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यजुर्वेद अध्याय - 34

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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 13
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    3

    त्वं नो॑ऽअग्ने॒ तव॑ देव पा॒युभि॑र्म॒घोनो॑ रक्ष त॒न्वश्च वन्द्य।त्रा॒ता तो॒कस्य॒ तन॑ये॒ गवा॑म॒स्यनि॑मेष॒ꣳ रक्ष॑माण॒स्तव॑ व्र॒ते॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। तव॑। दे॒व॒। पा॒युभि॒रिति॑ पा॒युऽभिः॑। म॒घोनः॑। र॒क्ष॒। त॒न्वः᳖। च॒। व॒न्द्य॒ ॥ त्रा॒ता। तो॒कस्य॑। तन॑ये॒ गवा॑म्। अ॒सि॒। अनि॑मेष॒मित्यनि॑मेषम्। रक्ष॑माणः॒। तव॑। व्र॒ते ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वन्नोऽअग्ने तवे देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य । त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषँ रक्षणस्तव व्रते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। नः। अग्ने। तव। देव। पायुभिरिति पायुऽभिः। मघोनः। रक्ष। तन्वः। च। वन्द्य॥ त्राता। तोकस्य। तनये गवाम्। असि। अनिमेषमित्यनिमेषम्। रक्षमाणः। तव। व्रते॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 13
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    राजेश्वरौ कथं सेवनीयावित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! देव तव व्रते वर्त्तमानान् मघोनोऽस्मान् तव पायुभिस्त्वं रक्ष, नस्तन्वश्च रक्ष। हे वन्द्य! यतस्त्वमनिमेषं रक्षमाणस्तोकस्य तनये गवाञ्च त्रातासि, तस्मादस्माभिर्नित्यं सत्कर्त्तव्य उपासनीयश्चासि॥१३॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (नः) अस्माकम् (अग्ने) राजन्नीश्वर वा (तव) (देव) दिव्यगुणकर्मस्वभाव (पायुभिः) रक्षादिभिः (मघोनः) बहुधनयुक्तान् (रक्ष) (तन्वः) शरीराणि (च) (वन्द्य) वन्दितुं स्तोतुं योग्य (त्राता) रक्षिता (तोकस्य) अपत्यस्य (तनये) पौत्रस्य। अत्र विभक्तिव्यत्ययः। (गवाम्) धेन्वादीनाम् (असि) (अनिमेषम्) निरन्तरम् (रक्षमाणः) (तव) (व्रते) सुनियमे॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। य ईश्वरगुणकर्मस्वभावाज्ञानुकूलत्वे वर्त्तन्ते, येषामीश्वरो विद्वांसश्च सततं रक्षकाः सन्ति, ते श्रिया दीर्घायुषा प्रजाभिश्च रहिता कदाचिन्न भवन्ति॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और ईश्वर की कैसी सेवा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (देव) उत्तम गुणकर्मस्वभावयुक्त (अग्ने) राजन् वा ईश्वर (तव) आप के (व्रते) उत्तम नियम में वर्त्तमान (मघोनः) बहुत धनयुक्त हम लोगों की (तव) आपके (पायुभिः) रक्षादि के हेतु कर्म्मों से (त्वम्) आप (रक्ष) रक्षा कीजिये (च) और (नः) हमारे (तन्वः) शरीरों की रक्षा कीजिये। हे (वन्द्य) स्तुति के योग्य भगवन्! जिस कारण आप (अनिमेषम्) निरन्तर (रक्षमाणः) रक्षा करते हुए (तोकस्य) सन्तान पुत्र (तनये) पौत्र और (गवाम्) गौ आदि के (त्राता) रक्षक (असि) हैं, इसलिये हम लोगों के सर्वदा सत्कार और उपासना के योग्य हैं॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावों और आज्ञा की अनुकूलता से वर्तमान हैं, जिनकी ईश्वर और विद्वान् लोग निरन्तर रक्षा करनेवाले हैं, वे लक्ष्मी, दीर्घावस्था और सन्तानों से रहित कभी नहीं होते॥१३॥

