यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 5
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः
छन्दः - स्वराट धृति,
स्वरः - ऋषभः
2
सोम॑स्य॒ त्विषि॑रसि॒ तवे॑व मे॒ त्विषि॑भूर्यात्। अ॒ग्नये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॑ सवि॒त्रे स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै॒ स्वाहा॑ पू॒ष्णे स्वाहा॒ बृह॒स्पत॑ये॒ स्वाहेन्द्रा॑य॒ स्वाहा॒ घोषा॑य॒ स्वाहा॒ श्लोक॑ाय॒ स्वाहाशा॑य॒ स्वाहा॒ भगा॑य॒ स्वाहा॑र्य॒म्णे स्वाहा॑॥५॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑स्य। त्विषिः॑। अ॒सि॒। तवे॒वेति तव॑ऽइव। मे॒। त्विषिः॑। भू॒या॒त्। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सोमा॑य। स्वाहा॑। स॒वि॒त्रे। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। पू॒ष्णे। स्वाहा॑। बृह॒स्पत॑ये। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। स्वाहा॑। घोषा॑य। स्वाहा॑। श्लोका॑य। स्वाहा॑। अꣳशा॑य। स्वाहा॑। भगा॑य। स्वाहा॑। अ॒र्य्य॒म्णे स्वाहा॑ ॥५॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमस्य त्विषिरसि तवेव मे त्विषिर्भूयात् अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहा पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहाँशाय स्वाहा भगाय स्वाहार्यम्णे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
सोमस्य। त्विषिः। असि। तवेवेति तवऽइव। मे। त्विषिः। भूयात्। अग्नये। स्वाहा। सोमाय। स्वाहा। सवित्रे। स्वाहा। सरस्वत्यै। स्वाहा। पूष्णे। स्वाहा। बृहस्पतये। स्वाहा। इन्द्राय। स्वाहा। घोषाय। स्वाहा। श्लोकाय। स्वाहा। अꣳशाय। स्वाहा। भगाय। स्वाहा। अर्य्यम्णे स्वाहा॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
राजन्यैराप्तराज्ञामेवाऽनुकरणं कार्यं नेतरेषां क्षुद्राशयलुब्धान्यायाजितेन्द्रियाणामिति उपदिश्यते॥
अन्वयः
हे राजन्! यथा त्वं सोमस्य त्विषिरसि तथाऽहमपि भवेयम्। यतस्तवेव मे त्विषिर्भूयाद् यथा भवताऽग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहा पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहांऽशाय स्वाहा भगाय स्वाहाऽर्य्यम्णे च स्वाहा गृह्यते तथा मयापि गृह्यते॥५॥
पदार्थः
(सोमस्य) ऐश्वर्य्यस्य (त्विषिः) ज्योतिः (असि) (तवेव) यथा भवतस्तथा (मे) मम (त्विषिः) विज्ञानप्रकाशः (भूयात्) (अग्नये) विद्युदादये (स्वाहा) सत्यवाक्प्रियाचरणयुक्ता विद्या (सोमाय) औषधविज्ञानाय (स्वाहा) वैद्यकपुरुषार्थविद्या (सवित्रे) सूर्य्यविज्ञानाय (स्वाहा) ज्योतिर्विद्या (सरस्वत्यै) वेदार्थसुक्षाविज्ञापिकायै वाचे (स्वाहा) व्याकरणाद्यङ्गविद्या (पूष्णे) प्राणपशुपालनाय (स्वाहा) योगव्यवहारविद्या (बृहस्पतये) बृहतां प्रकृत्यादीनां पत्युरीश्वरस्य विज्ञानाय (स्वाहा) ब्रह्मविद्या (इन्द्राय) इन्द्रियाधिष्ठातुर्जीवस्य बोधाय (स्वाहा) विवेकविद्या (घोषाय) सत्प्रियभाषणादियुक्तायै वाण्यै (स्वाहा) तथ्योपदेशे वक्तृत्वविद्या (श्लोकाय) तत्त्वसङ्घातसत्काव्यगद्यपद्यछन्दोनिर्माणादिविज्ञानाय (स्वाहा) तत्त्वकाव्यशास्त्रादिविद्या (अंशाय) परमाण्ववगमाय (स्वाहा) सूक्ष्मपदार्थविद्या (भगाय) ऐश्वर्याय (स्वाहा) पुरुषार्थविद्या (अर्य्यम्णे) न्यायाधीशत्वाय (स्वाहा) राजनीतिविद्या॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ३। ५। ३-९) व्याख्यातः॥५॥
भावार्थः
