यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 20
ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिग् बृहती
स्वरः - मध्यमः
3
नम॑स्ते॒ हर॑से शो॒चिषे॒ नम॑स्तेऽअस्त्व॒र्चिषे॑।अ॒न्याँस्ते॑ऽअ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳशि॒वो भ॑व॥२०॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑। ते॒। हर॑से। शो॒चिषे॑। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। अ॒र्चिषे॑ ॥ अ॒न्यान्। ते॒। अ॒स्मत्। त॒प॒न्तु॒। हे॒तयः॑। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽअस्त्वर्चिषे । अन्याँस्तेऽअस्मत्तपन्तु हेतयः पावको अस्मभ्यँ शिवो भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः। ते। हरसे। शोचिषे। नमः। ते। अस्तु। अर्चिषे॥ अन्यान्। ते। अस्मत्। तपन्तु। हेतयः। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥२०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरोपासनाविषयमाह॥
अन्वयः
हे भगवन्! हरसे शोचिषे ते नमो अर्चिषे ते नमोऽस्तु हेतयस्तेऽस्मदन्यांस्तपन्तु त्वमस्मभ्यं पावकः शिवो भव॥२०॥
पदार्थः
(नमः) (ते) तुभ्यम् (हरसे) हरति पापानि तस्मै (शोचिषे) प्रकाशाय (नमः) (ते) तुभ्यम् (अस्तु) (अर्चिषे) स्तुतिविषयाय (अन्यान्) (ते) (अस्मत्) (तपन्तु) (हेतयः) वज्र इव व्यवस्थाः (पावकः) पवित्रकर्त्ता (अस्मभ्यम्) (शिवः) कल्याणकारकः (भव)॥२०॥
भावार्थः
हे परमेश्वर! वयं भवच्छुभगुणकर्मस्वभावतुल्यानस्मद्गुणकर्मस्वभावान् कर्त्तुं ते नमस्कुर्मो निश्चितमिदं जानीमोऽधार्मिकाँस्ते शासनाः पीडयन्ति धार्मिकाँश्चानन्दयन्ति तस्मान्मङ्गलस्वरूपं भवन्तमेव वयमुपास्महे॥२०॥
हिन्दी (5)
विषय
अब ईश्वर की उपासना का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे भगवन् ईश्वर! (हरसे) पाप हरनेवाले (शोचिषे) प्रकाशक (ते) आपके लिये (नमः) नमस्कार तथा (अर्चिषे) स्तुति के योग्य (ते) आपके लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) प्राप्त होवे (ते) आपकी (हेतयः) वज्र के तुल्य अमिट व्यवस्था (अस्मत्) हमसे (अन्यान्) भिन्न अन्यायी शत्रुओं को (तपन्तु) दुःख देवें, आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (पावकः) पवित्रकर्त्ता (शिवः) कल्याणकारी (भव) हूजिये॥२०॥
भावार्थ
हे परमेश्वर! हम लोग आपके शुभ गुण, कर्म, स्वभावों के तुल्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव करने के लिये आपको नमस्कार करते हैं और यह निश्चित जानते हैं कि अधर्मियों को आपकी शिक्षा पीड़ा और धर्मात्माओं को आनन्दित करती है, इसलिये मङ्गलस्वरुप आपकी ही हम लोग उपासना करते हैं॥२०॥
पदार्थ
पदार्थ = ( हरसे ) = पापों को हरनेवाले ( शोचिषे ) = पवित्र करनेवाले और ( अर्चिषे ) = अर्चा, पूजा सत्कार करने योग्य आप परमात्मा को ( नमः ते नमः ते ) = बारम्बार हमारी नमस्कार ( अस्तु ) = हो। ( ते हेतयः ) = आपके वज्र ( अस्मत् अन्यान् ) = हमारे से भिन्न हमारे शत्रुओं दूसरों को ( तपन्तु ) = तपाते रहें। ( पावकः ) = पावन करनेवाले आप जगदीश्वर ( अस्मभ्यम् ) = हम सबके लिए ( शिवः भव ) = कल्याणकारी होवें।
भावार्थ
