अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - विक्रयः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा विराडत्यष्टिः
सूक्तम् - वाणिज्य
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इ॒माम॑ग्ने श॒रणिं॑ मीमृषो नो॒ यमध्वा॑न॒मगा॑म दू॒रम्। शु॒नं नो॑ अस्तु प्रप॒णो वि॒क्रय॑श्च प्रतिप॒णः फ॒लिनं॑ मा कृणोतु। इ॒दं ह॒व्यं सं॑विदा॒नौ जु॑षेथां शु॒नं नो॑ अस्तु चरि॒तमुत्थि॑तं च ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । अ॒ग्ने॒ । श॒रणि॑म् । मी॒मृ॒ष॒: । न॒: । यम् । अध्वा॑नम् । अगा॑म । दू॒रम् । शु॒नम् । न॒: । अ॒स्तु॒ । प्र॒ऽप॒ण: । वि॒ऽक्रय । च॒ । प्र॒ति॒ऽप॒ण: । फ॒लिन॑म् । मा॒ । कृ॒णो॒तु॒ । इ॒दम् । ह॒व्यम् । स॒म्ऽवि॒दा॒नौ । जु॒षे॒था॒म् । शु॒नम् । न॒: । अ॒स्तु॒ । च॒रि॒तम् । उत्थि॑तम् । च॒ ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इमामग्ने शरणिं मीमृषो नो यमध्वानमगाम दूरम्। शुनं नो अस्तु प्रपणो विक्रयश्च प्रतिपणः फलिनं मा कृणोतु। इदं हव्यं संविदानौ जुषेथां शुनं नो अस्तु चरितमुत्थितं च ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । अग्ने । शरणिम् । मीमृष: । न: । यम् । अध्वानम् । अगाम । दूरम् । शुनम् । न: । अस्तु । प्रऽपण: । विऽक्रय । च । प्रतिऽपण: । फलिनम् । मा । कृणोतु । इदम् । हव्यम् । सम्ऽविदानौ । जुषेथाम् । शुनम् । न: । अस्तु । चरितम् । उत्थितम् । च ॥१५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यापार के लाभ का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्नि सदृश तेजस्वी विद्वान् ! (नः) हमारी (इमाम्) इस (शरणिम्) पीड़ा को [उस मार्ग में] (मीमृषः) तूने सहा है (यम् दूरम् अध्वानम्) जिस दूर मार्ग को (अगाम) हम चले गये हैं। (नः) हमारा (प्रपणः) क्रय [मोल लेना] (च) और (विक्रयः) विक्री (शुनम्) सुखदायक (अस्तु) हो, (प्रतिपणः) वस्तुओं का लौट-फेर (मा) मुझको (फलिनम्) बहुत लाभवाला (कृणोतु) करे। (संविदानौ) एक मत होते हुए तुम दोनों [हम और तुम] (इदम् हव्यम्) इस भेंट को (जुषेथाम्) सेवें। (नः) हमारा (चरितम्) व्यापार (च) और (उत्थितम्) उठान [लाभ] (शुनम्) सुखदायक (अस्तु) होवे ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य विनयपूर्वक अपनी चूक मानकर विद्वानों की सम्मति से अपना सुधार करते हैं, वे व्यापार में अधिक लाभ उठाकर आनन्द पाते हैं ॥४॥ इस मन्त्र की प्रथम पङ्क्ति कुछ भेद से ऋ० म० १ सू० ३१ म० १६ में है ॥
टिप्पणी
४−(अग्ने)। म० ३। (शरणिम्)। अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। इति शॄ हिंसायाम्-अनि। हिंसाम्। प्रमादरूपां पीडाम्। (मीमृषः)। मृष तितिक्षायाम् लुङ्, अडभावः। स्वार्थिको णिच्। त्वं क्षमितवानसि। (नः)। अस्माकम्। (अध्वानम्)। अदेर्ध च। उ० ४।११६। इति अद भक्षणे। यद्वा, अदि बन्धने क्वनिप्, दस्य घः। मार्गम्। (अगाम)। इण् गतौ-लुङ्। वयं गतवन्तः। (दूरम्)। अ० ३।३।२। विप्रकृष्टदेशम्। (शुनम्)। अव्ययम्। गेहे कः। पा० ३।१।१४४। इति शुन गतौ-क। सुखनाम-निघ० ३।६। सुखप्रदः। (प्रपणः)। षण व्यवहारे-अच्। क्रयः। व्यापारः। (विक्रयः) एरच्। पा० ३।३।५६। इति वि+क्रीञ् द्रव्यविनिमये-अच्। विक्रयणम्। विपणनम्। (प्रतिषणः)। षण-अच्। सलाभमूल्यस्वीकारेण परेभ्यः प्रदानम्। (फलिनम्)। बहुलाभयुक्तम्। (मा)। माम्। (कृणोतु)। करोतु। (हव्यम्)। हविः। (संविदानौ)। अ० २।२८।२। संगच्छमानौ। ऐकमत्यं प्राप्तौ। अहं च त्वं च। (जुषेथाम्)। युवां सेवेथाम्। (चरितम्)। चर-क्त। अनुष्ठानम्। विक्रयादि-कर्म। (उत्थितम्)। उद्+ष्ठा-क्त। सलाभं धनम् ॥