मनुष्यैरिदमाशंसितव्यं यथाऽऽप्तानां राज्ञां शुभगुणस्वभावाः सन्ति, तथैव नो भूयासुरिति॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा लोगों को चाहिये कि सत्यवादी धर्मात्मा राजाओं के समान अपने सब काम करें और क्षुद्राशय, लोभी, अन्यायी तथा लम्पटी के तुल्य कदापि न हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे राजन्! जैसे आप (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के (त्विषिः) प्रकाश करनेहारे (असि) हैं, वैसा मैं भी होऊं, जिससे (तवेव) आप के समान (मे) मेरा (त्विषिः) विद्याओं का प्रकाश होवे, जैसे आप ने (अग्नये) बिजुली आदि के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी और प्रियाचरणयुक्त विद्या (सोमाय) ओषधि जानने के लिये (स्वाहा) वैद्यक की पुरुषार्थयुक्त विद्या (सवित्रे) सूर्य्य को समझने के लिये (स्वाहा) भूगोल विद्या (सरस्वत्यै) वेदों का अर्थ और अच्छी शिक्षा जानने वाली वाणी के लिये (स्वाहा) व्याकरणादि वेदों के अङ्गों का ज्ञान (पूष्णे) प्राण तथा पशुओं की रक्षा के लिये (स्वाहा) योग और व्याकरण की विद्या (बृहस्पतये) बड़े प्रकृति आदि के पति ईश्वर को जानने के लिये (स्वाहा) ब्रह्मविद्या (इन्द्राय) इन्द्रियों के स्वामी जीवात्मा के बोध के लिये (स्वाहा) विचारविद्या (घोषाय) सत्य और प्रियभाषण से युक्त वाणी के लिये (स्वाहा) सत्य उपदेश और व्याख्यान देने की विद्या (श्लोकाय) तत्त्वज्ञान का साधक शास्त्र, श्रेष्ठ काव्य, गद्य और पद्य आदि छन्द रचना के लिये (स्वाहा) तत्त्व और काव्यशास्त्र आदि की विद्या (अंशाय) परमाणुओं के समझने के लिये (स्वाहा) सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान (भगाय) ऐश्वर्य्य के लिये (स्वाहा) पुरुषार्थज्ञान (अर्य्यम्णे) न्यायाधीश होने के लिये (स्वाहा) राजनीति विद्या को ग्रहण करते हैं, वैसे मुझे भी करना अवश्य है॥५॥
भावार्थ
मनुष्यों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि जैसे सत्यवादी धर्मात्मा राजा लोगों के गुण, कर्म, स्वभाव होते हैं, वैसे ही हम लोगों के भी होवें॥५॥
विषय
राजा
पदार्थ
प्रजा राजा से कहती है कि १. ( सोमस्य त्विषिः असि ) = तू सोम की कान्तिवाला है। शरीर में सोम की रक्षा के द्वारा तू अद्भुत तेजस्विता को धारण किये हुए है। ( मे ) = मेरी ( त्विषिः ) = दीप्ति ( तव इव ) = तेरे समान ( भूयात् ) = हो। हम सब भी सोम की रक्षा के द्वारा कान्ति-सम्पन्न बनें।
२. ( अग्नये स्वाहा ) = राष्ट्र को निरन्तर आगे ले-चलनेवाले तेरे लिए हम कररूप में धन देते हैं।
३. ( सोमाय ) = सोम की रक्षा के द्वारा शक्ति के पुञ्ज, परन्तु फिर भी सौम्य आपके लिए हम ( स्वाहा ) = कररूप में धन देते हैं।
४. ( सवित्रे स्वाहा ) = राष्ट्र का ऐश्वर्य बढ़ानेवाले आपके लिए हम कर देते हैं।
५. ( सरस्वत्यै स्वाहा ) = राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित करनेवाले आपके लिए हम कर देते हैं।
६. ( पूष्णे स्वाहा ) = एक-एक व्यक्ति का पोषण करनेवाले, किसी को भी भूखा न मरने देनेवाले आपके लिए हम कर देते हैं।
७. ( बृहस्पतये स्वाहा ) = सर्वोच्च दिशा के अधिपति और अतएव लोगों को भी उत्थान की ओर ले-चलनेवाले आपके लिए हम कर देते हैं।
८. ( इन्द्राय स्वाहा ) = जितेन्द्रिय के लिए और जितेन्द्रिय बनकर औरों को भी वश में करनेवाले आपके लिए हम कर देते हैं।
