यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 28
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - प्रजा देवताः
छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
2
कार्षि॑रसि समु॒द्रस्य॒ त्वा क्षि॑त्या॒ऽउन्न॑यामि। समापो॑ऽअ॒द्भिर॑ग्मत॒ समोष॑धीभि॒रोष॑धीः॥२८॥
स्वर सहित पद पाठकार्षिः॑। अ॒सि॒। स॒मु॒द्रस्य॑। त्वा। अक्षि॑त्यै। उत्। न॒या॒मि॒। सम्। आपः॑। अ॒द्भिरित्य॒त्ऽभिः। अ॒ग्म॒त॒। सम्। ओष॑धीभिः। ओष॑धीः ॥२८॥
स्वर रहित मन्त्र
कार्षिरसि समुद्रस्य त्वाक्षित्या उन्नयामि । समापो अद्भिरग्मत समोषधीभिरोषधीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
कार्षिः। असि। समुद्रस्य। त्वा। अक्षित्यै। उत्। नयामि। सम्। आपः। अद्भिरित्यत्ऽभिः। अग्मत। सम्। ओषधीभिः। ओषधीः॥२८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथाध्यापको जनः प्रतिजनं किं किमुपदिशेदित्युच्यते॥
अन्वयः
हे वैश्यजन! त्वं कार्षिरसि त्वां समुद्रस्याक्षित्यै समुन्नयामि, सर्वे यूयं यज्ञशोधिताभिरद्भिरेवाप ओषधीभिरोषधीः समग्मत॥२८॥
पदार्थः
(कार्षिः) कर्षति हलेन भूमिमिति, इञ् वपादिभ्यः। (अष्टा॰भा॰वा॰३।३।१०८) इतीञ्। (असि) (समुद्रस्य) अन्तरिक्षस्य। समुद्र इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। (निघं॰१। ३) (त्वा) त्वाम् (अक्षित्यै) (उत्) उत्कृष्टे (नयामि) (सम्) (आपः) जलानि (अद्भिः) जलैरेव (अग्मत) प्राप्नुत, लोडर्थे लुङ्। (सम्) (ओषधीभिः) सोमादिभिः (ओषधीः)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ३। २६-३१) व्याख्यातः॥२८॥
भावार्थः
क्षेत्रादिभूमिषु नानौषधयो जायन्त, ओषधीभिरग्निहोत्रादयो यज्ञा, यज्ञैरन्तरिक्षं जलपरमाणुभिः पूर्णं भवतीति हेतोर्विद्वांसो निर्बुद्धिजनान् क्षेत्रादिषु नयन्ति, कुतस्ते विद्यामभ्यसितुं समर्था एव न भवन्तीति॥२८॥
विषयः
अथाध्यापको जनः प्रतिजनं किं किमुपदिशेदित्युच्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे वैश्यजन! त्वं कार्षिः कर्षति हलेन भूमिमिति असि। [त्वा]=त्वां समुद्रस्य अन्तरिक्षस्य अक्षित्यै सम्+उत्+नयामि उत्कृष्टतया नयामि। सर्वे यूयं यज्ञशोधिताभिः अद्भिः जलैः एव आपः जलानि ओषधीभिः सोमादिभि: औषधीः सोमादीन् सम्+अग्मत प्राप्नुत ।। ६। २८।। [सर्वे यूयं यज्ञशोधिताभिरद्भिरेवाप, ओषधीभिरोषधी: समग्मत]
पदार्थः
(कार्षि:) कर्षति हलेन भूमिमिति।इञ् वपादिभ्यः अ० ३।३।१०८॥ भा० वा०॥ इतीञ् (असि) (समुद्रस्य) अन्तरिक्षस्य। समुद्र इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ३ ॥ (त्वा) त्वाम् (अक्षित्यै) (उत्) उत्कृष्टे (नयामि) (सम्) (आपः) जलानि (अद्भिः) जलैरेव (अग्मत) प्राप्नुत लोडर्थे लुङ् (सम्) (ओषधीभिः) सोमादिभिः (ओषधी:) अयं मन्त्रः शत० ३। ९। ३। २६-३१ व्याख्यातः ॥ २८॥
भावार्थः
क्षेत्रादिभूमिषु नानौषधयो जायन्त,ओषधीभिरग्निहोत्रादयो यज्ञा, यज्ञैरन्तरिक्षं जलपरमाणुभिः पूर्णं भवतीति हेतोः-- [हे वैश्यजन! त्वं कार्षिरसि, [त्वा]=त्वां समुद्रस्याक्षित्यै समुन्नयामि] विद्वांसो निर्बुद्धिजनान् क्षेत्रादिषु नयन्ति, कुतस्ते विद्यामभ्यसितुं समर्था एव न भवन्तीति ।। ६। २८।।
विशेषः
मेधातिथि:। प्रजाः=स्पष्टम्।।निचृदार्ष्यनुष्टुप्। गान्धारः।।
हिन्दी (4)
विषय
अब अध्यापक जन प्रत्येक जन को क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे वैश्यजन! तू (कार्षिः) हल जोतने योग्य (असि) है (त्वा) तुझे (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष के (अक्षित्यै) परिपूर्ण होने के लिये (सम् उत् नयामि) अच्छे प्रकार उत्कर्ष देता हूं, तुम सब लोग (अद्भिः) यज्ञशोधित जलों से (आपः) जल और (ओषधीभिः) ओषधियों से (ओषधीः) ओषधियों को (सम् अग्मत) प्राप्त होओ॥२८॥
