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यजुर्वेद अध्याय - 10

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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 31
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - क्षत्रपतिर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    1

    अ॒श्विभ्यां॑ पच्यस्व॒ सर॑स्वत्यै पच्य॒स्वेन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ पच्यस्व। वा॒युःपू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ्क्सोमो॒ अति॑स्रुतः। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। प॒च्य॒स्व॒। सर॑स्वत्यै। प॒च्य॒स्व॒। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। प॒च्य॒स्व॒। वा॒युः। पू॒तः। प॒वित्रे॑ण। प्र॒त्यङ्। सोमः॑। अति॑स्रुत॒ इत्यति॑ऽस्रु॒तः। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विभ्याम्पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यस्वेन्द्राय सुत्राम्णे पच्यस्व । वायुः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्क्सोमो अतिस्रुतः । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। पच्यस्व। सरस्वत्यै। पच्यस्व। इन्द्राय। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। पच्यस्व। वायुः। पूतः। पवित्रेण। प्रत्यङ्। सोमः। अतिस्रुत इत्यतिऽस्रुतः। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 31
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्या कीदृशा भूत्वा किं कुर्युरित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे राजप्रजाजन! त्वमश्विभ्यां पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यस्व सुत्राम्ण इन्द्राय पच्यस्व। पवित्रेण वायुरिव पूतः प्रत्यङ् सोमोऽतिस्रुत इन्द्रस्य युज्यः सखा भव॥३१॥

    पदार्थः

    (अश्विभ्याम्) सूर्याचन्द्रमोभ्यामिवाऽध्यापकोपदेशकाभ्याम् (पच्यस्व) परिपक्वो भव (सरस्वत्यै) सुशिक्षितायै वाचे (पच्यस्व) (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (सुत्राम्णे) सुष्ठु रक्षकाय (पच्यस्व) (वायुः) वायुरिव (पूतः) (पवित्रेण) शुद्धेन धर्माचरणेन निर्दोषः (प्रत्यङ्) प्रत्यञ्चतीति पूजितः (सोमः) ऐश्वर्य्यवान् सोमगुणसम्पन्नो वा (अतिस्रुतः) अत्यन्तज्ञानवान् (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (युज्यः) युक्तः (सखा) मित्रः॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५.५.४.२०-२२) व्याख्यातः॥३१॥

    भावार्थः

    मनुष्या आप्तयोरध्यापकोपदेशकयोः सकाशात् सुशिक्षां प्राप्य शुद्धैर्धर्माचरणैः स्वात्मानं पवित्रीकृत्य, योगाङ्गैरीश्वरमुपास्यैश्वर्य्याय प्रयत्य परस्परं सखायो भवन्तु॥३१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे हो क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजा तथा प्रजापुरुषो! तुम (अश्विभ्याम्) सूर्य चन्द्रमा के समान अध्यापक और उपदेशक (पच्यस्व) शुद्ध बुद्धि वाले हो (सरस्वत्यै) अच्छी शिक्षायुक्त वाणी के लिये (पच्यस्व) उद्यत हो, (सुत्राम्णे) अच्छी रक्षा करनेहारे (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये (पच्यस्व) दृढ़ पुरुषार्थ करो, (पवित्रेण) शुद्ध धर्म के आचरण से (वायुः) वायु के समान (पूतः) निर्दोष (प्रत्यङ्) पूजा को प्राप्त (सोमः) अच्छे गुणों से युक्त ऐश्वर्य्यवाले (अतिस्रुतः) अत्यन्त ज्ञानवान् (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (युज्यः) योगाभ्यासयुक्त (सखा) मित्र हो॥३१॥

    भावार्थ

    मनुष्य को चाहिये कि सत्यवादी धर्मात्मा आप्त अध्यापक और उपदेशक से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हो, शुद्ध धर्म के आचरण से अपने आत्मा को पवित्र योग के अङ्गों से ईश्वर की उपासना और सम्पत्ति होने के लिये प्रयत्न करके आपस में मित्रभाव से वर्त्तें॥३१॥

