अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
ये पन्था॑नो ब॒हवो॑ देव॒याना॑ अन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी सं॒चर॑न्ति। ते मा॑ जुषन्तां॒ पय॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ क्री॒त्वा धन॑मा॒हरा॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठये । पन्था॑न: । ब॒हव॑:। दे॒व॒ऽयाना॑: । अ॒न्त॒रा । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । स॒म्ऽचर॑न्ति । ते । मा॒ । जु॒ष॒न्ता॒म् । पय॑सा । घृ॒तेन॑ । यथा॑ । क्री॒त्वा । धन॑म् । आ॒ऽहरा॑णि ॥१५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी संचरन्ति। ते मा जुषन्तां पयसा घृतेन यथा क्रीत्वा धनमाहराणि ॥
स्वर रहित पद पाठये । पन्थान: । बहव:। देवऽयाना: । अन्तरा । द्यावापृथिवी इति । सम्ऽचरन्ति । ते । मा । जुषन्ताम् । पयसा । घृतेन । यथा । क्रीत्वा । धनम् । आऽहराणि ॥१५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यापार के लाभ का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (देवयानाः) विद्वान् व्यापारियों के यानों रथादिकों के योग्य (बहवः) बहुत से (पन्थानः) मार्ग (द्यावापृथिव्यौ=०−व्यौ) सूर्य और पृथिवी के (अन्तरा) बीच (संचरन्ति) चलते रहते हैं, (ते) वे [मार्ग] (पयसा) दूध से और (घृतेन) घी से (मा) मुझको (जुषन्ताम्) तृप्त करें, (यथा) जिससे (क्रीत्वा) मोल लेकर [व्यापार करके] (धनम्) धन (आहराणि) मैं लाऊँ ॥२॥
भावार्थ
व्यापारी लोग विमान, रथ, नौकादि द्वारा आकाश, भूमि, समुद्र, पर्वत, आदि से देश-देशान्तरों में जाकर अनेक प्रकार व्यापार करके मूलधन बढ़ावें और धनाढ्य होकर घर आवें ॥२॥
टिप्पणी
२−(पन्थानः)। मार्गाः। (बहवः)। बहुदेशसंबधिनः। (देवयानाः)। दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारादिषु-अच्। या गतौ-युट्। देवानां विदुषां व्यवहारिणां यानानि गमनसाधनानि विमानरथादीनि चरन्ति येषु ते तथाभूताः। (अन्तरा)। अन्तरान्तरेण युक्ते। पा० ३।२।४। इति द्वितीया। मध्ये। (द्यावापृथिव्यौ)। अ० २।१।४। सूर्यभूमी। तयोर्मध्य इत्यर्थः। (संचरन्ति)। वर्त्तन्ते। (ते)। पन्थानः। (मा)। मां वणिजम्। (जुषन्ताम्)। जुषी प्रीतिसेवनयोः। प्रीणन्तु। तर्पयन्तु। (पयसा)। दुग्धेन। (घृतेन)। आज्येन। (यथा)। येन प्रकारेण। (क्रीत्वा)। डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये। विनिमयेन गृहीत्वा। (धनम्)। लाभसहितं मूलधनम्। (आहराणि)। स्वगृहं प्रापयाणि ॥
विषय
मागों में खान-पान की व्यवस्था का ठीक होना
पदार्थ
१. (येजो देवयाना:) = [दीव्यन्ति व्यवहरन्ति इति देवा वणिजः, ते यत्र यान्ति] व्यापारियों के आने-जाने के (बहवः पन्थान:) = बहुत-से मार्ग (द्यावापृथिवी अन्तरा) = धुलोक व पृथिवीलोक के मध्य में (संचरन्ति) = [वर्तन्ते] हैं, ते वे सब मार्ग (मा) = मुझे (पतेन) = दूध-घृत आदि-जीवन यात्रा के लिए आवश्यक पदार्थों से (जुषन्ताम्) = सेवन करनेवाले हों। इन मार्गों में खान-पान की सब व्यवस्था बड़ी ठीक हो। २. (यथा) = जिससे मैं (क्रीत्वा) = क्रय-विक्रय करके (धनम्) = लाभसहित मूलधन को (आहराणि) = अपने घर में लानेवाला बनें।
भावार्थ