भावार्थ = हे दयामय परमात्मन्! आप अपने भक्तों के पापों और कष्टों को दूर करनेवाले, अर्थात् पापों से बचाते हुए उनके अन्तःकरण को पवित्र और तेजस्वी बनानेवाले हैं, आप भक्तवत्सल भगवान् को हमारा प्रणाम हो । हे दयामय जगदीश! ऐसा समय कभी न आवे की हम आपकी आज्ञा के विरुद्ध चलकर, आपकी कृपा के पात्र बनते हुए, सुख और कल्याण के भागी बनें ।
भावार्थ
व्याख्या देखो १७ । ११ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लोपामुद्रा । अग्निः । भुरिग् बृहती । मध्यमः ॥
विषय
रोग, लोभ व अज्ञान का लोप
पदार्थ
गतमन्त्र में दीर्घकाल तक प्रभु के सन्दर्शन में जीवन-यापन का उल्लेख था। ये प्रभु से कहते हैं। हरसे सब रोगों का हरण करनेवाले (ते) = तेरे लिए (नमः) = नमस्कार हो । संस्कृत में रोग का हरण करनेवाले वैद्य का नाम 'रोगहारी' है। वही 'हृ' धातु 'हरस्' शब्द में है। प्रभु के स्मरण से हम स्वादादि में नहीं फँसते, परिणामतः अधिक नहीं खाते और रोगों से बचे रहते हैं, एवं प्रभु सचमुच रोगों का हरण करनेवाले हैं । २. (शोचिषे) = [शुच् दीप्तौ] हमारे जीवनों को शुचि व दीप्त बनानेवाले (नम:) = आपके लिए नमस्कार है। प्रभु स्मरण हमारे शरीरों को नीरोग बनाता है तो प्रभु स्मरण से हमारे मन निर्मल व पवित्र होते हैं। प्रभु के सान्निध्य में हम पाप थोड़े ही करेंगे? वासना स्मर' है, तो प्रभु 'स्मरहर' हैं। जहाँ प्रभुस्मरण होता है वहाँ वासना का विनाश हो जाता है। ३. (अर्चिषे) = हमें ज्ञान की ज्वाला से देदीप्यमान करनेवाले (ते नमः) = तेरे लिए नमस्कार हो । प्रभु हमारे मस्तिष्कों को ज्ञान से दीप्त कर देते हैं। सम्पूर्ण ज्ञान के स्रोत वे प्रभु ही हैं। ४. वह व्यक्ति जो प्रभुकृपा से शरीर से नीरोग, मन से पवित्र तथा मस्तिष्क से दीप्त बना है, वह अब चाहता है कि (ते) = तेरी (हेतयः) = ज्ञानदीप्तियाँ (अस्मत्) = हमसे प्रवाहित होकर (अन्यान्) = दूसरों को भी (तपन्तु) = दीप्ति प्राप्त कराएँ। हम आपसे प्राप्त इन ज्ञान की किरणों को औरों तक पहुँचाएँ। ५. ब्रह्मचर्याश्रम में हम प्रभु को 'हरस्' के रूप में स्मरण करें और सोमशक्ति की ऊर्ध्वगति करके सब (रोगों का हरण व लोप करनेवाले) बनें। गृहस्थ में हमारा स्मरणीय प्रभु 'शोचिष्' है। वह हमारे मनों को शुचि बनाता है। ('योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिः') = [मनु] । धन की दृष्टि से शुचि व्यक्ति ही तो शुचि है। एवं प्रभु स्मरण हमारे मनों से (लोभ का लोप) करनेवाला हो । वानप्रस्थ में हमारा प्रभु 'अर्चिष्' हो जाता है। यह ज्ञान की ज्वाला से देदीप्यमान है। यह हमारे मस्तिष्क से अज्ञानान्धकार का लोप करता है। वानप्रस्थ तो ('स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्') = सदा स्वाध्याय में लगा होता है। इसके बाद संन्यास में यह अपने आराम आदि का त्याग कर प्रजा के अज्ञानान्धकर को लुप्त करने में लगा है, एवं इसका नाम ही 'रोग, लोभ व अज्ञान' को लुप्त करने के कारण 'लोपा' हो गया है। इसका चित्त इस रोग, लोभ व अज्ञान को लुप्त करके बड़ा प्रसन्न है, अतः वह 'मुद्रा' है। यह 'लोपामुद्रा' ही प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। ४. यह ऋषि प्रभु से प्रार्थना करता है कि (पावक:) = हे प्रभो! आप पवित्र करनेवाले हो । आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (शिवः) = कल्याण करनेवाले (भव) = होओ। 'लोपामुद्रा' अपने जीवन के निर्माण का ध्यान करता है और कल्याण के लिए याचना करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे शरीर नीरोग हों, मन शुचि हों, मस्तिष्क उज्ज्वल हों। हम सर्वत्र ज्ञान का प्रकाश फैलाएँ। प्रभु हमारा कल्याण करें।