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    विषय

    प्रभु का सतत मित्र

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार देवों से प्रेरणा प्राप्त करके जब हम अपनी जीवन-यात्रा में चलेंगे तो यात्रा के अन्तिम प्रयाण = पड़ाव तक पहुँचेंगे। यह अन्तिम प्रयाण प्रस्तुत मन्त्र की समाप्ति पर ‘इन्द्रस्य युज्यः सखा’ इन शब्दों में कहा गया है। हे जीव! अब तो तू उस ( इन्द्रस्य ) = परमैश्वर्यशाली, सर्वशक्तिमान् प्रभु का ( युज्यः ) = सदा साथ रहनेवाला ( सखा ) = मित्र हो गया है। 

    २. ऐसा बनने के लिए तू ( अश्विभ्याम् ) = प्राणापान के लिए ( पच्यस्य ) = अपना परिपाक कर। प्राणापान की साधना में अपने को परिपक्व कर। प्राणायाम के दैनन्दिन अभ्यास से तू इन्हें अपने वश में करनेवाला बन। 

    ३. ( सरस्वत्यै ) = विद्या की अधिदेवता के लिए ( पच्यस्व ) = तू अपना परिपाक कर। ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करके वैदुष्य प्राप्त कर। 

    ४. इस प्रकार प्राण व ज्ञान की अग्नि में अपने को परिपक्व करता हुआ तू ( सुत्राम्णे ) =  अत्यन्त उत्तम रक्षक ( इन्द्रस्य ) = परमैश्वर्यवान्, सर्वशत्रुसंहारक प्रभु के लिए ( पच्यस्व ) = परिपक्व बन। प्राण-साधना और ज्ञान-प्राप्ति ही तुझे प्रभु-प्राप्ति-क्षम करेंगी। 

    ५. प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर चलता हुआ तू ( वायुः ) = [ वा गतिगन्धनयोः ] गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला होगा। क्रियाशील बना रहकर तू अपने में मलिनता को न आने देगा। 

    ६. और वस्तुतः ( पवित्रेण पूतः ) = तू ज्ञान से निरन्तर पवित्र किया जा रहा होगा। ज्ञानाग्नि तेरी सब रागद्वेषादि मलिनताओं को भस्म कर रही होगी। इन मलिनताओं के दूर हो जाने पर ७. ( प्रत्यङ् सोमः ) = तू अपने अन्दर उस ( सोम ) = शान्तात्मावाला होगा [ You will realise the God within ]। तुझे हृदयस्थ प्रभु के दर्शन होंगे। 

    ८. ( अतिस्रुतः ) = [ स्रु गतौ ] ब्रह्मनिष्ठ होकर तू अतिशयेन क्रियाशील होगा। तेरा जीवन अकर्मण्य न होगा। और ९. तू ( इन्द्रस्य युज्यः सखा ) = उस प्रभु का सतत साथ रहनेवाला मित्र बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्राण-साधना व ज्ञान-प्राप्ति मुझे उस सोम का सतत सखा बनने में समर्थ करें।

