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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१
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    इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॒ वि मू॒र्धान॑मभिनदर्बु॒दस्य॑। अह॒न्नहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॑न्दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । म॒ह्ना । म॒ह॒त: । अ॒र्ण॒वस्य॑ । वि । मू॒र्धान॑म् । अ॒भि॒न॒त् । अ॒र्बु॒दस्य॑ ॥ अह॑न् । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । दे॒वै: । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । प्र । अ॒व॒त॒म् । न॒: ॥९१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मह्ना महतो अर्णवस्य वि मूर्धानमभिनदर्बुदस्य। अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धून्देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । मह्ना । महत: । अर्णवस्य । वि । मूर्धानम् । अभिनत् । अर्बुदस्य ॥ अहन् । अहिम् । अरिणात् । सप्त । सिन्धून् । देवै: । द्यावापृथिवी इति । प्र । अवतम् । न: ॥९१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (मह्ना) अपनी महिमा से (महतः) विशाल (अर्णवस्य) गतिवाले [वा जलवाले] (अर्बुदस्य) हिंसक [अथवा मेघ के समान अन्धकार करनेवाले वैरी] के (मूर्धानम्) शिर को (वि अभिनत्) तोड़ दिया है, वह [परमात्मा] (अहिम्) सब ओर चलनेवाले मेघ में (अहन्) व्यापा है, और उसने (सप्त) सात (सिन्धून्) बहते हुए समुद्रों [के समान भूर् आदि सात अवस्थावाले सब लोकों] को (अरिणात्) चलाया है, (द्यावापृथिवी) हे आकाश और भूमि ! (देवैः) उत्तम गुणों के साथ (नः) हमको (प्र अवतम्) दोनों बचालो ॥१२॥

    भावार्थ

    भूर्, भुवः आदि सात अवस्थाओं के लिये अ० २०।३४।३। देखो और मिलाओ। परमात्मा अपने अनन्त सामर्थ्य से बड़े-बड़े विघ्नों को हटाकर समस्त संसार की रक्षा करता है, उसी जगदीश्वर की कृपा से धर्मात्मा लोग बलवान् होकर दुष्टों को मिटाकर आनन्द पाते हैं ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(इन्द्रः) परमात्मा (मह्ना) महिम्ना। महत्त्वेन (महतः) विशालस्य (अर्णवस्य) गतियुक्तस्य उदकयुक्तस्य (वि) विशेषेण (मूर्धानम्) शिरः (अभिनत्) अच्छिनत् (अर्बुदस्य) अर्व गतौ हिंसायां च-उदच् प्रत्ययः। हिंसकस्य। मेघस्येव अन्धकारविस्तारकस्य शत्रोः (अहन्) व्याप्तवान् (अहिम्, अरिणात्, सप्त, सिन्धून्) एते व्याख्याताः-अ० २०।३४।३। (देवैः) उत्तमगुणैः (द्यावापृथिवी) हे आकाशभूमी (प्र) प्रकर्षेण (अवतम्) रक्षतम् (नः) अस्मान् ॥

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    विषय

    अर्बुद के मूर्धा का विभेदन

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (महतः अर्णवस्य) = महान् ज्ञानसमुद्र की (महा) = महिमा से (अर्बुदस्य) = वासनारूप मेघ के (मूर्धानम्) = शिखर को (वि अभिनद्) = विशेषरूप से विदीर्ण कर देता है। ज्ञान अल्प हो तो वासना से आवृत्त होकर समाप्त हो जाता है, परन्तु ज्ञानसमुद्र में वासना का ही विलय हो जाता है। प्रचण्ड ज्ञानाग्नि में वासना भस्म हो जाती है। २. यह इन्द्र अहिम ज्ञान को नष्ट करनेवाली वासना को (आहन्) = नष्ट कर देता है और (सप्त सिन्धूम्) = सप्तर्षियों से प्रवाहित होनेवाले सात ज्ञान नदियों को [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] (अरिणात्) = गतिमय करता है। वासना के विनाश से ज्ञान-प्रवाह ठीक से होने लगता है। इस ज्ञान का प्रवाह होने पर (द्यावापृथिवी) = ज्ञानदीप्त मस्तिष्करूप द्युलोक तथा दृढ़ शरीररूप पृथिवी-ये दोनों (देवै:) = दिव्यगुणों के द्वारा (न:) = हमें (प्रावतम्) = प्रकर्षेण रक्षित व प्रीणित करनेवाले हों। दीप्त मस्तिष्क व शरीर के दृढ़ होने पर हममें दिव्य गुणों का विकास हो। ज्ञान के अभाव में दिव्यगणों के विकास का प्रश्न ही नहीं पैदा होता और अस्वस्थ शरीर में भी चिड़चिड़ापन व क्रोध आदि की वृत्ति आ जाती है।

    भावार्थ

    ज्ञानवृद्धि से हम वासना का उन्मूलन करके ज्ञानप्रवाहों को और अधिक प्रवाहित करनेवाले हों। इसप्रकार स्वस्थ शरीर व दीस मस्तिष्क से हम दिव्यगुणों का विकास करें। यह ज्ञान की रुचिवाला 'प्रियमेध' अगले सूक्त में १-१५ तक मन्त्रों का ऋषि है। १६ २१ तक 'पुरुहन्मा' ऋषि है-अच्छी तरह वासनारूप शत्रुओं का हनन करनेवाला। प्रियमेध कहता है कि -

