अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑। बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व: । द्वाभ्या॑म् । प॒र: । एक॑या । गा: । गुहा॑ । तिष्ठ॑न्ती: । अनृ॑तस्य । सेतौ॑ । बृह॒स्पति॑: । तम॑सि । ज्योति॑: । इ॒च्छन् । उत् । उ॒स्रा: । आ । अ॒क॒: । वि । हि । ति॒स्र: । आव॒रित्याथ॑: ॥९१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अवो द्वाभ्यां पर एकया गा गुहा तिष्ठन्तीरनृतस्य सेतौ। बृहस्पतिस्तमसि ज्योतिरिच्छन्नुदुस्रा आकर्वि हि तिस्र आवः ॥
स्वर रहित पद पाठअव: । द्वाभ्याम् । पर: । एकया । गा: । गुहा । तिष्ठन्ती: । अनृतस्य । सेतौ । बृहस्पति: । तमसि । ज्योति: । इच्छन् । उत् । उस्रा: । आ । अक: । वि । हि । तिस्र: । आवरित्याथ: ॥९१.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(तमसि) अन्धकार के बीच (ज्योतिः) प्रकाश (इच्छन्) चाहता हुआ (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों का स्वामी परमेश्वर] (द्वाभ्याम्) दोनों [प्रलय और सृष्टि की अवस्थाओं] से और (एकया) एक [स्थिति की अवस्था] से (अनृतस्य) असत्य [अज्ञान] के (सेतौ) बन्धन में (गुहा) गुहा [गुप्त वा अज्ञान दशा] के बीच (अवः) नीचे और (परः) ऊपर (तिष्ठन्तीः) ठहरी हुई (गाः) वेदवाणियों को और (तिस्रः) तीनों (उस्राः) [सूर्य, अग्नि और बिजुली रूप] प्रकाशों को (हि) निश्चय करके (उत्) उत्तम रीति से (आ अकः) आकार में लाया और (वि आवः) प्रकट किया ॥४॥
भावार्थ
जो पदार्थ प्रलय, सृष्टि और स्थिति के अनादि चक्र से प्रलय की अवस्था में सूक्ष्मरूप से रहते हैं, वे परमात्मा की इच्छा से आकार पाकर संसार में प्रकट होते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(अवः) अवस्तात्। नीचैः (द्वाभ्याम्) द्वित्वयुक्ताभ्यां प्रलयसृष्ट्यवस्थाभ्याम् (परः) परस्तात्। उच्चैः (एकया) एकत्वयुक्तया स्थित्यवस्थया (गाः) वेदवाणीः (गुहा) गुहायाम्। अज्ञातदशायाम् (तिष्ठन्तीः) वर्तमानाः (अनृतस्य) असत्यस्य। अज्ञानस्य (सेतौ) बन्धे (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामी परमेश्वरः (तमसि) अन्धकारे। प्रलये (ज्योतिः) प्रकाशम् (इच्छन्) कामयमानः (उत्) उत्तमत्तया (उस्राः) वस निवासे-रक्। उस्रा रश्मिनाम-निघ० १।। सूर्याग्निविद्युद्रूपप्रकाशान् (आ अकः) आकारे कृतवान् (हि) निश्चयेन (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (वि आवः) वृणोतेर्लुङि मन्त्रे घसेति च्लेर्लुक्। बहुलं छन्दसीत्यडागमः। विवृत्तवान्। प्रकाशितवान् ॥
विषय
एक, दो व तीन
पदार्थ
१. (बृहस्पति:) = ज्ञान का पति यह विद्वान् (द्वाभ्याम् अव उ) = काम, क्रोधरूप दोनों शत्रुओं से दूर ही रहता है। काम, क्रोध से दूर होकर (एकया) = अद्वितीय वेदवाणी से यह (पर:) = उत्कृष्ट जीवनवाला बनता है। २. ज्ञान-प्राति से पूर्व (गुहा तिष्ठन्ती:) = अज्ञानान्काररूप गुहा में ठहरी हुई और अतएव (अन्तस्य सेतौ) [तिष्ठन्ती:] = अन्त के बन्धन में पड़ी हुई (गा:) = इन्द्रियों को (उद् आव:) = अज्ञानान्धकार से बाहर करता है। ज्ञान प्राप्त करने पर इसकी इन्द्रियाँ विषयों में ही नहीं फंसी रहती। २. (बृहस्पति:) = यह ज्ञान की वाणी का पति बनता है। (तमसि) = इस संसार के विषयान्धकार में (ज्योतिः इच्छन्) = यहाँ आत्मप्रकाश की प्राप्ति की इच्छा करता है। इसी उद्देश्य से (उस्त्रा:) = ज्ञान की किरणों को [उद् आव:] अपने जीवन में प्रमुख स्थान प्राप्त कराता है। ज्ञानविरोधी किसी भी व्यवहार को यह नहीं करता। इसप्रकार (हि) = निश्चय से (तिस्त्र:) = तीनों ज्योतियों को (वि आव:) = विशेषरूप से प्रकट करता है। 'त्रीणि ज्योतींषि सचेत स षोडशी' इस मन्त्रभाग में इन्हीं तीन ज्योतियों का संकेत है। शरीर में ये ज्योतियौं तेजस्विता [अग्नि], आहाद [चन्द्र] व ज्ञान [सूर्य] के रूप में हैं। यह बृहस्पति शरीर में तेजस्वितावाला होता है, मन में आहादमय तथा मस्तिष्क में ज्ञानरूप सूर्यवाला होता है।
भावार्थ
