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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१
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    इन्द्रो॑ व॒लं र॑क्षि॒तारं॒ दुघा॑नां क॒रेणे॑व॒ वि च॑कर्ता॒ रवे॑ण। स्वेदा॑ञ्जिभिरा॒शिर॑मि॒च्छमा॒नोऽरो॑दयत्प॒णिमा गा अ॑मुष्णात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । व॒लम् । र॒क्षि॒तार॑म् । दुघा॑नाम् । क॒रेण॑ऽइव । वि । च॒क॒र्त॒ । रवे॑ण ॥ स्वेदा॑ञ्जिऽभि: । आ॒ऽशिर॑म् । इ॒च्छमान: । अरो॑दयत् । प॒णिम् । आ । गा: । अ॒मु॒ष्णा॒त् ॥९१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघानां करेणेव वि चकर्ता रवेण। स्वेदाञ्जिभिराशिरमिच्छमानोऽरोदयत्पणिमा गा अमुष्णात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । वलम् । रक्षितारम् । दुघानाम् । करेणऽइव । वि । चकर्त । रवेण ॥ स्वेदाञ्जिऽभि: । आऽशिरम् । इच्छमान: । अरोदयत् । पणिम् । आ । गा: । अमुष्णात् ॥९१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] ने (दुघानाम्) पूर्तियों के (रक्षितारम्) रखलेनेवाले [रोकनेवाले] (वलम्) हिंसक [विघ्न] को (करेण इव) हाथ से जैसे [वैसे] (रवेण) अपने शब्द [वेद] से (वि चकर्त) काट डाला है। और (स्वेदाञ्जिभिः) मोक्ष के प्रकट करनेवाले व्यवहारों से (आशिरम्) परिपक्वता को (इच्छमानः) चाहते हुए उसने (पणिम्) कुव्यवहारी पुरुष को (अरोदयत्) रुलाया है, और (गाः) प्रकाशों को [उस से] (आ) सर्वथा (अमुष्णात्) छीन लिया है ॥६॥

    भावार्थ

    यहाँ (इन्द्र) शब्द (बृहस्पति) अर्थात् परमात्मा का वाचक है। परमात्मा वेद द्वारा मोक्षमार्ग बताकर सुखों के रोकनेवाले विघ्नों को मिटाता है और अधर्मी पापियों को घोर अन्धकार में डालता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (वलम्) हिंसकं विघ्नम् (रक्षितारम्) रक्षकम्। निरोधकमित्यर्थः (दुघानाम्) दुह प्रपूरणे-कप्, टाप्। पूरयित्रीणां शक्तीनाम् (करेण) हस्तेन (इव) यथा (वि) विविधम् (चकर्त) कृती छेदने-लिट्। चिच्छेद (रवेण) शब्देन वेदेन (स्वेदाञ्जिभिः) ञिष्विदा स्नेहनमोचनमोहनेषु अव्यक्तशब्दे गात्रप्रक्षरणे च-घञ्+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-इन्। मोचनस्य मोक्षस्य व्यक्तीकरणव्यवहारैः (आशिरम्) अ० २०।२२।६। आङ्+श्रीञ् पाके-क्विप्, शिर् इत्यादेशः। परिपक्वत्वम् (इच्छमानः) कामयमानः (अरोदयत्) रोदनं कारितवान् (पणिम्) कुव्यवहारिणं पुरुषम् (आ) समन्तात् (गाः) रश्मीन्। प्रकाशान् (अमुष्णात्) अपहृतवान् ॥

