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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१
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    ते स॒त्येन॒ मन॑सा॒ गोप॑तिं॒ गा इ॑या॒नास॑ इषणयन्त धी॒भिः। बृह॒स्पति॑र्मिथोअवद्यपेभि॒रुदु॒स्रिया॑ असृजत स्व॒युग्भिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । स॒त्येन । धी॒भि: ॥ मनसा । गोऽपतिम् । गा: । इ॒या॒नास: । इ॒ष॒ण॒य॒न्त॒ । धी॒भि: ॥ बृह॒स्पति॑: । मि॒थ:ऽअवद्यपेभि: । उत् । उ॒स्रिया॑: । अ॒सृ॒ज॒त॒ । स्व॒युक्ऽभि॑: ॥९१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते सत्येन मनसा गोपतिं गा इयानास इषणयन्त धीभिः। बृहस्पतिर्मिथोअवद्यपेभिरुदुस्रिया असृजत स्वयुग्भिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । सत्येन । धीभि: ॥ मनसा । गोऽपतिम् । गा: । इयानास: । इषणयन्त । धीभि: ॥ बृहस्पति: । मिथ:ऽअवद्यपेभि: । उत् । उस्रिया: । असृजत । स्वयुक्ऽभि: ॥९१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सत्येन) सच्चे (मनसा) मन से (धीभिः) कर्मों द्वारा (गाः) वेदवाणियों को (इयानासः) पा लेनेवाले (ते) उन [विद्वानों] ने (गोपतिम्) वेदवाणी के स्वामी [परमात्मा] को (इषणयन्त) खोजा है, [कि] (बृहस्पतिः) उस बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमात्मा] ने (उस्रियाः) निवास करनेवाली प्रजाओं को (मिथोअवद्यपेभिः) आपस में पाप से बचानेवाले (स्वयुग्भिः) आत्मा के साथी कर्मों से (उत्) उत्तम रीति पर (असृजत) सृजा है ॥८॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग वेदवाणी द्वारा उत्तम-उत्तम कर्म करके परमात्मा को खोजते हैं कि उसने मनुष्य आदि सृष्टि को उनके पूर्व जन्मों के कर्मफलों के अनुसार उत्पन्न किया है ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(ते) विद्वांसः (सत्येन) यथार्थेन (मनसा) चित्तेन (गोपतिम्) वेदवाणीस्वामिनम् (गाः) वेदवाणीः (इयानासः) इण् गतौ-कानच्, असुक्, च। प्राप्तवन्तः (इषणयन्त) इषु इच्छायाम्-क्यु। तत् करोति तदाचष्टे। वा० पा० ३।१।२६। इषण्-णिच्, लङ्, अडभावः। इषणमिच्छां कृतवन्तः (धीभिः) कर्मभिः (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामी (मिथोअवद्यपेभिः) पातेः कप्रत्ययः। मिथः परस्परम् अवद्याद् निन्द्यात् पापाद् रक्षकैः (उत्) उत्तमतया (उस्रियाः) अ० २०।१६।६। निवासशीलाः प्रजाः (असृजत) अजनयत् (स्वयुग्भिः) युजिर् योगे-क्विप्। स्वेन आत्मना सह युक्तैः कर्मभिः ॥

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    विषय

    'अवद्यम स्वयुक्' इन्द्रियाँ

    पदार्थ

    १. (ते) = वे (सत्येन मनसा) = सच्चे दिल से (गोपतिम्) = सब इन्द्रियों के स्वामी प्रभु को तथा (गा:) = इन्द्रियों को (इयानास:) = प्राप्त करने के लिए जाते हुए [अभिगच्छन्तः] (धीभि:) = ज्ञानयुक्त कर्मों से (इषणयन्त) = उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। जब हममें किसी पदार्थ के प्राप्त करने की सच्ची कामना होती है तभी हम उसे प्राप्त कर पाते हैं। ज्ञानयुक्त कर्मों से जहाँ हम इन इन्द्रियों को प्रास करते हैं, वहाँ इन्द्रियों के स्वामी प्रभु को भी प्राप्त करनेवाले होते हैं। २. (बृहस्पति:) = वह ज्ञानी पुरुष (मिथ:) = आपस में (अवद्यपेभि:) = अशुभ से एक-दूसरे से बचानेवाली (स्वयुग्भिः) = आत्मतत्त्व से मेल करानेवाली ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों से (उस्त्रिया:) = प्रकाश की किरणों को (उत्) = उत्कर्षेण (असुजत) = उत्पन्न करता है। ३. कर्मेन्द्रियाँ कर्म द्वार ज्ञान-प्राति में सहायक होती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान के द्वारा कर्मों को पवित्र करती हैं। इसप्रकार ये एक-दूसरे को अपवित्रता से बचाए रखती हैं। अपवित्रता से अपने को बचाकर ये आत्मा के साथ हमारा मेल करानेवाली होती हैं। इन इन्द्रियों से ही प्रकाश की किरणों की सृष्टि होती है।

    भावार्थ

    हममें प्रभु-प्राप्ति व इन्द्रिय-विजय की सच्ची कामना हो। हम ज्ञानेन्द्रियों को सुरक्षित करते हुए प्रकाशमय जीवनवाले हों।

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    भाषार्थ

    (ते) उन उपासक-सखाओं ने (गाः) वेदवाणियों को प्राप्त करने की (इषणयन्त) इच्छा की, और (सत्येन मनसा) सच्चे मन से की गई (धीभिः) ध्यानविधियों द्वारा उन्होंने (गोपतिम्) वेदवाणियों के पति से (गाः) वेदवाणियों को (इयानासः) प्राप्त किया। और (बृहस्पतिः) महावाणियों के पति ने, (स्वयुग्भिः) अपने में योगयुक्त, तथा (अवद्यपेभिः) अकथनीय आनन्दरस का पान करनेवाले उपासक-सखाओं द्वारा, (उस्रियाः) सूर्यरश्मियों के सदृश ज्ञानप्रकाशवाली वेदवाणियों को (मिथः) एक साथ, (उद् असृजत) प्रकट कर दिया।

