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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - धनम्, धनरुचिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वाणिज्य
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    येन॒ धने॑न प्रप॒णं चरा॑मि॒ धने॑न देवा॒ धन॑मि॒च्छमा॑नः। तस्मि॑न्म॒ इन्द्रो॒ रुचि॒मा द॑धातु प्र॒जाप॑तिः सवि॒ता सोमो॑ अ॒ग्निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । धने॑न । प्र॒ऽप॒णम् । चरा॑मि । धने॑न । दे॒वा॒: । धन॑म् । इ॒च्छमा॑न: । तस्मि॑न् । मे॒ । इन्द्र॑: । रुचि॑म् । आ । द॒धा॒तु॒ । प्र॒जाऽप॑ति: । स॒वि॒ता । सोम॑:। अ॒ग्नि: ॥१५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः। तस्मिन्म इन्द्रो रुचिमा दधातु प्रजापतिः सविता सोमो अग्निः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । धनेन । प्रऽपणम् । चरामि । धनेन । देवा: । धनम् । इच्छमान: । तस्मिन् । मे । इन्द्र: । रुचिम् । आ । दधातु । प्रजाऽपति: । सविता । सोम:। अग्नि: ॥१५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    व्यापार के लाभ का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे व्यवहारकुशल व्यापारियो ! (धनेन) मूल धन से (धनम्) धन (इच्छमानः) चाहता हुआ मैं (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणम्) व्यापार (चरामि) चलाता हूँ (तस्मिन्) उस [धन] में (मे) मुझे (प्रजापतिः) प्रजापालक (सविता) ऐश्वर्यवान् (सोमः) चन्द्र [समान शान्त-स्वभाव] (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी], (इन्द्रः) बड़ा समर्थ प्रधान पुरुष (रुचिम्) रुचि (आदधातु) देवे ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य उत्तम स्वभाववाले अनुभवी पुरुषों की सम्मति से व्यापार में मन लगाकर लाभ के साथ मूल धन को बढ़ावें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(तस्मिन्)। पूर्वोक्ते धने। (मे)। मह्यम्। (इन्द्रः)। प्रधानपुरुषः। (रुचिम्)। रुच दीप्तावभिप्रीतौ च-कि। अभिप्रीतिम्। (आ दधातु)। स्थापयतु। ददातु। (प्रजापतिः)। पुत्रभृत्यादीनां पालकः। (सविता)। परमैश्वर्यवान्। (सोमः)। चन्द्रसमानशान्तस्वभावः। (अग्निः)। म० ३। अन्यद् यथा म० ५ ॥

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    विषय

    इन्द्रः, प्रजापतिः, सविता, सोमः, अग्निः

    पदार्थ

    १. (येन) = जिस (धनेन) = मूलधन से (प्रपणम् चरामि) = क्रय करता हूँ, हे (दवा:) = व्यवहारसाधक देवो! इस (धनेन) = धन से (धनम् इच्छमान:) = वृद्धियुक्त धन को चाहता हुआ मैं ऐसा करता हूँ। २. (तस्मिन्) = उस व्यवहार में (इन्द्र:) = जितेन्द्रियता की देवता मे मेरी (रुचिम्) = रुचि को (आदधातु) = धारण करे, जितेन्द्रिय बनकर मैं उस व्यापार को रुचि से करूँ । (प्रजापतिः) = प्रजा का रक्षक देव, अर्थात प्रजा के सन्तान के पालन की भावना मुझे उसमें रुचिवाला करे। इसीप्रकार (सविता) = निर्माण की भावना, (सोमः) = सौम्यता का भाव और (अग्नि:) = प्रगति की भावना मुझे उसमें रुचिवाला करे । 'सोमः' शब्द सौम्यता का प्रतिपादन करता हुआ यह स्पष्ट कर रहा है कि एक व्यापारी को अवश्य सौम्य स्वभाव का बनना है, उन स्वभाव नहीं।

    भावार्थ

    मैं जितेन्द्रिय, सन्तान के रक्षण की भावनावाला, निर्माता, सौम्य व प्रगतिवाला बनकर अपने व्यापार को रुचि से करूँ।