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    विषय

    करेण+रवेण

    पदार्थ

    १. 'बल' वृत्र है-ज्ञान को यह आवृत्त कर लेनेवाला [वल vail] वासना का पर्दा है। इस वृत्र के प्रबल होने से ज्ञानेन्द्रियाँ अपना कार्य ठीक से नहीं करती। मानो यह 'वृत्र' उन्हें चुरा ले-जाता है और कहीं गुफा में छिपा देता है। ज्ञान का दोहन करनेवाली [दुधानां] ज्ञानेन्द्रियों को वल छिपा रखता है [रक्षितारम्] । इन्द्र-जितेन्द्रिय पुरुष वल को नष्ट करके इन इन्द्रियरूप गौओं को फिर वापस ले-आता है। बल के नष्ट करने का साधन 'करेण+रवेण' है-कर्मशील बनना और प्रभु के नामों का उच्चारण करना। क्रियाशीलता के अभाव में अशुभवृत्तियाँ पनपती हैं और प्रभु-स्मरण के अभाव में किये जानेवाले उत्तम कर्मों के गर्व होने का भय बना रहता है। अहंकार भी 'वल' का ही दूसरा रूप है। यह भी ज्ञान का विरोधी है। (इन्द्र:) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (दुघानाम्) = ज्ञान-दुग्ध का दोहन करनेवाली इन्द्रियरूप गौओं के (रक्षितारम्) = चुराकर कहीं गुफा में रखनेवाले (बलम्) = वृत्रासुर को करेण (इव रवेण) = कर से, अर्थात् क्रियाशीलता से और इसी प्रकार रव से, अर्थात् प्रभु के नामोच्चारण से (विचकर्त) = काट डालता है। प्रभु-स्मरण के साथ क्रियाओं को करता हुआ यह वासनाओं से इन्द्रियों को आक्रान्त नहीं होने देता। २. यह (स्वेदाञ्जिभि:) = [अग्जि-आभरण] पसीनेरूप आभरण से (आशिरम्) = [आश्रयिणं, श्रियं]-श्री को (इच्छमान:) = चाहता हुआ (पणिम्) = लोभवृत्ति को [बनिये की] वृत्ति को (अरोदयत्) = रुलाता है और (गा:) = ज्ञानेन्द्रियरूप गौओं को (अमुष्णात्) = [आजहार सा०] फिर वापस ले-जाता है। लोभवृत्ति में मनुष्य कम-से-कम श्रम से अधिक-से-अधिक धन लेना चाहता है। इसप्रकार लोभ से इसकी बुद्धि मलिन हो जाती है, इसीलिए मन्त्र का ऋषि 'अयास्य' गाढ़े पसीने की कमाई को ही चाहता है-स्वेद उसका आभूषण ही बन जाता है। यह लोभवृत्ति को नष्ट कर डालता है, मानो उसे रुलाता है। श्रम से धन की कामना करता हुआ यह अपनी इन्द्रियों को स्वस्थ रखता है।

    भावार्थ

    वासना हमारी इन्द्रियरूप गौओं को चुरा लेती है। श्रम से ही धनार्जन करते हुए हम ज्ञानेन्द्रियों को स्वस्थ रखते हैं।

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    भाषार्थ

    सृष्टिक्रम में, (दुघानाम्) दुहे जानेवाले तत्त्वों में से, (वलम्) आकाश को घेरे हुए, (रक्षितारम्) और अपने जल की अपने में रक्षा करते हुए मेघ को, (इन्द्रः) परमेश्वर ने, (रवेण) विद्युत् की गर्जना द्वारा (विचकर्त) काट गिराया, (इव) जैसे कोई (करेण) हाथ द्वारा किसी वृक्ष आदि को काट गिराता है। तथा (स्वेदाञ्जिभिः) जल के आर्द्र-कणों द्वारा अभिव्यक्त हुए मेघों द्वारा (आशिरम्) भोजन-सामग्री को (इच्छमानः) चाहते हुए परमेश्वर ने, (पणिम्) व्यवहार के साधनभूत मेघ को (अरोदयत्) विद्युत् द्वारा गर्जवाया, और (गाः) उसके जलों को (अमुष्णात्) मानो चुरा लिया।

    टिप्पणी

    [वलम्=वृ आवरणे। दुघानाम्=दुह्यन्ते इति दुघाः, तेषाम्। आशिरम्=आ+अश् भोजने, यथा “आशितम्”=भोजनम्। पणिम्=पण् व्यवहारे। गाः=गौः (जलम्), (उणादि कोष २.६७), वैदिक यन्त्रालय, अजमेर।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Indra, mighty ruling soul, wishing to taste the sweetness of milk mixed with soma, i.e., divine ecstasy with vibrations of grace, removes the veil of darkness covering the light of knowledge and divine speech with an act of will as if with a stroke of thunder and lightning, throws the demon away lamenting, recovers and enjoys the light of knowledge with the voice of divinity and showers of bliss in a state of clairvoyance. Indra, mighty ruling soul, wishing to taste the sweetness of milk mixed with soma, i.e., divine ecstasy with vibrations of grace, removes the veil of darkness covering the light of knowledge and divine speech with an act of will as if with a stroke of thunder and lightning, throws the demon away lamenting, recovers and enjoys the light of knowledge with the voice of divinity and showers of bliss in a state of clairvoyance.

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    Translation

    This air cleaves the darkness of cloud (Vala) which keeps concealed water-milking ray through roar like hands and liking the cooperation with the moistening Maruts, the forces of air destroys the cloud and steals away the sunbeams resting hidden.