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    विषय

    बल परिपाक करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! हे राजन् ! तू ( अश्विभ्याम्) स्त्री पुरुषों, राजा और प्रजा, गुरु और शिष्य उनके हित के लिये ( पच्यस्व ) अपने को परिपक्व कर, तप कर अर्थात् उनकी सेवा के लिये श्रम कर, अथवा स्वयं उत्तम माता पिता बनने के लिये श्रम और तप कर । ( सरस्वत्यै पच्य- स्व ) सरस्वती, वेद को ज्ञानवाणी के प्राप्त करने और उन्नति करने के लिये अपने को परिपक्व कर, श्रम और तप कर । ( सुत्राम्णो ) राष्ट्र की उत्तम रीति से रक्षा करनेहारे ( इन्द्राय ) परमैश्वर्य्यवान् राजपद या राज्य-व्यवस्था के लिये ( पच्यस्व ) स्वयं परिपक्व बलवान् होने का यत्न कर ३ ( वायुः ) वायु के समान सर्वत्र गतिशील यत्नवान् ज्ञानी, ( पवित्रेण पूतः ) पवित्र आचार व्यवहार और तप से पवित्र होकर ( प्रत्यङ् ) साक्षात् पूजनीय ( सोमः ) साम, सौम्यगुणों से युक्त राजा रूप से ( अतिस्त्रुतः ) सबको लांघ कर सबसे उच्च होजाता है और जिस प्रकार पवित्र करने की विधि से पवित्र होकर ( वायुः ) व्यापक प्राण शरीर में पुनः ( सोमः ) वीर्य बनकर उत्कृष्ट रूप धारण करता है और वह इन्द्र अर्थात् जीव का मित्र होजाता है, अथवा पवित्र आचार से पवित्र होकर वायु या प्राण का अभ्यासी स्वयं वायु के समान शुद्ध, पवित्र, (सोमः ) योगी ज्ञानी पुरुष ( अतिस्रुतः) प्रति ज्ञानी होजाता है और वह ( युज्यः ) योगी, युक्त होकर ( इन्द्रस्य सखा ) इन्द्र, परमेश्वर का मित्र बनजाता है, उसी प्रकार पवित्र चार से पवित्र होकर ज्ञानवान् विद्वान् पुरुष ( अति- स्रुतः ) सबसे बढ़कर ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् राजा का ( युज्य : ) उच्च पद पर नियुक्त होने योग्य, ( सखा । मित्र के समान अमात्य आदि हो जाता है । इसके लिये भी उस पुरुष को परिपक्व होने अर्थात् तप करने की आवश्यकता है । शत० ५।५।४।२०- २३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्विनावृषी । सोमः क्षत्रपतिर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सत्यवादी, धर्मात्मा, आप्त, अध्यापक व उपदेशक यांच्याकडून माणसांनी चांगले शिक्षण प्राप्त करावे. शुद्ध धर्म आचरणात आणून आपल्या आत्म्याला पवित्र बनवावे व योगांगाच्या साह्याने ईश्वराची उपासना करावी. संपत्ती मिळविण्यासाठी प्रयत्न करावेत व आपापसात मित्र भावना बाळगावी.

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    विषय

    मनुष्याने कसे असावे, कसे वागावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे राजपुरुषहो आणि प्रजाजनहो, तुम्ही (अश्विभ्याम्) सूर्य आणि चंद्राप्रमाणे अध्यापक व उपदेशक व्हा. (सर्वांना प्रकाश व प्रेरणा देणारे, शीतल स्वभाव व निर्मळ बुद्धी देणारे व्हा.) (पच्यस्व) शुद्धबुद्धीने संयुक्त व्हा. (सरस्वत्यै) उत्तम शिक्षा-संस्कार मुक्त वाणी बोलण्यासाठी (पच्यस्व) उघत व्हा. (सुत्राम्णे) चांगल्याप्रकारे रक्षण करणार्‍या (इन्द्राय) श्रेष्ठ ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी (पच्यस्व) पुरुषार्थ व परिश्रम करा. (पवित्रेण) शुद्ध धर्माच्या आचरणाने (वायु:) वायूप्रमाणे (पूत:) पवित्र व स्वच्छ व्हा. (प्रत्यड्) पूजा-सत्कार करण्यास योग्य आणि (सोम:) सद्गुणयुक्त ऐश्वर्याने संपन्न अशा (अतिसुत:) अत्यंत ज्ञानवान (इन्द्रस्थ) परमेश्वराचे (युज्य:) योभाग्यासाद्वारे (सखा) मित्र व्हा. (योगाभ्यास व योगाच्या अष्टांगांने त्यास जाणून घ्या) ॥31॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांना पाहिजे की त्यानी सत्यवादी, धर्मात्मा आणि आप्त (विश्वसनीय) अशा अध्यापकाकडून व उपदेशकाकडून उत्तम विद्या, शिक्षण प्राप्त करावे आणि शुद्धधर्माच्या आचरणाने आपल्या आत्म्यास पवित्र करून अष्टांगयोगाद्वारे ईश्वरोपासना करावी आणि श्रेष्ठ संपत्ती प्राप्त करण्यासाठी प्रयत्न करून आपसात मैत्रीभाव ठेवून वागावे. ॥31॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O King and people try to be good teachers and preachers like the sun and moon, try hard to obtain the knowledge of the Vedas, exert your utmost, for supremacy that affords protection. By leading a religious life, being pure like the air, endowed with noble qualities, full of knowledge, be friend unto God, by practising yoga.