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    भाषार्थ

    (येन धनेन इच्छमानः) पूर्ववत् (मन्त्र ५)(तस्मिन्) उस व्यापार में (मे रुचिम्) मुझ व्यापारी की रुचि को (इन्द्रः आ दधातु) सम्राट् स्थापित करे, (प्रजापतिः) प्रजाओं का पति, अर्थात् राजा, (सविता) प्रसवों तथा राष्ट्र के ऐश्वर्य का अध्यक्ष [Finance Minister], (सोमः) जलाध्यक्ष, (अग्निः) तथा अग्रणी प्रधानमन्त्री।

    टिप्पणी

    [इन्द्र=वाणिज्य का अधिकारी (मन्त्र १), अथवा साम्राज्य का सम्राट "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। सविता= षु प्रसवैश्वर्ययोः (भ्वादिः), यह दो विभागों का अधिकारी, अर्थात् मन्त्री है। सोमः=water (आप्टे)। छोटे व्यापारियों की व्यापार में तभी रुचि हो सकती है जबकि कथित अधिकारी, इन्हें बड़े व्यापारियों द्वारा दी गई प्रतिस्पर्धा से सुरक्षित कर दें। जलाध्यक्ष का कथन हुआ है कृषि द्वारा किये जानेवाले व्यापार में।]

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    विषय

    वणिग्-व्यापार का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (देवाः) अधिकारिवर्गों ! शासको ! एवं विद्वान् पुरुषो ! (धनेन धनम् इच्छमानः) धन से और अधिक धन को प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ मैं (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणं चरामि) व्यापार करता हूं (तस्मिन्) उसमें (इन्द्रः) ऐश्वर्यशील परमेश्वर या वह राजा (से) मेरी (रुचिम्) इच्छा और उत्साह को (आ दधातु) और बढ़ावे जो (प्रजापतिः) समस्त प्रजाओं का स्वामी (सविता) सबको उन्नति मार्ग पर प्रेरणा करने वाला (सोमः) सोम=वेद का विद्वान् (सविता) सव का प्रेरक (अग्निः) नेता है ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यत् पणेन प्रतिपणं चरामि’ (तृ०) ‘इन्द्रो मेतस्मिन्नॄचमा’ दधातु बृहस्प०’ इति पैप्प० सं० (तृ०) ‘सचिमा’ हि० गृ० सू०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पण्यकामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः उत इन्द्राग्नी देवताः। १ भुरिक्, ४ त्र्यवसाना बृहतीगर्भा विराड् अत्यष्टिः । ५ विराड् जगती । ७ अनुष्टुप् । ८ निचृत् । २, ३, ६ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Business and Finance

    Meaning

    O Devas, enlightened enterprising spirits of society, the money that I invest to carry on my business, wishing and planning to earn more by investment, may, I pray, increase, and may the business grow. And in that business, investment and money circulation, may Indra, the ruling power and self-confidence, Prajapati, presiding powers of nation’s growth, Savita, men of creative spirit with inspiring enthusiasm, Soma, men of peace who care for national happiness, and Agni, leading lights of the world of business, science of growth and lovers of culture and enlightenment, may all provide me with enlightened interest in business and the creative growth of economy for all round development of human society.

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    Translation

    O enlightened ones, may in this money, with which I strike my deals, desiring money out of money, the resplendent Lord (indra) give me pleasure, and so may do the, Lord of creatures (prajapati), the inspirer Lord (savitr), the blissful Lord (soma) and the aderable Lord (agni).

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    Translation

    May wealthy man, ruler, inspiring magnet, the man of knowledge and the leader create our interest and aptitude in that wealth wherewith I carry on my traffic. O men of geneous, desiring to earn wealth out of wealth.

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    Translation

    O experienced traders, desirous of earning wealth with wealth, the wealth wherewith I carry on my business; may Indra, Prajapati, Savita, Soma and Agni, develop my taste and Zest in that.

