अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
येन॒ धने॑न प्रप॒णं चरा॑मि॒ धने॑न देवा॒ धन॑मि॒च्छमा॑नः। तन्मे॒ भूयो॑ भवतु॒ मा कनी॒योऽग्ने॑ सात॒घ्नो दे॒वान्ह॒विषा॒ नि षे॑ध ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । धने॑न । प्र॒ऽप॒णम् । चरा॑मि । धने॑न । दे॒वा॒: । धन॑म् । इ॒च्छमा॑न: । तत् । मे॒ । भूय॑: । भ॒व॒तु॒ । मा । कनी॑य: । अग्ने॑ । सा॒त॒ऽघ्न: । दे॒वान् । ह॒विषा॑ । नि । से॒ध॒ । १५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः। तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोऽग्ने सातघ्नो देवान्हविषा नि षेध ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । धनेन । प्रऽपणम् । चरामि । धनेन । देवा: । धनम् । इच्छमान: । तत् । मे । भूय: । भवतु । मा । कनीय: । अग्ने । सातऽघ्न: । देवान् । हविषा । नि । सेध । १५.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यापार के लाभ का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) हे व्यवहार-कुशल व्यापारियों ! (धनेन) मूलधन से (धनम्) धन (इच्छमानः) चाहनेवाला मैं (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणम्) व्यापार (चरामि) चलाता हूँ, (तत्) वह धन (मे) मेरेलिये (भूयः) अधिक-अधिक (भवतु) होवे, (कनीयः) थोड़ा (मा) न [होवे]। (अग्ने) हे अग्निसदृश तेजस्वी विद्वान् ! (सातघ्नः) लाभ नाश करनेवाले (देवान्) मूर्खों को (हविषा) हमारी भक्ति द्वारा (निषेध) रोक दे ॥५॥
भावार्थ
नवशिक्षित व्यापारी बड़े-बड़े व्यापारियों से लाभ-हानि की रीतें समझकर अपने मूल धन को बढ़ाते रहें और कुव्यवहारियों के फंदे में न पड़ें ॥५॥
टिप्पणी
५−(प्रपणम्)। म० ४। व्यापारम्। (चरामि)। करोमि। (धनेन)। मूलधनेन। (धनम्)। सलाभं धनम्। (इच्छमानः)। कामयमानः। (तत्)। धनम्। (मे)। मह्यम्। (भूयः)। द्विवचनविभज्योपदे तरबीयसुनौ। पा० ५।३।५७। इति बहु-ईयसुन् बहोर्लोपो भू च बहोः पा० ६।४।१५८। इति ईलोपो भू च बहोः। बहुतरम्। (मा)। न। (कनीयः)। युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्। पा० ६।४।६४। इति अल्प-ईयसुन्, कनादेशः। अल्पतरम्। (अग्ने)। म० ३। (सातघ्नः)। षणु दाने-क्त भावे। सातं लाभः। हन वधे गतौ च-क्विप्। शसि रूपम्। लाभहन्तॄन्। लाभनाशकान्। (देवान्)। दिवु क्रीडास्तुतिमोदमदादिषु, अत्र मदे-अच्। मत्तान् मूर्खान्। (हविषा)। भक्त्या। (निषेध)। षिधु गत्याम्। उपसर्गात् सुनोति पा० ८।३।६५। इति षत्वम् निवाराय ॥
विषय
भूयः, न तु कनीयः
पदार्थ
१. हे (देवा:) = सब व्यवहारों के साधक देवो! (धनेन) = मूलधन से (धनम्) = वृद्धियुक्त धन को (इच्छमान:) = चाहता हुआ मैं (येन धनेन्) = जिस धन से (प्रपणं चरामि) = क्रय करता हूँ (तत्) = बह (मे) = मेरा धन (भूयः भवतु) = बहुतर हो जाए, बढ़ ही जाए, (कनीय:) = अल्पतर मा-मत हो जाए। २. (अग्ने) = व्यापार में प्रगति प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (सातघ्न:) = लाभ के प्रतिबन्धक (देवान्) = [दीव्यन्ति] सट्टे आदि का व्यापार करनेवालों को (हविषा निषेध) = हवि के द्वारा हमसे दूर कर दें। त्यागपूर्वक अदन [खाने] की वृत्ति को [हवि को] प्राप्त करके हम इन द्यूत-व्यापारों से दूर रहें।
भावार्थ