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    विषय

    अग्रणी से रक्षा की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! राजन् ! हे (देव) दानशील ! सर्वद्रष्टः ! (तत्र व्रते) तेरे नियम व्रत में रहने वाले (नः) हमें (त्वम् ) तु ( तव पायुभिः) अपने पालनकारी सामर्थ्यो से (नः मघोनः) हमारे धन सम्पन्न पुरुषों और (तन्वः च) हमारे शरीरों को भी (रक्ष) पालन कर । हे ( वन्द्य) वन्दनीय ! हे स्तुति करने योग्य ! तू हमारे (तोकस्य ) पुत्र ( त्राता) रक्षक और ( तनये ) पुत्र के पुत्र, पौत्रादि सन्तति और ( गवाम् ) गौ आदि पशुओं का भी ( अनिमेपम् ) निरन्तर (रक्षमाणः ) रखवाला ( असि ) है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंगिरस ऋषिः । अग्निर्देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    प्रभुरक्षा का पात्र

    पदार्थ

    हे (अग्ने) = उन्नति के साधक ! (देव) = दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे (मघोनः) = [मा अघ] पाप के अंश से शून्य ऐश्वर्यवालों को तथा [मघ= मख] यज्ञशील लोगों को (तव पायुभिः) = अपने रक्षणों से (रक्ष) = सुरक्षित कीजिए । प्रभु रक्षा करते हैं, उनकी जो [क] (मघ) = ऐश्वर्ये का उपार्जन करते हैं, उस ऐश्वर्य का जोकि कुटिलता व पाप से नहीं कमाया गया। [ख] जो ऐश्वर्य का उपार्जन करके उस ऐश्वर्य का विनियोग यज्ञों [मघ= मख] में करते हैं, [ग] इस प्रकार जो साधनों को जुटाकर और साधनों का सदुपयोग करके उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं [अग्नि] और [घ] धीरे-धीरे दिव्य गुणों के पुञ्ज बन जाते हैं [देव] । हे (वन्द्य) = हे वन्दन व स्तवन के योग्य प्रभो! (नः तन्वः च) और हमारे शरीरों की भी (रक्ष) = आप रक्षा कीजिए। हे प्रभो! आप ही (तोकस्य त्राता) = हमारे सन्तानों के भी रक्षक हैं। वस्तुतः प्रभुकृपा से ही माता-पिता सन्तानों का निर्माण कर पाते हैं। हमारे (तनये) = पौत्रों के विषय में भी [तनुते वंशम्] आप ही त्राता रक्षक हैं। हमारी इन सन्तानादि की रक्षा के लिए ही गवाम् = हमारे गौ आदि पशुओं के भी आप (त्राता असि) = रक्षक हैं। यहाँ वंश विस्तार के लिए गोरक्षा का स्पष्ट संकेत है। हे प्रभो! वास्तव में (तव व्रते) = आपके व्रत में चलनेवालों के आप (अनिमेषम्) = प्रमादशून्यता से, पूर्ण सावधानी से (रक्षमाणः) = रक्षा करनेवाले हैं। जो प्रभु प्राप्ति को अपना ध्येय बना लेते हैं प्रभु स्वयं उनके रक्षक बन जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुरक्षा का धन का विनियोग यज्ञों में धारण करें, [ङ] प्रभु के पात्र बनने के लिए हम [क] सदा सुपथ से करें, [ग] उन्नत होने का सतत प्रयत्न करें, प्रति वन्दनशील हों। धन कमाएँ, [ख] [घ] दिव्यता को ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जी माणसे ईश्वराच्या गुण, कर्म स्वभावानुसार त्याच्या आज्ञेत राहतात व ईश्वर आणि विद्वान लोक ज्यांचे सतत रक्षण करतात ते दीर्घायू होतात. त्यांना लक्ष्मी व संतानांची प्राप्ती होते.