मन्त्रार्थ
(पावक:-ते हरसे शोचिषे नमः) हे पवित्रकर्ता परमात्मन्! तेरे अज्ञान हरने वाले गुण के लिए स्वागत तथा ज्ञान प्रकाशक गुण के लिए स्वागत (ते-अचिषे नमः-अस्तु) तेरे अर्चनीय-स्तुत्य स्वरूप के लिए स्वागत (ते हेतयः-अस्मत्-अन्यान् तपन्तु) तेरे वज्रास्त्र हम से भिन्न पापियों को पीडित करे— करते हैं (अस्मभ्यं शिवः-भव) हमारे लिए शिव कल्याणकारी हो ॥२०॥
टिप्पणी
इतिः-मेघनाम ( निघ० १।१० )
विशेष
ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे परमेश्वरा ! तुझ्या गुण, कर्म, स्वभावानुसार आमचे गुण, कर्म, स्वभाव व्हावेत. यासाठी आम्ही तुला नमस्कार करतो व हे निश्चित जाणतो की, तुझी व्यवस्था अधार्मिक लोकांना दुःख देते आणि धार्मिक लोकांना आनंदी करते. म्हणून आम्ही कल्याणमय असणाऱ्या तुझी उपासना करतो.
विषय
ईश्वरोपासना विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे भगवन्, हे ईश्वर, (हरसे) पाप-हरण करणार्या आणि (शोचिषे) ज्ञानाचा प्रकाश करणार्या (ते) आपणासाठी (नमः) आमचे नमस्कार असोत. तसेच (अर्चिषे) सतुत्य वा स्तवनीय (ते) अशा आपणासाठी (नमः) नमस्कार (अस्तु) असोत. (ते) आपले जे (हेतयः) वज्राप्रमाणे दृढ व अपरिवर्तनीय व्यवस्था आहे. ती दंड व्यवस्था (अस्मत्) आम्हांपासून (अन्यान्) भिन्न वा विरोधी अशा अन्यायी शत्रूंना (तपन्तु) दंडित करो आपण (अस्मभ्यम्) आमच्यासाठी (आपकः) पवित्र कर्त्ता आणि (शिवः) कल्याणकारी (भव) व्हा. ॥20॥
भावार्थ
भावार्थ - हे परमेश्वर, आपल्या शुभ, गुण, कर्म आणि स्वभावाप्रमाणे आमचेही गुण, कर्म, स्वभाव व्हावेत, याकरिता आम्ही आपणास नमस्कार करतो. आमचा दृढ विश्वास आहे की अधर्मी लोकांना आपली व्यवस्था पीडा व दुःख देते आणि धर्मात्माजनांना आनंदित करते. अशा परम मंगलकारी स्वरूप असलेल्या आपली आम्ही उपासना करतो. ॥20॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Obeisance to God, the Queller of sins, the Source of light. Obeisance to God worthy of adoration. May thy punishments torment others. Be thou Purifier, and propitious unto us.
Meaning
Salutations to the Lord extinguisher of the passion and smoke of evil, to the blazing holy fire of sanctification! Homage be to the Lord of light adorable. May your flames burn up the evils other than our real selves. May the light and holy fire be good and kind to us.
Translation
Our homage be to your desiccation and to your glow. Our obeisance be to your illuminating light. May your weapons torment others than us. May you be purifier and gracious to us. (1)
Notes
Same as XII. 11.