९. ( घोषाय स्वाहा ) = प्रातः वेदमन्त्रों का उच्चारण करनेवाले आपके लिए अथवा राष्ट्र में राष्ट्रीय नियमों की उद्घोषणा करवानेवाले आपके लिए हम कर देते हैं।
१०. ( श्लोकाय स्वाहा ) = उत्तम कर्मों के कारण यशस्वी आपके लिए हम कर देते हैं।
११. ( अंशाय स्वाहा ) = राष्ट्र में धनों का ठीक विभाजन करनेवाले आपके लिए हम कर देते हैं। राजा को इस बात का बड़ा ध्यान करना है कि किसी एक व्यक्ति में अत्यधिक धन केन्द्रित न हो जाए, और कुछ लोग धनाभाव से भूखे न मरने लगें। उसके राष्ट्र में haves और have-nots के—अत्यधिक धनी व अतिनिर्धन के दो समाजखण्ड न बन जाएँ।
१२. ( भगाय स्वाहा ) = उत्तम कर्मों का सेवन करनेवाले राजा के लिए हम कर देते हैं ‘भज सेवायाम्’।
१३. ( अर्यम्णे स्वाहा ) = [ अरीन् यच्छति ] शत्रुओं को वशीभूत करनेवाले राजा के लिए हम कर देते हैं। अथवा ‘अर्यमा इति तमाहुर्यो ददाति’ इस वाक्य के अनुसार अर्यमा वह है जो देता है। ‘भग’ शब्द ऐश्वर्यवाचक है, अतः १२ व १३ का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि हम उस राजा को कर देते हैं जो ख़ूब ऐश्वर्य को सिद्ध करनेवाला बनकर हम सब प्रजाओं के लिए ही उस धन का उचित विनियोग करे।
भावार्थ
भावार्थ — राजा को अग्नि आदि के गुणों से सम्पन्न होकर उत्तमता से राष्ट्र की सुव्यवस्था करनी है।
विषय
राजा की तेजस्विता का वर्णन ।
भावार्थ
हे सिंह ! या सिंहासन ! तू ( सोमस्य ) राजा की ( त्विषिः असि) कान्ति या शोभा है । ( तव इव ) तेरे समान, तेरे अनुरूप ही ( मे) मेरी, मुझ राजा की भी ( त्विषिः ) कान्ति, तेज, शोभा ( भूयात्) हो । ( अग्नये त्वा ) हे राजन् ! तू अनि के उत्तम तेज को धारण कर । ( सोमाय स्वाहा ) हे राजन् ! तुझे सोम राष्ट्र का क्षात्रबल उत्तम रीति से प्राप्त हो । ( सवित्रे स्वाहा ) समस्त दिव्य तेजों के उत्पादक सूर्य का तेज तुझे भली प्रकार प्राप्त हो । ( सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती, वेदवाणी का उत्तम ज्ञान तुझे प्राप्त हो । ( पूष्णो स्वाहा ) पुष्टिकारक पशुओं की समृद्धि तुझे प्राप्त हो । ( बृहस्पतये स्वाहा ) ब्रह्म, वेद के पालक विद्वान् पुरुषों का ज्ञान वल तुझे प्राप्त हो । (इन्द्राय स्वाहा ) परम वीर्यवान् राजा का वीर्य तुझे प्राप्त हो । ( घोषाय स्वाहा ) घोष, सबको आज्ञा प्रदान करने और घोषणा करने का उत्तम अधिकार तुझे प्राप्त हो । ( श्र्लोकाय स्वाहा ) समस्त जनों द्वारा स्तुति और यथ प्राप्त करने का पद प्राप्त हो । ( अंशाय स्वाहा ) सबको उचित उनके अंश, धन, भूमि आदि के बांटने का अधिकार तुझे प्राप्त हो । ( भगाय स्वाहा ) समस्त ऐश्वर्यों का स्वामित्व तुझे प्राप्त हो । ( अर्यम्णो। स्वाहा ) सब राष्ट्र पर स्वामी होकर उनको न्याय प्रदान करने का अधिकार तुझे प्राप्त हो ॥ शत० ५।३।५।३-९ ॥ तेजो वा अग्निः । तेजसा एवैनमभिषिञ्चति । क्षत्रं वे सोमःक्षत्रेणौवैनमेतदभिषिञ्चति । सविता वै देवानां प्रसविता । सविनृप्रसूत एव एन- मेतदभिषिञ्चति । वाग् वै सरस्वती । वाचैवैनमेतदभिपञ्चति । पशवो वै पूषा । ब्रह्म वै बृहस्पतिः । वीर्य वा इन्द्रः । वीर्य घोषः । वीर्य वै श्लोकः । वीर्या अंशः । वीयं वै भगः । अर्यम्णो स्वाहा । तदेनमस्य सर्वस्य अर्यमणं करोति ॥ शत० ५ । ३ । ५ । ८-९ ॥ अथवा - हे राजन् तू (सोमस्य त्विषिः) परम ऐश्वर्य की शोभा है। मुझे भी ऐसी शोभा प्राप्त हो । (अग्नये स्वाहा ) विद्युत् आदि के ज्ञान के लिये ( सोमाय ) औषधि ज्ञान के लिये, ( सवित्रे ) सूर्यविज्ञान के लिये, ( सरस्वत्यै ) वेदवाणी के लिये, ( पृष्णो ) पशु पालन के लिये. ( बृहस्पतये ) परमेश्वर ज्ञान के लिये, ( इन्द्राय ) जीव के ज्ञान के लिये, ( घोषाय ) वाणी, ( श्र्लोकाय ) काव्य के गद्यपद्य छन्दोज्ञान के लिये, ( अंशाय ) परमाणु ज्ञान के लिये, ( भगाय ) ऐश्वर्यप्राप्ति के लिये, (अर्यम्णे न्यायाधीश पद के लिये हे राजन् ! तू उनके योग्य ( स्वाहा १२ ) विज्ञानों का अभ्यास कर| अथवा - सूर्य के १२ मासों के जिस प्रकार १२ रूप होते हैं उसी प्रकार अनि सोम आदि भिन्न २ गुण अधिकारों और सामर्थ्यों के सूचक १२ पद या अधिकार राज्य को प्राप्त हो ।
टिप्पणी
५ ' सोमस्य त्विषिरस्यग्नये० 'इन्द्राय स्वाहांशाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहा घोषाय स्वाहा भगाय ० इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः । भुरिगतिधृतिः । ऋषभः ।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व माणसांनी ही इच्छा बाळगावी की सत्यवादी, धर्मात्मा राजे लोकांचे जसे गुण, कर्म, स्वभाव असतात तसेच आमचे सर्वांचेही व्हावेत.
विषय
राजांना उचित आहे की त्यांनी आपली सर्व कर्तव्य कर्में सत्यवादी आणि धर्माला राजांप्रमाणे करावीत आणि त्यांनी कधीही क्षुद्राशयी, लोभी, अन्यायी व लंपट मनुष्याप्रमाणे आचरण करू नये, याविषयी पुढील मंत्रात वर्णन केले आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (एक प्रजाजन म्हणत आहे) हे राजन्, ज्याप्रमाणे आपण (सोमस्य) ऐश्वर्याचा (त्विषि:) प्रकाश (वृछी व विकास) करणारे (असि) आहात, तसा मी (प्रजाजनाने) देखील व्हायला हवे. (तवेव) तुमच्याप्रमाणे (से) माझादेखील ऐश्वर्य व विद्येच्या दृष्टीने विकास व्हावा. आपण ज्याप्रमाणे (अग्नेय) विद्युत शक्तीसाठी (स्वाहा) सत्यवाणी (सिद्धांद) आणि प्रियाचरणयुक्त (हितकारिणी) विद्येचा विकास केला आहे तसेच (सोमाय) औषधींच्या ज्ञानासाठी (स्वाहा) वैद्यकीय विद्या व त्याचे प्रयोग ज्ञान प्राप्त केले आहे (त्याप्रमाणे मी म्हणजे प्रजाजनांनी देखील करायला हवे) (सवित्रे) सूर्यशक्तीचे लाभ प्राप्त करण्यासाठी आपण (स्वाहा) भूगोलविद्येचा आणि (सरस्वत्यै) वेदांचा अर्थ व उत्तम विद्या शिकविणार्या वाणीसाठी (स्वाहा) व्याकरण आदी अंगांचे ज्ञान प्राप्त केले आहे (त्याप्रमाणे मी ही प्राप्त करावे) ज्याप्रमाणे आपण (पूष्णे) प्राणांच्या आणि पशूंच्या रक्षणासाठी (स्वाहा) योग आणि पशुपालनविद्येचा तसेच (बृहस्पतये) महान प्रकृती आदींचा स्वामी जो पती म्हणजे परमात्मा त्याला जाणण्यासाठी (स्वाहा) ब्रह्मविद्येचे ज्ञान प्राप्त केले आहे, (तसे मी देखील प्राप्त करावे) ज्याप्रमाणे आपण (इन्द्राय) इंद्रियांचा स्वामी जो जीवात्मा, त्यांच्यासाठी (स्वाहा) विचार विद्येचा आणि (घोषायै) सत्य व प्रिय भाषणयुक्त वाणीसाठी (स्वाहा) सत्योपदेश व व्याख्यानविद्येचे ज्ञान प्राप्त केले आहे (तसे मी देखील करावे) जसे आपण (श्लोकाय) तत्त्वज्ञान, शास्त्र, उत्तम काव्य, गद्य-पद्य आणि छंद रचनेसाठी (स्वाहा) छंदशास्त्र आणि शुभमूल, काव्य-शास्त्र आदींचे आणि (अंशाय) परमाणूंचे तत्व जाणून घेण्यासाठी (स्वाहा) सूक्ष्म पदार्थांचे ज्ञान आणि (भगाय) ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी (स्वाहा) पुरुषार्थाचे महत्त्व आणि (अर्य्यम्णे) न्यायाधीश होण्यासाठी (स्वाहा) राजनीतीचे ज्ञान प्राप्त करता, त्याचप्रमाणे मी (व सर्व प्रजाजनांनीदेखील) केले पाहिजे. ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - (राज्यातील) सर्व मनुष्यांनी (प्रजाजनांनी) अशी इच्छा केली पाहिजे की सत्यवादी व धर्मात्मा राजांचे गुण, कर्म आणि स्वभाव जसे असतात, तसेच आमचे (आम्हा सर्व प्रजाजनांचेही) असायला हवेत. ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O king, thou art the light of greatness, may my light of knowledge grow like thine. Acquire truthful speech and knowledge coupled with practice for learning the science of electricity, and laborious nature of a doctor for learning medicine. Learn astronomy for acquiring the knowledge of sun. Learn grammar for understanding the Vedas. Learn Yoga for the control of breath. Study the Vedas for the knowledge of God. Acquire discrimination for the knowledge of soul. Acquire the art of eloquence for a good speech Learn prosody for composing poems. Learn science for understanding the attributes of atoms. Learn to lead an active life for acquiring wealth. Learn politics for becoming a king.
Meaning
Ruler of the land, you are the brilliance of Soma, light of the nation’s glory. May my light of dignity be like yours. For the knowledge and power of fire and electricity for the nation, let there be specific and factual language and study of science. For Soma, life-sciences, knowledge of biology and medicine; for the sun, astronomy and cosmology; for Saraswati (Veda and education), grammar and Vedanga, i. e. , auxiliary studies on the subject; for Pusha (pranic vitality and material growth), yoga and economics; for Brihaspati (lord of the universe), spiritual knowledge ; for Indra (lord of the senses, jivatma, the soul), intelligence and inner light; for language and communication, effective teaching and discussion; for poetry and composition, poetics; for the subtle elements of nature, science of atoms; for honour and prosperity, industry and dedication; for Aryama (leader of justice), politics of value and jurisprudence.
Translation
You are the radiance of the blissful Lord; may I have the radiance like yours. (1) I dedicate to the adorable Lord. (2) I dedicate to the blissful Lord. (3) I dedicate to the creator. (4) I dedicate to the speech. (5) I dedicate to the nourisher. (6) I dedicate to the Lord supreme. (7) I dedicate to the resplendent Lord. (8) I dedicate to the proclamation. (9) I dedicate to the praise. (10) I dedicate to the aportioner. (11) I dedicate to the Lord of prosperity. (12) I dedicate to the Lord of justice. (13)
Notes
The sacrificer spreads a tiger-skin, one of the emblems of royalty before the hearth of Mitravaruna, and recites the formulas. Tvisib, radiance. Somasya, of the. blissful Lord. According to the legend Indra became a tiger after he had drunk Soma. Serasvatyai, to the speech. Ghosaya, to the proclamation. Slokaya, to the praise. AmSaya, to the approtioner.