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    Translation

    This air cleaves the darkness of cloud (Vala) which keeps concealed water-milking ray through roar like hands and liking the cooperation with the moistening Maruts, the forces of air destroys the cloud and steals away the sunbeams resting hidden.

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    Translation

    Just as the learned yogi specially destroys ignorance covering the rays of light of knowledge and learning through the truthful, friendly, pure and brilliant preceptors, showering wealth of knowledge and spiritual light, similarly learned person, well-versed in the Vedic lore, thoroughly brings under control the swift mind by the well-controlled heat, sweat-generating and bliss-showering powerful vital breaths.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (वलम्) हिंसकं विघ्नम् (रक्षितारम्) रक्षकम्। निरोधकमित्यर्थः (दुघानाम्) दुह प्रपूरणे-कप्, टाप्। पूरयित्रीणां शक्तीनाम् (करेण) हस्तेन (इव) यथा (वि) विविधम् (चकर्त) कृती छेदने-लिट्। चिच्छेद (रवेण) शब्देन वेदेन (स्वेदाञ्जिभिः) ञिष्विदा स्नेहनमोचनमोहनेषु अव्यक्तशब्दे गात्रप्रक्षरणे च-घञ्+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-इन्। मोचनस्य मोक्षस्य व्यक्तीकरणव्यवहारैः (आशिरम्) अ० २०।२२।६। आङ्+श्रीञ् पाके-क्विप्, शिर् इत्यादेशः। परिपक्वत्वम् (इच्छमानः) कामयमानः (अरोदयत्) रोदनं कारितवान् (पणिम्) कुव्यवहारिणं पुरुषम् (आ) समन्तात् (गाः) रश्मीन्। प्रकाशान् (अमुष्णात्) अपहृतवान् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর] (দুঘানাম্) সমগ্র পূর্তিসমূহের (রক্ষিতারম্) রক্ষক [প্রতিরোধকারী] যেভাবে (বলম্) হিংসুককে [বিঘ্নকে] (করেণ ইব) হস্ত দ্বারা যেমন, তেমনই (রবেণ) নিজ শব্দ [বেদের] মাধ্যমে (বি চকর্ত) ছিন্ন করেছেন এবং (স্বেদাঞ্জিভিঃ) মোক্ষ প্রকটকারী ব্যবহার দ্বারা (আশিরম্) পরিপক্বতা (ইচ্ছমানঃ) অভিলাষী তিনি (পণিম্) কদাচারী পুরুষকে (অরোদয়ৎ) রোদন করিয়েছেন এবং (গাঃ) প্রকাশ-কে [কদাচারী পুরুষ থেকে] (আ) সর্বতোভাবে (অমুষ্ণাৎ) ছিনিয়ে নিয়েছেন ॥৬॥

    भावार्थ

    এখানে (ইন্দ্র) শব্দ (বৃহস্পতি) অর্থাৎ পরমাত্মা বাচক । পরমাত্মা বেদ দ্বারা মোক্ষমার্গের বার্তা দিয়ে সুখ-সমৃদ্ধি প্রতিরোধী বিঘ্ন সমূহ দূর করেন এবং অধর্মী পাপীদের ঘোর অন্ধকারে নিক্ষেপ করেন ॥৬॥

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    भाषार्थ

    সৃষ্টিক্রমে, (দুঘানাম্) দুহিত তত্ত্ব-সমূহের মধ্যে থেকে, (বলম্) আকাশকে ঘিরে থাকা, (রক্ষিতারম্) এবং নিজের জলকে নিজের মধ্যে রক্ষাকারী মেঘকে (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (রবেণ) বিদ্যুতের গর্জনা দ্বারা (বিচকর্ত) কেটে ফেলেছে, (ইব) যেমন কোনো (করেণ) হাত দ্বারা কোনো বৃক্ষাদিকে কেটে ফেলে। তথা (স্বেদাঞ্জিভিঃ) জলের আর্দ্র-কণা দ্বারা অভিব্যক্ত মেঘ দ্বারা (আশিরম্) ভোজন-সামগ্রী (ইচ্ছমানঃ) কামনা করে পরমেশ্বর, (পণিম্) ব্যবহারের সাধনভূত মেঘকে (অরোদয়ৎ) বিদ্যুৎ দ্বারা গর্জিত করেছে, এবং (গাঃ) উহার জলকে (অমুষ্ণাৎ) মানো চুরি করেছে।

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