बंगाली (2)
विषय
অথেশ্বরোপাসনাবিষয়মাহ ॥
এখন ঈশ্বরের উপাসনার বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে ভগবন্ ঈশ্বর ! (হরসে) পাপ হরণকারী (শোচিষে) প্রকাশক (তে) আপনার জন্য (নমঃ) নমস্কার তথা (অর্চিষে) স্তুতির যোগ্য (তে) আপনার জন্য (নমঃ) নমস্কার (অস্তু) প্রাপ্ত হউক (তে) আপনার (হেতয়ঃ) বজ্র তুল্য অবিনাশী ব্যবস্থা (অস্মৎ) আমাদের হইতে (অন্যান্) ভিন্ন অন্যায়ী শত্রুদিগকে (তপন্তু) দুঃখ দিবেন, আপনি (অস্মভ্যম্) আমাদের জন্য (পাবকঃ) পবিত্রকর্ত্তা (শিবঃ) কল্যাণকারী (ভব) হউন ॥ ২০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে পরমেশ্বর ! আমরা আপনার শুভ গুণ, কর্ম্ম, স্বভাবের তুল্য নিজের গুণ, কর্ম্ম, স্বভাব করিবার জন্য আপনাকে নমস্কার করি এবং ইহা নিশ্চিত জানি যে, অধর্মীদেরকে আপনার শিক্ষা পীড়া এবং ধর্মাত্মাদেরকে আনন্দিত করে । এইজন্য মঙ্গলস্বরূপ আপনারই আমরা উপাসনা করি ॥ ২০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
নম॑স্তে॒ হর॑সে শো॒চিষে॒ নম॑স্তেऽঅস্ত্ব॒র্চিষে॑ ।
অ॒ন্যাঁস্তে॑ऽঅ॒স্মত্ত॑পন্তু হে॒তয়ঃ॑ পাব॒কোऽঅ॒স্মভ্য॑ꣳশি॒বো ভ॑ব ॥ ২০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
নমস্তে হরস ইত্যস্য লোপামুদ্রা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
নমস্তে হরসে শোচিষে নমস্তে অস্তর্চিষে।
অন্যাঁস্তে অস্মত্তপন্তু হেতয়ঃ পাবকো অস্মভ্যং শিবো ভব।।২।।
(যজু ৩৬।২০)
পদার্থঃ (হরসে) পাপের হরণকারী, (শোচিষে) পবিত্রকারক, (অর্চিষে) অর্চনা, পূজা সৎকার যোগ্য পরমাত্মা, তোমার প্রতি (নমঃ তে নমঃ তে) বারংবার নমস্কার (অস্তু) জানাই। (তে হেতয়ঃ) তোমার শক্তিরূপ বজ্র, (অস্মৎ অন্যান্) আমাদের থেকে ভিন্ন আমাদের শত্রুদেরকে (তপন্তু) সন্তপ্ত করে থাকে। (পাবকঃ) হে পরিত্রাণকর্তা জগদীশ্বর! তুমি (অস্মভ্যম্) আমাদের সবার জন্য (শিবঃ ভব) কল্যাণকারী হও।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে দয়াময় পরমাত্মা! তুমি নিজের ভক্তদের পাপ এবং কষ্ট বিদারণকারী অর্থাৎ পাপ থেকে মুক্ত করে ভক্তদের অন্তঃকরণকে পবিত্র এবং তেজস্বী করো। হে মঙ্গলময় ভগবান! তোমাকে বারংবার নমস্কার করি। হে দয়াময় জগদীশ! এরকম সময় যেন কখনো না আসে যে, আমরা তোমার আজ্ঞার বিরুদ্ধে চলে দণ্ডের ভাগী হই। বরং আমরা যেন সর্বদা তোমার আজ্ঞার অনুকূলে চলে কৃপার পাত্র হয়ে সুখ এবং কল্যাণের ভাগী হতে পারি।।২।।
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे महावैद्य । सर्वरोगनाशकेश्वर ! चारकुना भएको नाभी स्थान [मर्मस्थान] ऋतस्य = ऋत [रस] ले भरिएको नैरोग्य र विज्ञान को स्थान सप्रथाः = तपाईंका कृपा ले सुखयुक्त होस्, तथा तपाईंका कृपाले विश्वायुः = पूर्ण आयु होस् । तपाईं जसरी सप्रथाः= सर्वसामर्थ्य ले विस्तीर्ण हुनु हुन्छ, तेसरी नै नः सर्वायुः सप्रथाः = विस्तृत सुखयुक्त विस्तार सहित हामीलाई सर्वायु दिनुहोस् । हे शान्तस्वरूप ! हामी अपद्वेषः= तपाईंका कृपा ले द्वेष रहित तथा अपह्वरः = कम्पन रहित हौं । तपाईंको आज्ञा र तपाईं भन्दा भिन्न लाई लेसमात्र पनि ईश्वर न मानौं । यही हाम्रो व्रत होस् अन्यव्रतस्य = यो भन्दा भिन्न अर्को व्रत लाई कहिल्यै न मानौं । तर तपाईंको मात्र सश्चिम सेवा गरौं । यही हाम्रो परम वा पक्का निश्चय छ यस परमनिश्चय लाई आफ्नो स्वकृपा ले रक्षा गर्नु होला | ॥४१॥
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