बंगाली (1)
विषय
রাজন্যৈরাপ্তরাজ্ঞামেবাऽনুকরণং কার্য়ং
নেতরেষাং ক্ষুদ্রাশয়লুব্ধান্যায়াজিতেন্দ্রিয়াণামিতি উপদিশ্যতে ॥
রাজাদের উচিত যে, সত্যবাদী ধর্মাত্মা রাজাদের সমান নিজের সব কার্য্য করিবেন এবং ক্ষুদ্রাশয়, লোভী, অন্যায়ী তথা লম্পট তুল্য কদাপি হইবেন না, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে রাজন্ ! যেমন আপনি (সোমস্য) ঐশ্বর্য্যের (ত্বিষিঃ) প্রকাশকারী (অসি) হন্ সেইরূপ আমিও হই যাহাতে (তবেব) আপনার সমান (মে) আমার (ত্বিষিঃ) বিদ্যাসকলের প্রকাশ হয়, যেমন আপনি (অগ্নয়ে) বিদ্যুতাদির জন্য (স্বাহা) সত্য বাণী এবং প্রিয়াচরণযুক্ত বিদ্যা (সোমায়) ওষধি জানিবার জন্য (স্বাহা) বৈদ্যকের পুরুষকারযুক্ত বিদ্যা (সবিত্রে) সূর্য্যকে বুঝিবার জন্য (স্বাহা) ভূগোল বিদ্যা (সরস্বত্যৈ) বেদের অর্থ এবং সুশিক্ষা জানিবার বাণীর জন্য (স্বাহা) ব্যাকরণাদি বেদের অঙ্গের জ্ঞান (পূষ্ণে) প্রাণ তথা পশুদের রক্ষার জন্য (স্বাহা) যোগ ও ব্যাকরণের বিদ্যা (বৃহস্পতয়ে) বৃহৎ প্রকৃতি আদির পতি ঈশ্বরকে জানিবার জন্য (স্বাহা) ব্রহ্মবিদ্যা (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রিয়দিগের স্বামী জীবাত্মার বোধহেতু (স্বাহা) বিচার বিদ্যা, (ঘোষায়) সত্যও প্রিয়ভাষণ যুক্ত বাণীর জন্য (স্বাহা) সত্য উপদেশ ও ব্যাখ্যান দিবার বিদ্যা (শ্লোকায়) তত্ত্বজ্ঞানের সাধক শাস্ত্র শ্রেষ্ঠ কাব্য গদ্য ও পদ্যাদি ছন্দ রচনা হেতু (স্বাহা) ছন্দ ও শুভ মূল কাব্য শাস্ত্রাদির বিদ্যা (অংশায়) পরমাণু সকলকে বুঝিবার জন্য (স্বাহা) সূক্ষ্ম পদার্থের জ্ঞান (ভগায়) ঐশ্বর্য্য হেতু (স্বাহা) পুরুষকার জ্ঞান (অর্য়্যম্ণে) ন্যায়াধীশ হইবার জন্য (স্বাহা) রাজনীতি বিদ্যা গ্রহণ করেন তদ্রূপ আমাকেও অবশ্য করিতে হইবে ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যের এমন ইচ্ছা করা দরকার যে, যেমন সত্যবাদী, ধর্মাত্মা রাজাদের গুণ-কর্ম স্বভাব হয় সেইরূপ আমাদেরও হউক ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সোম॑স্য॒ ত্বিষি॑রসি॒ তবে॑ব মে॒ ত্বিষি॑ভূর্য়াৎ । অ॒গ্নয়ে॒ স্বাহা॒ সোমা॑য়॒ স্বাহা॑ সবি॒ত্রে স্বাহা॒ সর॑স্বত্যৈ॒ স্বাহা॑ পূ॒ষ্ণে স্বাহা॒ বৃহ॒স্পত॑য়ে॒ স্বাহেন্দ্রা॑য়॒ স্বাহা॒ ঘোষা॑য়॒ স্বাহা॒ শ্লোকা॑য়॒ স্বাহাᳬंশা॑য়॒ স্বাহা॒ ভগা॑য়॒ স্বাহা॑ऽর্য়॒ম্ণে স্বাহা॑ ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সোমস্যেত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । অগ্ন্যাদয়ো মন্ত্রোক্তা দেবতাঃ । স্বরাড্ধৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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