भावार्थ
क्षेत्र आदि स्थानों में अनेक ओषधियां उत्पन्न होती हैं, ओषधियों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ, यज्ञों से शुद्ध हुए जो जल के परमाणु ऊंचे होते हैं, उन से आकाश भरा रहता है। इस कारण विद्वान् लोग निर्बुद्धि जनों को खेती बारी ही के कामों में रखते हैं, क्योकि वे विद्या का अभ्यास करने को समर्थ ही नहीं होते हैं॥२७॥
विषय
वैश्यवर्ण व कृषि
पदार्थ
राष्ट्र की उन्नति के प्रसङ्ग में वैश्यवर्ण का उल्लेख करते हैं। वस्तुतः गत मन्त्र में वर्णित ‘कर’ इन्हें ही देना है। १. ( कार्षिः असि ) = तू कृषि करानेवाला है। राष्ट्र में ‘कृषिगोरक्ष- वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्’ = कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। वैश्यों ने शूद्रों = अपठित व्यक्तियों के द्वारा इन कृषि आदि कर्मों को कराना है।
२. सर्वोत्तम कृषि उस मेघ-जल द्वारा होती है जो मेघ ‘यज्ञात् भवति पर्जन्यः’ = यज्ञ से निर्मित होता है। राष्ट्र में यज्ञों की व्यवस्था ठीक होने पर बादल ठीक समय पर वर्षा करनेवाले होते हैं [ निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु ]। इन यज्ञों की व्यवस्था राजा को ही करनी है। यज्ञ न करनेवाले को राजा ने चोर के रूप में दण्ड देना है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि ( समुद्रस्य ) = अन्तरिक्षस्थ मेघ की ( क्षित्या ) = खेती से ( त्वा ) = तुझे ( उन्नयामि ) = उन्नत करता हूँ। भाषा में ऐसा ही बोलने का प्रकार है कि ‘यह कूएँ की खेती खड़ी है’ अर्थात् कूएँ के जल से उत्पन्न। इसी प्रकार यहाँ कहा है कि ‘समुद्र की खेती से’ अर्थात् [ समुद्रः = अन्तरिक्षस्थ मेघ ] मेघजल से उत्पन्न खेती से। ३. ( आपः ) = जल ( अद्भिः ) = जलों से ( सम् ) = सङ्गत हों और ( ओषधीः ) = ओषधियाँ ( ओषधीभिः ) = ओषधियों से ( सम् ) = सङ्गत हों, अर्थात् अवृष्टि के कारण जलों का विच्छेद न हो जाए और परिणामतः ओषधियों की उत्पत्ति में रुकावट न हो।
भावार्थ
भावार्थ — राष्ट्र में वैश्यवर्ण कृषि के कार्य में किसी प्रकार का शैथिल्य न आने दें। यज्ञों के परिणामरूप वृष्टि समय-समय पर होती रहे, जिससे ओषधियों व अन्नों की उत्पत्ति में कमी न आ जाए।
विषय
वैश्य प्रजा के कर्त्तव्य और गृहस्थ के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे वैश्यवर्ग ! तू ( कार्षिः असि ) समस्त भूमि पर कृषि कराने में समर्थ है। अथवा हे प्रजावर्ग ! और हे राजन् ! हे पुरुष ! ( कार्षिः ) परस्पर एक दूसरे को आकर्षण करने में समर्थ है । (त्वा) तुझको मैं परमेश्वर या राजा ( समुद्रस्य अक्षित्यै ) प्रजाओं के उत्पत्ति स्थान इस राष्ट्रवासी वर्तमान प्रजाओं का कभी नाश न होने देने के लिये ( उत्नयामि ) उच्च आसन पर बैठाता हूं । ( आपः अग्निः ) जल जिस प्रकार जलों से मिलकर एक होजाते हैं उस प्रकार प्रजाओं में स्त्रियें प्रेमपूर्वक पुरुषों को ( सम् अग्मत ) प्राप्त हो । ( ओषधीभिः ओषधीः सम् अस्मत ) जिस प्रकार ओषधियों से मिलकर अधिक गुणकारी और वीर्यवान् होजाती हैं उसी प्रकार तेजस्वी पुरुष तेजस्वी पुरुषों से एवं तेजस्वी पुरुष तेजस्विनी स्त्रियों से मिलें और अधिक तेजस्वी सन्तान उत्पन्न हो ।