व्यापार के लिए जिन मार्गों में आना-जाना होता है, वहाँ खान-पान आदि की सुव्यवस्था हो, जिससे स्वस्थ रहकर हम ठीक से व्यापार कर सकें।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी अन्तरा) द्युलोक तथा पृथिवी के मध्य में अर्थात् अन्तरिक्ष के वायुमण्डल में, (देवयानाः) व्यवहारियों के (ये पन्थानः) जो मार्ग (संचरन्ति) संचरित होते हैं, (ते) वे मार्ग (पयसा घृतेन) दुग्ध और घृत द्वारा (मा जुषन्ताम्) मेरी सेवा करें, (यथा) जिस प्रकार कि (क्रीत्वा) खरीद कर (धनम् आहरामि) धन को मैं प्राप्त करूं।
टिप्पणी
[देवयाना:=दीव्यन्ति व्यवहरन्तीति देवा: वणिजः। ते यत्र यान्ति ते देवयानाः (सायण)। तथा देवाः= दिवु क्रीड़ा विजिगीषा "व्यवहार" आदि (दिवादिः)। संचरन्ति= वे मार्ग जिनमें प्राय: वायुयानों द्वारा संचार होता है। ये मार्ग वायुयानों के आने जाने के लिए निश्चित किये जाते हैं। दुग्ध-घृत आदि के विक्रय से प्राप्त धन द्वारा देश-देशान्तरों से वस्तुओं का क्रय करके धन के आहरण का कथन हुआ है। क्रीत वस्तुएँ लाकर निजदेश में इनके विक्रय से धन की प्राप्ति होती है।]
विषय
वणिग्-व्यापार का उपदेश ।
भावार्थ
(ये) जो (बहवः) बहुतसे (पन्थानः) सार्ग (देवयानाः) विद्वानों व्यवहार करने वालों के जाने के योग्य (द्यावापृथिवी अन्तरा) द्यौ = आकाश और पृथिवी के बीच में जल स्थल और आकाश में रथ, जहाज और विमान द्वारा जाने के लिये बने हुए (संचरन्ति) नाना स्थानों पर जाते हैं । (ते) वे (मां) मुझे भी (पयसा) जल और (घृतेन) घी आदि पुष्टिकारक पदार्थों के साथ २ (जुषन्तां) प्राप्त हों (यथा) जिनसे मैं दूर देश में जाकर (क्रीत्वा) बहुत से पदार्थ खरीद कर (धनम्) बहुत सा धन अपने देश में (आहराणि) ले आऊं।
टिप्पणी
‘इहैंव पन्थाः बहवो देवयानमनुद्यावापृथिवी सुप्रणीतिः । तेषामह्नाम् वर्चस्या दधामि यथा कीत्वा धनमाहवानि।’ इति पैप्प० सं० । (तृ०) ‘ते मे’ इति वेबर कामितः पाठः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पण्यकामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः उत इन्द्राग्नी देवताः। १ भुरिक्, ४ त्र्यवसाना बृहतीगर्भा विराड् अत्यष्टिः । ५ विराड् जगती । ७ अनुष्टुप् । ८ निचृत् । २, ३, ६ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Business and Finance
Meaning
Many are the paths worthy of noble businessmen, Devayana they are, open and actively busy between the earth and sky over land and sea and air. Let these be available for me to follow, which would bring for me enough milk and ghrta for a comfortable living so that with trade and commerce, buying and selling, I can get the wealth I need and wish to have.
Subject
Pathways - Panthānaļ
Translation
May those many pathways, which extend in the midst of heaven and earth and along which the enlightened ones - travel, delight me with milk and butter, may I make rich profits by sale and purchase.
Translation
May we adopt, with milk and ghee those various paths which are treaded by the learned Persons and which go between the earth and heaven. In this way we may make rich profit by my purchase.
Translation
The many paths which the learned traders are wont travel, the paths which go between the earth and heaven, may the satisfy me with milk and ghee, that I may make rich profit by my purchase.