हम काम, क्रोध से दूर हो, वेदवाणी के द्वारा उत्कृष्ट जीवनवाले बनें तथा 'तेजस्विता, आहाद व ज्ञान' रूप ज्योतियों को अपने में जगाएँ।
भाषार्थ
(परः) परस्तात्-पर अर्थात् सर्वादिशक्ति (अवः) अवस्तात्-पश्चात् अर्थात् सर्ग के बाद प्रलयकाल में भी रहने वाले बृहस्पति ने, (अनृतस्य)अनृतरूप अर्थात् अनित्य जगत् के (सेतौ) सेतुरूप स्वाश्रय में (गुहा तिष्ठन्तीः) छिपी बैठी (गाः) वेदवाणियों को, (द्वाभ्याम्) दो अर्थात् पद्य और गीति रूपी रचनाओं द्वारा, तथा (एकया) एक अर्थात् गद्यमयी रचना द्वारा, (वि आ अकः) व्याकृत किया, प्रकट किया। (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्डपति ने (तमसि) तमोरूप पार्थिव जगत् में (ज्योतिः) ज्ञान-ज्योति (इच्छन्) चाहते हुए, (उस्राः) सूर्यरश्मिवत् प्रकाश देनेवाली (तिस्रः) तीन रचनाओं का (वि आवः) आविर्भाव किया।
टिप्पणी
[परः=अव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा, सा परा गतिः (कठ০ ३.११)। अव:=अ (अट्) + वृ आवरण। मन्त्र के चतुर्थपाद से "वि" ओर "आ" का अन्वय होता है। पद्यरचना और गीतिरचना का परस्पर सम्बन्ध है। पद्यरचना पर ही गीतिरचना अवलम्बित है, “ऋच्यधिरूढं साम गीयते”। तथा “ऋक्सामाभ्याम्” इस वैदिक समस्त पद द्वारा भी ऋक् अर्थात् पद्यरचना और साम अर्थात् गीतिरचना का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया गया है। इसलिए मन्त्र में “द्वाभ्याम्” द्वारा ऋक् और साम का या पद्य और गीति का वर्णन हुआ है, और “एकया” द्वारा गद्यरचना का निर्देश किया है। तथा इन्हीं तीन रचनाओं को मन्त्र के चतुर्थपाद में “तिस्रः” पद द्वारा निर्दिष्ट किया है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Brhaspati, master of language, wishing for the light of knowledge and expression in the midst of the darkness of the web of the world of mutability, expresses the two upper levels of language, i.e., madhyama and vaikhari, which he expresses by two media of thought and word, and the one hidden below, i.e., Pashyanti, he apprehends through one, the deeper mind in meditation. Thus he reveals the three modes of language. (The fourth is Para, the silent mode of language in its originality beyond the world of mutability which can be realised in the highest state of Samadhi.) Brhaspati, master of language, wishing for the light of knowledge and expression in the midst of the darkness of the web of the world of mutability, expresses the two upper levels of language, i.e., madhyama and vaikhari, which he expresses by two media of thought and word, and the one hidden below, i.e., Pashyanti, he apprehends through one, the deeper mind in meditation. Thus he reveals the three modes of language. (The fourth is Para, the silent mode of language in its originality beyond the world of mutability which can be realised in the highest state of Samadhi.)
Translation
The master of vedic knowledge and speech makes apparent the kind of speeches (known, as para, pashyanti and Madhyama) which rest hidden in the races of heart, below the mouth and throat and away from the waiste in the bond of the darkness of ignorance. He desiring to create light in the darkness spread the beams of light and manifests these three.
Translation
The master of vedic knowledge and speech makes apparent the kind of speeches (known as para, pashyanti and Madhyama) which rest hidden in the races of heart, below the mouth and throat and away from the waiste in the bond of the darkness of ignorance. He desiring to create light in the darkness spread the beams of light and manifests these three.