इसी प्रकार गृहस्थ पक्ष में- हे पुरुष तू ( कार्षिः असि ) कृषक के समान अपनी सन्तति के खेती करने में समर्थ एवं स्त्री को अपने प्रति प्रेम से आकर्षण करनेहारा है । समुद्र =अर्थात् प्रजाओं के उग्रवरूप मानद समुद्र को नित्य बनाये रखने के लिये तुझे उन्नत पद देता हूँ । जलों में जैसे जल मिल जाएं उस प्रकार पुरुष स्त्रियों से प्रेमपूर्वक ही विवाहित होकर संगत हो । और ( ओषधीभिः ओषधीः ) जिस प्रकार एक गुण की ओषधियां परस्पर मिलकर अधिक वीर्य को उत्पन्न करती है उसी प्रकार बलवीर्य युक्त स्त्री पुरुष मिलकर अधिक गुणवान् सन्तति उत्पन्न करें ॥
शत० ३ । ७ । ३ । २६ । २७ ॥
टिप्पणी
२८ - आज्यम्, आपश्च देवताः । सर्वा० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजा देवताः । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
अब अध्यापक जन प्रत्येक जन को क्या-क्या उपदेश करे, यह वर्णन किया है॥
भाषार्थ
हे वैश्य जन! तू (कार्षिः) हल से भूमि को जोतने वाला (असि) है। [त्वा] तुझे (समुद्रस्य) आकाश को (अक्षित्यै) जल-परमाणुओं से पूर्ण करने के लिये (समुन्नयामि) उत्साहित करता हूँ। तुम सब यज्ञ से शुद्ध किये (अद्भिः) जलों से (आपः) जलों को तथा (ओषधीभिः) सोम आदि औषधियों के होम से (ओषधीः) सोम आदि औषधियों को (समग्मतः) प्राप्त करो ॥ ६ । २८ ॥
भावार्थ
खेतों आदि में नाना प्रकार की औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, औषधियों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ किये जाते हैं, यज्ञों से आकाश जल के परमाणुओं से परिपूर्ण हो जाता है। इसलिये— विद्वान् लोग निर्बुद्धि लोगों को खेतों आदि में ले जाते हैं। क्योंकि वे विद्याभ्यास करने में समर्थ ही नहीं होते ॥ ६ । २८ ॥
प्रमाणार्थ
(कार्षि:) यहाँ 'इञ् वपादिभ्यः (अ०३।३।१०८) इस भाष्य वार्त्तिक से 'इञ्' प्रत्यय है। (समुद्रस्य) अन्तरिक्षस्य।'समुद्र' शब्द निघं० ( १। ३) में अन्तरिक्ष-नामों में पढ़ा है। (अग्मत) प्राप्नुत। यहाँ लोट्-अर्थ में लुङ् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।३।२६-३१ ) में की गई है।। ६। २८॥
भाष्यसार
विद्वान् अध्यापक प्रत्येक जन को क्या-क्या उपदेश करे-- विद्वान् अध्यापक उपदेश करता है कि हे वैश्य ! तू हल से भूमि को जोतने वाला है। मैं तुझे आकाश को जल के परमाणुओं से परिपूर्ण करने के लिये शिक्षा करता हूँ। क्योंकि जल के बिना हल सफल नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक मनुष्य जलों को शुद्ध करने के लिए यज्ञ करे तथा यज्ञ से शुद्ध किये हुये जलों का ही उपयोग करे। सोम आदि औषधियों का यज्ञ में होम करे क्योंकि सोम आदि औषधियों के होम से वर्षा और शुद्ध वर्षा से सोम आदि दिव्य औषधियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार औषधियों से औषधियों को प्राप्त करें। ये औषधियाँ खेतों आदि में उत्पन्न होती हैं। इनसे अग्निहोत्र आदि यज्ञ किये जाते हैं। यज्ञ से आकाश जल के परमाणुओं से भर जाता है, जिससे वर्षा होती है। वर्षा से ही सब औषधियाँ पैदा होती हैं। खेतों आदि में औषधियों को उत्पन्न करने के लिये विद्वान् लोग निर्बुद्धि लोगों को ले जाते हैं क्योंकि वे निर्बुद्धि होने से विद्याभ्यास नहीं कर सकते ॥ ६ ।२८ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
शेतांमध्ये अनेक वृक्ष उत्पन्न होतात. त्या वृक्षांनी अग्निहोत्र वगैरे यज्ञ करता येतो. यज्ञाने शुद्ध झालेल्या जलाच्या परमाणूंनी आकाश व्यापलेले असते त्यामुळे विद्वान लोक बुद्धिहीन माणसांना शेतीच्या कामाला लावतात. कारण ते विद्या प्राप्त करू शकत नाहीत.