हम व्यापार में धूत आदि व्यवहारों से दूर रहते हुए अपने धनों का सदा वर्धन करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(देवाः) हे व्यवहार अर्थात् व्यापार के दिव्य अध्यक्षो! (धनम्, इच्छमानः) धन चाहता हुआ, (येन धनेन) जिस मूल धन के द्वारा (प्रपणम् चरामि) मैं व्यापारिक वस्तुओं का क्रय करता हूँ, (तत् मे) वह मेरा मूलधन (भूयः, भवतु) बढ़ता रहे, (कनीयः मा) कम न हो, (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (सातघ्नः) लाभ का हनन करनेवाले (देवान्) अन्य विजिगीषु व्यापारियों को (हविषा) हव्यांश द्वारा (निषेध) बाधा डालने से निवारित कर।
टिप्पणी
[सातघ्नः-सात लाभं घ्नन्तीति सातघ्नः (सायण)। देवान्=दिवु क्रीड़ा विजिगीषा.... (दिवादिः), अर्थात् प्रतिस्पर्धा में व्यापार में निजविजय चाहनेवाले व्यापारी। इन्हें हमारे व्यापारों से प्राप्त धन का हिस्सा देकर सन्तुष्ट कर प्रतिस्पर्धा से निवारित कर, यह प्रधानमन्त्री को कहा गया है।]
विषय
वणिग्-व्यापार का उपदेश ।
भावार्थ
मैं व्यापारी (धनेन) धन से (धनम्) धन को (इच्छमानः) चाहता हुआ, (देवाः) हे विद्वान् उत्तम पुरुषो ! (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणं चरामि) व्यापार, विनियम, लेन देन का व्यवहार करता हूं (तत्) वह (मे) मेरा (भूयोः भवतु) बहुत अधिक हो जाय। (मा कनीयः) वह कमती न हो । हे (अग्ने) साक्षिन् ! मध्यस्थ ! या राजन् ! (सातघ्नः) लाभ लेन देने में प्रतिबन्धक (देवान्) अधिष्ठातारूप शासक राजपुरुषों को भी (हविषा) उनकी हविः=शुल्क देकर के (निषेध) बाधा डालने से रोक दो । अथवा—(सातघ्नः देवान्) प्राप्त धन को नाश करने वाले, मदकारी या प्रजापीड़क, क्रीड़ा, जूआ आदि में नाश करने वालों को (हविषा) उनसे लेने योग्य या उचित उपाय से रोक । ‘देवाः’—दिवु क्रीड़ा...मद...गतिषु । दिवुमर्दने । देवृदेवने ।
टिप्पणी
‘धनेन देवान्’ इति लैन्मेनकामितः पाठः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पण्यकामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः उत इन्द्राग्नी देवताः। १ भुरिक्, ४ त्र्यवसाना बृहतीगर्भा विराड् अत्यष्टिः । ५ विराड् जगती । ७ अनुष्टुप् । ८ निचृत् । २, ३, ६ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Business and Finance
Meaning
Agni, leading light of the world of business, may the capital money I invest with which I carry on the business, and the money in circulation by which I wish and plan to earn more, O Devas, enlightened people, may that grow and increase. Let it not decrease. Agni, by virtue of our investment and the yajnic service we offer, pray ward off the deceitful players and destroyers of mutual gain.
Translation
O enlightened ones, may this money, with which I strike my deals, desiring money out of money, goon increasing for me; may it never decrease. O adorable leader, may you appease with offerings those enlightened ones who want to kill the profit.
Translation
O’ Ye business men; may that of my wealth wherewith, desiring wealth I carry on business, grow more for me, not less. O King; chase with your sincere motive those who hinder profit.
Translation
O experienced traders, desirous of earning wealth with wealth, the wealth wherewith I carry on my business; may this grow more for me, not less. O King, through proper device chase those who hinder profit.