    Footnote

    Indra is glorious God, Prajapati is God, the Lord of all His subjects. Savita is God, the Creator of the universe. Soma is God, tranquil like the moon. Agni is God, as He is the foremost leader of all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(तस्मिन्)। पूर्वोक्ते धने। (मे)। मह्यम्। (इन्द्रः)। प्रधानपुरुषः। (रुचिम्)। रुच दीप्तावभिप्रीतौ च-कि। अभिप्रीतिम्। (आ दधातु)। स्थापयतु। ददातु। (प्रजापतिः)। पुत्रभृत्यादीनां पालकः। (सविता)। परमैश्वर्यवान्। (सोमः)। चन्द्रसमानशान्तस्वभावः। (अग्निः)। म० ३। अन्यद् यथा म० ५ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (দেবাঃ) হে ব্যবহার অর্থাৎ ব্যবসার/বাণিজ্যের দিব্য অধ্যক্ষগণ! (ধনম্, ইচ্ছমানঃ) ধন অভিলাষী/কামনাকারী/কামনা করে, (যেন ধনেন) যেই মূল ধনের দ্বারা (প্রপণম্ চরামি) আমি বাণিজ্যিক বস্তুসমূহের ক্রয় করি, (তস্মিন্) সেই ব্যবসায়/বাণিজ্যে (মে রুচিম্) আমার [ন্যায় ব্যবসায়ীর] রুচিকে (ইন্দ্রঃ আ দধাতু) সম্রাট্ স্থাপিত করুক, (প্রজাপতিঃ) প্রজাদের পতি, অর্থাৎ রাজা, (সবিতা) প্রসবদের এবং রাষ্ট্রের ঐশ্বর্যের অধ্যক্ষ [Finance minister], (সোমঃ) জলাধ্যক্ষ, (অগ্নিঃ) এবং অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী।

    टिप्पणी

    [ইন্দ্রঃ= বাণিজ্যের অধিকারী (মন্ত্র ১), অথবা সাম্রাজ্যের সম্রাট "ইন্দ্রশ্চ সম্রাট বরুণশ্চ রাজা" (যজু০ ৮।৩৭)। সবিতা=ষু প্রসবৈশ্বর্যযোঃ (ভ্বাদিঃ), ইনি দুই বিভাগের অধিকারী, অর্থাৎ মন্ত্রী। সোমঃ= water (আপ্টে)। ছোটো ব্যবসায়ীদের ব্যবসায় তখনই রুচি হতে পারে যখন কথিত অধিকারী, এঁদের বড়ো ব্যবসায়ীদের দ্বারা কৃত প্রতিস্পর্ধা থেকে সুরক্ষিত করে দেবে। জলাধ্যক্ষের কথন হয়েছে কৃষি দ্বারা কৃত ব্যবসাগুলোতে/বাণিজ্যে।]

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    मन्त्र विषय

    ব্যাপারলাভোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দেবাঃ) হে ব্যবহার-কুশল বণিকগণ ! (ধনেন) মূলধন থেকে (ধনম্) ধন (ইচ্ছমানঃ) অভিলাষী আমি (যেন ধনেন) যে ধনের মাধ্যমে (প্রপণম্) বাণিজ্য (চরামি) সঞ্চালিত করি, (তস্মিন্) তার [ধন-সম্পদের] মধ্যে (মে) আমাকে (প্রজাপতিঃ) প্রজাপালক (সবিতা) ঐশ্বর্যবান্ (সোমঃ) চন্দ্র [সমান শান্ত-স্বভাবযুক্ত] (অগ্নিঃ) অগ্নি [সমান তেজস্বী], (ইন্দ্রঃ) পরম সমর্থ প্রধান পুরুষ (রুচিম্) রুচি (আদধাতু) প্রদান করুক ॥৬॥

    भावार्थ

    মনুষ্য উত্তম স্বভাবযুক্ত অনুভবী/অভিজ্ঞ পুরুষদের সম্মতিতে বাণিজ্যে মন নিয়োজিত করে লাভের সাথে মূলধন বৃদ্ধি করুক ॥৬॥

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