विषय
आता अध्यापकाने प्रत्येक माणसाला (नागरिक वा शिष्याला) काय उपदेश करावा, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे वैश्यजन, तू (कार्षिः) कृषी कर्म करण्यात कुशल वा नांगर धरण्यात निष्णात आहेस मी (त्वा) तुला (समुद्रस्य) अंतरिक्षाचा (अक्षित्यै) शोध घेऊन परिपूर्ण होण्यासाठी (उत् यामि) उत्तमप्रकारे उत्कर्ष वा प्रोत्साहन देत आहे. तुम्ही सर्व कृषकजन (अद्भिः) यज्ञाद्वारे शोधित जलापासून (आपः) जल प्राप्त करा (अशुद्ध वा अस्वच्छ पाणी कृषीसाठी वापरू नका) तसेच (औषधीभिः) औषधीपासून (शोध करीत अधिक उपयोगी) औषधी (सम्) (अग्मत) प्राप्त करा. ॥28॥
भावार्थ
भावार्थ - क्षेत्र म्हणते शेत व पर्वतादी स्थानांमधे अनेक प्रकारच्या औषधी उत्पन्न होतात. त्या औषदींद्वारे अग्निहात्रिादी यज्ञ केल्यास शुद्ध झालेले जल-परमाणू वर अंतरिक्षात थांबतात. तशा जल-परमाणूंनी आकाश भरलेले असते. विद्वज्जन (किंवा यज्ञाचे महत्त्व व गुण ओळखणारे याज्ञिकजन) निर्बुद्ध लोकांना शेती-भाती आदींच्या कामातच गुंतवतात, कारण ते विद्याभ्यास, अध्ययन आदीविषयी पूर्ण अज्ञानी असतात वा विद्याध्ययन करण्यास समर्थ नसतात (विद्वज्जन व याज्ञिक त्यांच्यासाठी, शेतीसाठी यज्ञ करतात) ॥28॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O farmer, thou art fit to c the land, I uplift thee for the purification of space. Get waters from waters, and medicinal plants from plants.
Meaning
You are the farmer. I exhort you to fill the sky with the vapours of water for the enrichment of the earth and the sea. With the oblations of herbs into the fire, get the herbs. With the oblations of water into the sky (through the fire) get the waters.
Translation
О sacrifice, you are the intiator of culture. (1) I enhance you so that ocean may never wane. (2) May the waters be united with waters and the plants with plants. (3)
Notes
Karsih, कर्षति य: स:, one who breaks the earth by ploughing; initiator.
बंगाली (1)
विषय
অথাধ্যাপকো জনঃ প্রতিজনং কিং কিমুপদিশেদিত্যুচ্যতে ॥
এখন অধ্যাপকগণ প্রত্যেককে কী কী উপদেশ করিবেন, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বৈশ্যজন ! তুমি (কার্ষিঃ) হল কর্ষণ করিবার যোগ্য (অসি) হও (ত্বা) তোমাকে (সমুদ্রস্য) অন্তরিক্ষের (অক্ষিত্যৈ) পরিপূর্ণ হইবার জন্য (সম্ উৎ নয়ামি) ভাল প্রকার উৎকর্ষ প্রদান করিতেছি । তোমরা সকল লোক (অদ্ভিঃ) যজ্ঞশোধিত জল দ্বারা (আপঃ) জল ও (ঔষধীভিঃ) ওষধি হইতে (ওষধীঃ) ওষধি সকল (সম্ অন্মত) প্রাপ্ত হও ॥ ২৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- ক্ষেত্রাদি স্থানে অনেক ওষধি উৎপন্ন হয়, ওষধি হইতে অগ্নিহোত্রাদি যজ্ঞ, যজ্ঞ হইতে শুদ্ধ জলের পরমাণু যা উর্দ্ধে উঠিয়া আকাশ পূর্ণ করে । এই কারণে বিদ্বান্গণ নির্বুদ্ধিগণকে কৃষি কর্মাদিতে নিযুক্ত করে কেননা তাহারা বিদ্যাভ্যাস করিতে সক্ষম হয় না ॥ ২৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
কার্ষি॑রসি সমু॒দ্রস্য॒ ত্বাऽক্ষি॑ত্যা॒ऽউন্ন॑য়ামি ।
সমাপো॑ऽঅ॒দ্ভির॑গ্মত॒ সমোষ॑ধীভি॒রোষ॑ধীঃ ॥ ২৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
কার্ষিরসীত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । প্রজা দেবতাঃ । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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