Footnote
If a trader goes to a distant foreign unknown place, he is liable to commit mistake in his business. Twain: two merchants exchanging their goods.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(प्रपणम्)। म० ४। व्यापारम्। (चरामि)। करोमि। (धनेन)। मूलधनेन। (धनम्)। सलाभं धनम्। (इच्छमानः)। कामयमानः। (तत्)। धनम्। (मे)। मह्यम्। (भूयः)। द्विवचनविभज्योपदे तरबीयसुनौ। पा० ५।३।५७। इति बहु-ईयसुन् बहोर्लोपो भू च बहोः पा० ६।४।१५८। इति ईलोपो भू च बहोः। बहुतरम्। (मा)। न। (कनीयः)। युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्। पा० ६।४।६४। इति अल्प-ईयसुन्, कनादेशः। अल्पतरम्। (अग्ने)। म० ३। (सातघ्नः)। षणु दाने-क्त भावे। सातं लाभः। हन वधे गतौ च-क्विप्। शसि रूपम्। लाभहन्तॄन्। लाभनाशकान्। (देवान्)। दिवु क्रीडास्तुतिमोदमदादिषु, अत्र मदे-अच्। मत्तान् मूर्खान्। (हविषा)। भक्त्या। (निषेध)। षिधु गत्याम्। उपसर्गात् सुनोति पा० ८।३।६५। इति षत्वम् निवाराय ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(দেবাঃ) হে ব্যবহার অর্থাৎ ব্যবসার/বাণিজ্যের দিব্য অধ্যক্ষগণ! (ধনম্, ইচ্ছমানঃ) ধন অভিলাষী/কামনাকারী/কামনা করে, (যেন ধনেন) যেই মূল ধনের দ্বারা (প্রপণম্ চরামি) আমি বাণিজ্যিক বস্তুসমূহের ক্রয় করি, (তত্ মে) সেই আমার মূলধন (ভূয়ঃ, ভবতু) বাড়তে থাকুক/বৃদ্ধি/সমৃদ্ধ হোক, (কনীয় মা) কম না হোক, (অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ! (সাতঘ্নঃ) লাভ হননকারী (দেবান্) অন্য বিজিগীষু ব্যবসায়ীদের/বণিকদের (হবিষা) হব্যাংশ দ্বারা (নিষেধ) বাধা দেওয়ার থেকে নিবারিত করুন।
टिप्पणी
[সাতঘ্নঃ= সাতং লাভং ঘ্নন্তীতি সাতঘ্নঃ (সায়ণ) দেবান্=দিবু ক্রীডাবিজিগীষা....(দিবাদিঃ), অর্থাৎ প্রতিস্পর্ধায় ব্যবসায় নিজ বিজয়াকাঙ্ক্ষী/বিজয়-অভিলাষী ব্যবসায়ী। এঁদের আমাদের ব্যবসা থেকে প্রাপ্ত অর্থের ভাগ দিয়ে সন্তুষ্ট করে প্রতিস্পর্ধা/প্রতিদ্বন্দ্বিতা/প্রতিযোগিতা থেকে নিবারিত করুন, ইহা প্রধানমন্ত্রীকে বলা হয়েছে।]
मन्त्र विषय
ব্যাপারলাভোপদেশঃ
भाषार्थ
(দেবাঃ) হে ব্যবহার-কুশল ব্যবসায়ীগণ ! (ধনেন) মূলধন থেকে (ধনম্) ধন (ইচ্ছমানঃ) অভিলাষী আমি (যেন ধনেন) যে ধনের মাধ্যমে (প্রপণম্) বাণিজ্য (চরামি) সঞ্চালিত করি, (তৎ) সেই ধন (মে) আমার জন্য (ভূয়ঃ) অধিক-অধিক (ভবতু) হোক, (কনীয়ঃ) স্বল্প (মা) না [হোক]। (অগ্নে) হে অগ্নিসদৃশ তেজস্বী বিদ্বান্ ! (সাতঘ্নঃ) লাভ নাশক (দেবান্) মূর্খদের (হবিষা) আমাদের ভক্তি দ্বারা (নিষেধ) রোধ করো ॥৫॥
भावार्थ
নবশিক্ষিত বণিক বড়ো-বড়ো ব্যবসায়ীদের থেকে লাভ-ক্ষতির রীতিনীতি বুঝে নিজের মূল ধন বৃদ্ধি করতে থাকুক এবং কুব্যবহারীদের ফাঁদে যেন না পড়ে॥৫॥
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