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर ने (मह्ना) निज महिमा से, सूर्य के ताप द्वारा (अर्बुदस्य) अम्बु अर्थात् जल के प्रदाता (महतः अर्णवस्य) महा-समुद्र के (मूर्धानम्) उपरि-स्तरों का (अभिनत्) छेदन-भेदन किया, और परिणाम में पैदा हुए (अहिम्) अन्तरिक्षगामी मेघ का (अहन्) हनन किया, तथा (सप्त सिन्धून्) सर्पण करती हुई नदियों को (अरिणात्) प्रवाहित किया। इस प्रकार (देवैः) दिव्यशक्तियों द्वारा (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (नः) हमारी (प्रावतम्) पूरी रक्षा करते हैं।

    टिप्पणी

    [अर्बुदस्य=अर्बुदः, अम्बुदः (निरु০ ३.२.१०)। अहिम्=मेघम्। अहिः अयनात्, एति अन्तरिक्षे (निरु০ २.५.१७)। सप्त=सर्पणात् (निरु০ ४.४.२७)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Indra with his might breaks the top of the great ocean of waters in space and, breaking the dark cloud, releases the seven seas and sets the rivers aflow. May the heaven and earth protect us by the divinities. Indra with his might breaks the top of the great ocean of waters in space and, breaking the dark cloud, releases the seven seas and sets the rivers aflow. May the heaven and earth protect us by the divinities. (The metaphor has been explained also as revelation of the Vedas in seven metres at the time of the creation of humanity. The revelation breaks through the darkness of ignorance and releases the light of knowledge to radiate in seven chhandas of the Vedas.) (The metaphor has been explained also as revelation of the Vedas in seven metres at the time of the creation of humanity. The revelation breaks through the darkness of ignorance and releases the light of knowledge to radiate in seven chhandas of the Vedas.)

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    Translation

    The sun with its power cleaves assunder the head (top) of the cloud retaining waters, smites the cloud and sets the flood of waters flow. May the earth and heaven become the sources of our protection with their wonderful operations,

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    Translation

    The sun with its power cleaves asunder the head (top) of the cloud retaining waters, smites the cloud and sets the flood of waters flow. May the earth and heaven become the sources of our protection with their wonderful operations.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(इन्द्रः) परमात्मा (मह्ना) महिम्ना। महत्त्वेन (महतः) विशालस्य (अर्णवस्य) गतियुक्तस्य उदकयुक्तस्य (वि) विशेषेण (मूर्धानम्) शिरः (अभिनत्) अच्छिनत् (अर्बुदस्य) अर्व गतौ हिंसायां च-उदच् प्रत्ययः। हिंसकस्य। मेघस्येव अन्धकारविस्तारकस्य शत्रोः (अहन्) व्याप्तवान् (अहिम्, अरिणात्, सप्त, सिन्धून्) एते व्याख्याताः-अ० २०।३४।३। (देवैः) उत्तमगुणैः (द्यावापृथिवी) हे आकाशभूमी (प्र) प्रकर्षेण (अवतम्) रक्षतम् (नः) अस्मान् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যযুক্ত পরমাত্মা] (মহ্না) নিজের মহিমা দ্বারা (মহতঃ) বিশাল (অর্ণবস্য) গতিযুক্ত [বা জলযুক্ত] (অর্বুদস্য) হিংসকের [অথবা মেঘের সমান অন্ধকার বিস্তারকারী শত্রুর] (মূর্ধানম্) শিরকে (বি অভিনৎ) ছিন্ন ভিন্ন করেছেন, সেই [পরমাত্মা] (অহিম্) সর্বত্র চলনশক্তি সম্পন্ন মেঘে (অহন্) ব্যাপ্ত এবং (সপ্ত) সপ্ত (সিন্ধূন্) প্রবাহমান সমুদ্র [এর সমান ভূর্ আদি সপ্ত অবস্থাযুক্ত সকল লোকসমূহকে] (অরিণাৎ) চালনা/নিয়ন্ত্রণ করেছেন, (দ্যাবাপৃথিবী) হে আকাশ ও ভূমি ! (দেবৈঃ) উত্তম গুণের সহিত (নঃ) আমাদের (প্র অবতম্) প্রকর্ষরূপে রক্ষা করো॥১২॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা নিজের অনন্ত সামর্থ্য দ্বারা বিশাল বিশাল বিঘ্ন দূর করে সমস্ত সংসারের রক্ষা করেন, সেই প্রসিদ্ধ জগদীশ্বরের কৃপায় ধর্মাত্মাগণ বলবান্ হয়ে দুষ্টদের দমন করে আনন্দ প্রাপ্ত করে ॥১২॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (মহ্না) নিজ মহিমা দ্বারা, সূর্যের তাপ দ্বারা (অর্বুদস্য) অম্বু অর্থাৎ জল প্রদাতা (মহতঃ অর্ণবস্য) মহা-সমুদ্রের (মূর্ধানম্) উপরি-স্তরের (অভিনৎ) ছেদন-ভেদন করেছেন, এবং পরিণামস্বরূপ উৎপন্ন (অহিম্) অন্তরিক্ষগামী মেঘের (অহন্) হনন করেছেন, তথা (সপ্ত সিন্ধূন্) সর্পণকারী নদী-সমূহকে (অরিণাৎ) প্রবাহিত করেছেন। এইভাবে (দেবৈঃ) দিব্যশক্তি দ্বারা (দ্যাবাপৃথিবী) দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোক (নঃ) আমাদের (প্রাবতম্) পূর্ণরূপে রক্ষা করে।

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