায়ুর মধ্যে (বিক্রান্তম্) বহু প্রকারে গমনশীল (অসি) হও এবং (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক বিদ্যুতের মধ্যে (ক্রান্তম্) গমন করিবার আধার (অসি) হও যাহা (অধরাক্) মেঘের নীচে (আববৃত্রন্) মেঘের সমান বিচরণ করে সেই বিমানাদি যানসকলকে তুমি সিদ্ধ কর ॥ ১ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যেমন মেঘ বর্ষণ করিয়া ভূমিতল প্রাপ্ত হইয়া পুনঃ আকাশে প্রাপ্ত হয় । সেই জল নদীগুলিতে যাইয়া পশ্চাৎ সমুদ্রে যাইয়া মিশে । যাহা জলের ভিতর অর্থাৎ যাহার উপর-নীচে জল হয়, তদ্রূপ সব শিল্পীদের উচিত যে, বিমানাদি যান ও নৌকাগুলিকে নির্মাণ করিয়া ভূমি, জল ও আকাশ মার্গ দ্বারা অভীষ্ট দেশে যথেষ্ট যাতায়াত করিবে । যখন পর্য্যন্ত এই রকম যান তৈয়ার হয়নি ততক্ষণ পর্য্যন্ত দ্বীপ-দ্বীপান্তরে কেউ যাতায়াত করিতে পারিত না । যেমন পক্ষী নিজ শরীররূপ সংঘাতকে আকাশে উড়াইয়া লইয়া চলে সেইরূপ চতুর শিল্পীদের উচিত যে, এই নিজ শরীরাদিকে যানগুলির দ্বারা আকাশে ভ্রমণ করাইবে ॥ ১ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্র পর্ব॑তস্য বৃষ॒ভস্য॑ পৃ॒ষ্ঠান্নাব॑শ্চরন্তি স্ব॒সিচ॑ऽইয়া॒নাঃ । তাऽআऽব॑বৃত্রন্নধ॒রাগুদ॑ক্তা॒ऽঅহিং॑ বু॒ধ্ন্য᳕মনু॒ রীয়॑মাণাঃ । বিষ্ণো॑র্বি॒ক্রম॑ণমসি॒ বিষ্ণো॒র্বিক্রা॑ন্তমসি॒ বিষ্ণোঃ॑ ক্রা॒ন্তম॑সি॒ ॥ ১ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রপর্বতস্যেত্যস্য দেববাত ঋষিঃ । বিরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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