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    Meaning

    Ruler/officer/citizen, develop and be mature by the instructions of the teacher and the preceptor. Be mature for the attainment of knowledge and wisdom, and for decent communication. Develop yourself and prepare for the honour and defence of the nation. Seasoned and sanctified as the pure wind through noble conduct and performance, be worthy of respect and admiration. Rise in knowledge, dignity and grace, be lovable as soma and the moon, and you would be a chosen companion of Indra, the ruler, and the Supreme Lord of life.

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    Translation

    Get dressed for the healers. (1) Get dressed for the learning divine. (2) Get dressed for the resplendent Lord, the good protector. (3) Cleansed by the purifying power of the wind the pressed out devotional bliss is a bosom friend of the resplendent Lord. (4)

    Notes

    Asvibhyam, for the two healers | Sutramne, for the good protector. Atisrutah, pressed out. Yujyah sakha, a bosom friend; appropriate friend.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যা কীদৃশা ভূত্বা কিং কুর্য়ুরিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনঃ মনুষ্য কেমন হইয়া কী করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজা তথা প্রজাপুরুষগণ! তোমরা (অশ্বিভ্যাম্) সূর্য্য-চন্দ্র সদৃশ অধ্যাপক ও উপদেশক (পচ্যস্ব) শুদ্ধ বুদ্ধিযুক্ত হও (সরস্বত্যৈ) সুশিক্ষাযুক্ত বাণী হেতু (পচ্যস্ব) উদ্যত হও, (সুত্রাম্নে) সম্যক্ প্রকারে রক্ষাকারী (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য (পচ্যস্ব) দৃঢ় পুরুষার্থ কর (পবিত্রেণ) শুদ্ধ ধর্মের আচরণ দ্বারা (বায়ুঃ) বায়ু সদৃশ (পূতঃ) নির্দোষ (প্রত্যঙ্) পূজা প্রাপ্ত (সোমঃ) সুগুণ যুক্ত ঐশ্বর্য্য সম্পন্ন (অতিশ্রুতঃ) অত্যন্ত জ্ঞানবান্ (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (য়জ্যুঃ) যোগাভ্যাস সহিত (সখা) মিত্র হও ॥ ৩১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যের উচিত যে, সত্যবাদী, ধর্মাত্মা আপ্ত অধ্যাপক এবং উপদেশক হইতে শিক্ষা গ্রহণ করিয়া শুদ্ধ ধর্মাচরণ পূর্বক স্বীয় আত্মাকে পবিত্র যোগাঙ্গ দ্বারা ঈশ্বরের উপাসনা এবং সম্পত্তি হইবার জন্য প্রযত্ন করিয়া পরস্পর মিত্রভাবপূর্বক ব্যবহার করিবে ॥ ৩১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒শ্বিভ্যাং॑ পচ্যস্ব॒ সর॑স্বত্যৈ পচ্য॒স্বেন্দ্রা॑য় সু॒ত্রাম্ণে॑ পচ্যস্ব । বা॒য়ুঃপূ॒তঃ প॒বিত্রে॑ণ প্র॒ত্যঙ্ক্সোমো॒ অতি॑স্রুতঃ । ইন্দ্র॑স্য॒ য়ুজ্যঃ॒ সখা॑ ॥ ৩১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অশ্বিভ্যামিত্যস্য শুনঃশেপ ঋষিঃ । ক্ষত্রপতির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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