Translation
Thus the Yogi of vast spiritual power, through the cultivation of deep meditation, i.e., smadhi, thoroughly shatter the down-faced fort of conscience, completely cuts off simultaneously all the three circles of spiritual impediments through ‘Dharm-megha’ state and finally realizes his real-self attaining‘Vishoka-Prajya’ i.e., state of supreme splendor and glory, Vedic light, and perfectly luminous state of the Sun, worth adoration, just as thundering lightning reveals and illumines the heavens.
Footnote
Three impediments, of ignorance, sin and mental agitation ‘Apachim-Puram*—is not ‘Western Castle’ but refers to the downward propensities of nature of the soul, forming a prison-house for him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अवः) अवस्तात्। नीचैः (द्वाभ्याम्) द्वित्वयुक्ताभ्यां प्रलयसृष्ट्यवस्थाभ्याम् (परः) परस्तात्। उच्चैः (एकया) एकत्वयुक्तया स्थित्यवस्थया (गाः) वेदवाणीः (गुहा) गुहायाम्। अज्ञातदशायाम् (तिष्ठन्तीः) वर्तमानाः (अनृतस्य) असत्यस्य। अज्ञानस्य (सेतौ) बन्धे (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामी परमेश्वरः (तमसि) अन्धकारे। प्रलये (ज्योतिः) प्रकाशम् (इच्छन्) कामयमानः (उत्) उत्तमत्तया (उस्राः) वस निवासे-रक्। उस्रा रश्मिनाम-निघ० १।। सूर्याग्निविद्युद्रूपप्रकाशान् (आ अकः) आकारे कृतवान् (हि) निश्चयेन (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (वि आवः) वृणोतेर्लुङि मन्त्रे घसेति च्लेर्लुक्। बहुलं छन्दसीत्यडागमः। विवृत्तवान्। प्रकाशितवान् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমাত্মগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(তমসি) অন্ধকারে/প্রলয়ে (জ্যোতিঃ) প্রকাশ (ইচ্ছন্) অভিলাষী (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [বৃহৎ ব্রহ্মাণ্ডের স্বামী পরমেশ্বর] (দ্বাভ্যাম্) দ্বিবিধ অবস্থা [প্রলয়-সৃজন অবস্থায়] এবং (একয়া) এক [স্থিত অবস্থায়] (অনৃতস্য) অসত্যের [অজ্ঞানের] (সেতৌ) বন্ধনে (গুহা) গুহা [গুপ্ত বা অজ্ঞান দশার] মধ্যবর্তী/মাঝে (অবঃ) নীচে এবং (পরঃ) ঊর্ধ্বে (তিষ্ঠন্তীঃ) বর্তমান হয়ে, (গাঃ) বেদবাণী এবং (তিস্রঃ) ত্রিবিধ (উস্রাঃ) [সূর্য, অগ্নি ও বিদ্যুৎ রূপ] প্রকাশকে (হি) নিশ্চিতরূপে (উৎ) উত্তম রীতি দ্বারা (আ অকঃ) আকার রূপ দিয়েছেন এবং (বি আবঃ) প্রকট করেছেন ॥৪॥
भावार्थ
যে পদার্থ প্রলয়, সৃষ্টি ও স্থিতির অনাদি চক্রে প্রলয়ের অবস্থায় সূক্ষ্মরূপে অস্তিত্বমান, তা পরমাত্মার ইচ্ছায় আকার পেয়ে সংসারে প্রকট হয় ॥৪॥
भाषार्थ
(পরঃ) পরস্তাৎ-পর অর্থাৎ সর্বাদিশক্তি (অবঃ) অবস্তাৎ-পশ্চাৎ অর্থাৎ সর্গ/সৃষ্টির পর প্রলয়কালেও বর্তমান/বিদ্যমান বৃহস্পতি, (অনৃতস্য) অনৃতরূপ অর্থাৎ অনিত্য জগতের (সেতৌ) সেতুরূপ স্বাশ্রয়ে (গুহা তিষ্ঠন্তীঃ) নিহিত থাকা (গাঃ) বেদবাণীকে, (দ্বাভ্যাম্) দুই অর্থাৎ পদ্য এবং গীতি রূপী রচনা দ্বারা, তথা (একয়া) এক অর্থাৎ গদ্যময়ী রচনা দ্বারা, (বি আ অকঃ) ব্যাকৃত করেছে, প্রকট করেছে। (বৃহস্পতিঃ) মহাব্রহ্মাণ্ডপতি (তমসি) তমোরূপ পার্থিব জগতে (জ্যোতিঃ) জ্ঞান-জ্যোতি (ইচ্ছন্) কামনা করে, (উস্রাঃ) সূর্যরশ্মিবৎ প্রকাশ প্রদানকারী (তিস্রঃ) তিন রচনার (বি আবঃ) আবির্ভাব করেছেন।
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