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    विषय

    राजाची आणि ईश्‍वराची सेवा कशी करावी, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (देव) उत्तम गुण, कर्म आणि स्वभाव याने संपन्न असलेल्या (अग्ने) हे राजा अथवा हे ईश्‍वर, (तव) तुमच्या (व्रते) (तुम्ही ठरवून दिलेल्या) हितकारी नियमात राहून (मगोनः) अती व ऐश्‍वर्यवान आम्हा लोकांना (तव) आपल्या (पायुभिः) रक्षणादी उपायांनी (त्वम्) आपण (रक्ष) आमचे रक्षण करा (श्रीमंतांच्या धनाचे राजाने रक्षण करावे) (च) तसेच (नः) आमच्या (तन्वः) देहाचे ही रक्षण करा. हे (वन्द्य) स्तुत्य परमेश्‍वर, आपण (अनिमेषम्) सतत (रक्षमाणः) आमची रक्षा करीत (तोकस्य) आमच्या संततीचे (तनये) पुत्र-पौत्रादींचे तसेच (गवाम्) आमच्या गौ आदी पशूंचे (त्राता) रक्षणकर्ता (असि) आहात. यामुळे आपण आमच्यासाठी सदैव सत्कारणीय आणि उपासनीय आहात. ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेष अलंकार आहे. (‘देव’ आणि ‘अग्ने’ या शब्दात श्लेषा आहे, कारण या शब्दाचे एकापेक्षा अधिक म्हणजे दोन अर्थ निघत आहेत) जे मनुष्य ईश्‍वराच्या गुण, कर्म आणि स्वभावाप्रमाणे वागून त्याच्याच आज्ञेप्रमाणे आचरण करतात, त्यांची ईश्‍वर आणि विद्वज्जन अवश्य रक्षा करतात. अशी माणसे धनवान, दीर्घायू आणि संतानवान होतात. ते निःसंतान राहत नाहींत ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O God, noble in qualities, actions and nature, preserve our wealthy patrons and our bodies with Thy succours. O Venerable God, Guard art thou of our sons, grandsons and cows, incessantly protecting in Thy holy law.

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    Meaning

    Agni, brilliant power and divine celebrity, living within your laws of life and system, we pray, with your methods of protection, preserve and promote our body- system and the generous leader of our social yajna. You are the saviour and vigilant protector of our children and grand children, our health of body and mind, and our cows and forms of culture.

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    Translation

    O adorable God, preserve your devotees with your bounties; you are the defender of cattle for the son of my son, who is ever assiduous in you worship. (1)

    Notes

    Payubhiḥ, रक्षणै:, bounties; succours. Maghonah, धनानि, riches. Also, धनवतः यजमानान्, wealthy devotees. Tanaye, in place of ,तनयस्य , पौत्रस्य,ofgrandson. Of son and grandon; also of son's son. Animeşam, सावधानं, ever-alert; literally, without blinking eye lashes.

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    बंगाली (1)

    विषय

    রাজেশ্বরৌ কথং সেবনীয়াবিত্যাহ ॥
    রাজা ও ঈশ্বরের কেমন সেবা করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (দেব) উত্তম গুণ-কর্ম-স্বভাবযুক্ত (অগ্নে) রাজন্ বা ঈশ্বর (তব) আপনার (ব্রতে) উত্তম নিয়মে বর্ত্তমান (মঘোনঃ) বহুধনযুক্ত আমাদের (তব) আপনার (পায়ুভিঃ) রক্ষাদি হেতু কর্ম্ম দ্বারা (ত্বম্) আপনি (রক্ষ) রক্ষা করুন (চ) এবং (নঃ) আমাদের (তন্বঃ) শরীরের রক্ষা করুন । হে (বন্দ্য) স্তুতিযোগ্য ভগবান্ ! যে কারণে আপনি (অনিমেষম্) নিরন্তর (রক্ষমাণঃ) রক্ষা করিয়া (তোকস্য) সন্তানপুত্র (তনয়ে) পৌত্র এবং (গবাম্) গৌ আদির (ত্রাতা) রক্ষক (অসি) আছেন, এইজন্য আপনি আমাদেরকে সর্বদা সৎকার এবং উপাসনার যোগ্য ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য ঈশ্বরের গুণকর্মস্বভাব সমূহ এবং আজ্ঞার অনুকূলতা দ্বারা বর্ত্তমান যাহার ঈশ্বর ও বিদ্বান্গণ নিরন্তর রক্ষা করিয়া থাকেন তাহারা লক্ষ্মী, দীর্ঘায়ু এবং সন্তান হইতে রহিত কখনও হয় না ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত্বং নো॑ऽঅগ্নে॒ তব॑ দেব পা॒য়ুভি॑র্ম॒ঘোনো॑ রক্ষ ত॒ন্ব᳖শ্চ বন্দ্য ।
    ত্রা॒তা তো॒কস্য॒ তন॑য়ে॒ গবা॑ম॒স্যনি॑মেষ॒ꣳ রক্ষ॑মাণ॒স্তব॑ ব্র॒তে ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত্বন্ন ইত্যস্য হিরণ্যস্তূপ আঙ্গিরস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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