    टिप्पणी

    [धीभिः—धी का अर्थ प्रज्ञा और कर्म भी है। प्रसङ्गानुसार यहाँ “प्रज्ञा” का अभिप्राय योगविधि द्वारा प्राप्त प्रज्ञा है, और “कर्म” का अभिप्रायः योगोपयोगी कर्मों से है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    They, friends and associates, with dedication to truth and with honest mind, intentions, thoughts and actions, wishing to promote the cows, i.e., the wealth and culture of the nation as a system, approach the ‘gopati’, i.e., the head of the commonwealth, and he, Brhaspati, master, protector and ruler of the expansive system, together with his associates at his full command, with safeguards against negativity, scandal and calamity, creates and organises a nation of freedom and progress ranging over the earth in peace and joy. They, friends and associates, with dedication to truth and with honest mind, intentions, thoughts and actions, wishing to promote the cows, i.e., the wealth and culture of the nation as a system, approach the ‘gopati’, i.e., the head of the commonwealth, and he, Brhaspati, master, protector and ruler of the expansive system, together with his associates at his full command, with safeguards against negativity, scandal and calamity, creates and organises a nation of freedom and progress ranging over the earth in peace and joy.

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    Translation

    These Maruts (the atmosperic winds) restoring the rays of sun with true force and fend to make the sun restored of rays. The sun through the cooperating Maruts protecting each other from obstructive clouds restore out the rays of it the sun.

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    Translation

    These Maruts (the atmospheric winds) restoring the rays of sun with true force and tend to make the sun restored of rays. The sun through the cooperating Maruts protecting each other from obstructive clouds restore out the rays of it the sun.

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    Translation

    Exalting, by Peaceful praises. Him, the Lord of the Vast Universe or theyogi of high spiritual glory, roaring like a lion, in His universe or body, powerful showerer of blessings and Victorious like a commander in every warand the display, of spirit of daring and adventure, let us rejoice after Him or him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(ते) विद्वांसः (सत्येन) यथार्थेन (मनसा) चित्तेन (गोपतिम्) वेदवाणीस्वामिनम् (गाः) वेदवाणीः (इयानासः) इण् गतौ-कानच्, असुक्, च। प्राप्तवन्तः (इषणयन्त) इषु इच्छायाम्-क्यु। तत् करोति तदाचष्टे। वा० पा० ३।१।२६। इषण्-णिच्, लङ्, अडभावः। इषणमिच्छां कृतवन्तः (धीभिः) कर्मभिः (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामी (मिथोअवद्यपेभिः) पातेः कप्रत्ययः। मिथः परस्परम् अवद्याद् निन्द्यात् पापाद् रक्षकैः (उत्) उत्तमतया (उस्रियाः) अ० २०।१६।६। निवासशीलाः प्रजाः (असृजत) अजनयत् (स्वयुग्भिः) युजिर् योगे-क्विप्। स्वेन आत्मना सह युक्तैः कर्मभिः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সত্যেন) সত্য বা যথার্থ (মনসা) চিত্তে (ধীভিঃ) পরিশ্রম/কর্ম দ্বারা (গাঃ) বেদবাণীকে (ইয়ানাসঃ) প্রাপ্তকারী (তে) সেই [বিদ্বানগণ] (গোপতিম্) বেদবাণীর স্বামী [পরমাত্মা] কে (ইষণয়ন্ত) অন্বেষণ করেছে যে, (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [বৃহৎ ব্রহ্মাণ্ডের স্বামী পরমাত্মা] (উস্রিয়াঃ) নিবাসী প্রজাদের (মিথোঅবদ্যপেভিঃ) পরস্পরকে পাপ থেকে রক্ষাকারী (স্বয়ুগ্ভিঃ) আত্মার সঙ্গী কর্ম অনুসারে (উৎ) উত্তম রীতিতে (অসৃজত) সৃজন করেছেন॥৮॥

    भावार्थ

    বিদ্বানগণ বেদবাণী দ্বারা উত্তম-উত্তম কর্ম করে পরমাত্মাকে অনুসন্ধান করে এবং অনুসন্ধান পূর্বক জ্ঞাত হয় যে, পরমাত্মা মনুষ্য আদি সৃষ্টিকে তাদের পূর্ব জন্মের কর্মফল অনুসারে সৃজন করেছেন ॥৮॥

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    भाषार्थ

    (তে) সেই উপাসক-সখাগণ (গাঃ) বেদবাণী প্রাপ্ত করার (ইষণয়ন্ত) ইচ্ছার, এবং (সত্যেন মনসা) সত্য মন থেকে কৃত (ধীভিঃ) ধ্যানবিধির দ্বারা তাঁরা (গোপতিম্) বেদবাণীর পতি থেকে (গাঃ) বেদবাণী (ইয়ানাসঃ) প্রাপ্ত করেছে। এবং (বৃহস্পতিঃ) মহাবাণীর পতি, (স্বয়ুগ্ভিঃ) নিজের মধ্যে যোগযুক্ত, তথা (অবদ্যপেভিঃ) অকথনীয় আনন্দরসের পানকারী উপাসক-সখাদের দ্বারা, (উস্রিয়াঃ) সূর্যরশ্মির সদৃশ জ্ঞানপ্রকাশযুক্ত বেদবাণী (মিথঃ) এক সাথে, (উদ্ অসৃজত) প্রকট করেছেন।

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