Footnote
A merchant should travel in a ship by sea, or in an aeroplane by air, to go to different countries to make his business flourish.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(पन्थानः)। मार्गाः। (बहवः)। बहुदेशसंबधिनः। (देवयानाः)। दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारादिषु-अच्। या गतौ-युट्। देवानां विदुषां व्यवहारिणां यानानि गमनसाधनानि विमानरथादीनि चरन्ति येषु ते तथाभूताः। (अन्तरा)। अन्तरान्तरेण युक्ते। पा० ३।२।४। इति द्वितीया। मध्ये। (द्यावापृथिव्यौ)। अ० २।१।४। सूर्यभूमी। तयोर्मध्य इत्यर्थः। (संचरन्ति)। वर्त्तन्ते। (ते)। पन्थानः। (मा)। मां वणिजम्। (जुषन्ताम्)। जुषी प्रीतिसेवनयोः। प्रीणन्तु। तर्पयन्तु। (पयसा)। दुग्धेन। (घृतेन)। आज्येन। (यथा)। येन प्रकारेण। (क्रीत्वा)। डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये। विनिमयेन गृहीत्वा। (धनम्)। लाभसहितं मूलधनम्। (आहराणि)। स्वगृहं प्रापयाणि ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(দ্যাবাপৃথিবী অন্তরা) দ্যুলোক ও পৃথিবীর মধ্যে/মাঝখানে অর্থাৎ অন্তরিক্ষের বায়ুমণ্ডলে, (দেবযানাঃ) ব্যবহারীদের (যে পন্থানঃ) যে মার্গ (সংচরন্তি) সঞ্চরিত হয়/চলমান (তে) সেই মার্গ, (পয়সা ঘৃতেন) দুগ্ধ ও ঘৃত দ্বারা (মা জুষন্তাম্) আমার সেবা করুক, (যথা) যাতে (ক্রীত্বা) ক্রয় করে (ধনম্ আহরামি) ধন আমি প্রাপ্ত করি।
टिप्पणी
[দেবযানাঃ=দীব্যন্তি ব্যবহরন্তীতি দেবাঃ বণিজঃ। তে যত্র যান্তি তে দেবযানঃ (সায়ণ)। তথা দেবাঃ= দিবু ক্রীডাবিজিগীষা "ব্যবহার" আদি (দিবাদিঃ)। সংচরন্তি=সেই পথ যার মধ্য দিয়ে প্রায়ঃ বায়ুযান দ্বারা সঞ্চার হয়। এই পথ বায়ুযানের যাওয়া-আসার জন্য নিশ্চিত করা হয়। দুগ্ধ-ঘৃত প্রভৃতি বিক্রয় থেকে প্রাপ্ত ধন দ্বারা দেশ-দেশান্তর থেকে বস্তুর ক্রয় করে ধনের আহরণের কথন হয়েছে। ক্রয় করা বস্তুগুলো এনে নিজদেশে এগুলোর বিক্রয় থেকে ধনের প্রাপ্তি হয়।]
मन्त्र विषय
ব্যাপারলাভোপদেশঃ
भाषार्थ
(যে) যে (দেবযানাঃ) বিদ্বান্ বণিকদের যানবাহন রথাদির যোগ্য (বহবঃ) বহু (পন্থানঃ) মার্গ/পথ (দ্যাবাপৃথিবী=০−ব্যৌ) সূর্য ও পৃথিবীর (অন্তরা) মধ্যে (সংচরন্তি) চলতে থাকে/চলমান, (তে) সেই সকল [মার্গ] (পয়সা) দুধ দ্বারা এবং (ঘৃতেন) ঘী দ্বারা (মা) আমাকে (জুষন্তাম্) তৃপ্ত করুক, (যথা) যাতে (ক্রীত্বা) মূল্য নিয়ে [বাণিজ্য করে] (ধনম্) ধন (আহরাণি) আমি নিয়ে আসি॥২॥
भावार्थ
বণিকগণ বিমান, রথ, নৌকাদি দ্বারা আকাশ, ভূমি, সমুদ্র, পর্বতের মধ্য দিয়ে দেশ-দেশান্তরে গিয়ে অনেক প্রকার বাণিজ্য করে মূলধন বৃদ্ধি করুক এবং ধনাঢ্য হয়ে ঘর আসুক ॥২॥
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