विषय
प्रपणः विक्रयः च
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (न:) = हमारी (इमम्) = इस (शरणिम्) = प्रवास के कारण होनेवाली व्रतलोपरूपी हिंसा को (मीमृष:) = क्षमा [सहन] करो, चूँकि (यम् दूरं अध्यानम् अगाम) = जिन दूर मार्ग पर हम आये हुए हैं, मार्ग में सब सुविधा न होने से हम अग्निहोत्र के व्रत का पालन नहीं कर सके हैं, उसे आप क्षमा करेंगे। २. आपकी कृपा से (नः) = हमारा (प्रपण:) = क्रय (च) = और (विक्रयः) = विक्रय (शुनं अस्तु) = सुखप्रद हो। (प्रतिपण:) = वस्तुओं का लौट-फेर (मा) = मुझे (फलिनं कृणोतु) = फलवाला करे। हे इन्द्र और अग्ने! (संविदानौ) = आप ऐकमत्य को प्राप्त हुए-हुए (इदं हव्यं जुषेथाम्) = इस हव्य का सेवन करें। (नः) = हमारे (चरितम्) = सब व्यापार-व्यवहार (उत्थितं च) = और उससे होनेवाला लाभ (शुनं अस्तु) = सुखदायक हो।
भावार्थ
मार्ग में घर से दूर होने पर कई बार अग्निहोत्र आदि व्रतों का लोप हो जाता है, उसे प्रभु क्षमा करेंगे। प्रभु के अनुग्रह से हमारा क्रय-विक्रय सुखद हो। वस्तुओं का विनिमय लाभप्रद हो। व्यापार व व्यवहारजनित सब लाभ सुखकारी हों। इन्द्र और अग्नि की हमें अनुकूलता प्राप्त हो। प्रभु-वन्दन व अग्निहोत्र से हमारा व्यापार सफल हो।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (यम् अध्वानम्) जिस मार्ग पर (दूरम्) दूर तक (अगाम) हम चले गये हैं, (न:) हमारी (इमाम् शरणिम्) इस आज्ञा भंग को (मीमृषः) तू सहन कर। (प्रपण:) व्यापारिक वस्तुओं का खरीदना अर्थात् क्रय करना, (विक्रय: च:) और उसका बेचना (न:) हमारे लिए (शुनम् अस्तु) सुखरूप हो तथा (प्रतिपणः) प्रत्येक वस्तु का बेचना (मा) मुझ प्रत्येक को (फलिनम् कृणोतु) फल लाभ करने वाला करे। (संविदानौ) तुम दोनों एकमत हुए (इदम् हव्यम्) इस हविः का (जुषेथाम्) सेवन करो। (चरितम्) खरीद में तथा विक्रय में संचरित अर्थात् लगाया गया धन, (च) और (उत्थितम्) उससे उठा अर्थात् प्राप्त हुआ लाभ, (न:) हम प्रत्येक प्रजाजन को (शुनम् अस्तु) सुखरूप हो।
टिप्पणी
[(मीमृष:) प्रधानमन्त्री ने व्यापारार्थ जिन देशों में जाने का निर्देश दिया था, क्रय के लिए उन देशों के दूर के देशों में भी चले जाना आज्ञाभंग है, इसे सहन करने की प्रार्थना व्यापारियों ने की है। हव्य है विक्रय-प्राप्त धनलाभ [उत्थितम्], इसका सेवन व्यापारी तथा राष्ट्र को ऐकमत्य होकर करना चाहिए। "हव्य" को यज्ञिय-हव्य जानना चाहिए, अत: इसके बाँटने में व्यापारी और प्रधानमन्त्री में वैमत्य न होना चाहिए, अपितु धर्म भावना से इसका विभाग करना चाहिए। यह विभाग राष्ट्र की सम्पत्ति है, व्यक्तिरूप प्रधानमंत्री की नहीं। मीमृष:= मृष तितिक्षायाम् (दिवादिः; चुरादिः), तितिक्षा है सहन करना। शुनम् सुखनाम (निघं० ३।६)]
विषय
वणिग्-व्यापार का उपदेश ।
भावार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन् या साक्षिन् ! जामिन ! दोनों के बीच के मध्यस्थ पुरुष ! (इमाम्) इस (नः) हमारी (शरणिम्) पीड़ा, थकान को (मीमृषः) क्षमा कर, सहन कर, दूर कर । (यम्) जिस (अध्वानं) मार्ग को हम (दूरम्) दूर तक (अगाम) चले जावें और (नः) हमारा (प्रपणः) अपने पदार्थ को दूसरे के हाथ बेचने के लिये उसका भाव=दर नियत करना और (विक्रयश्च) उसको दूसरे के हाथ बेच देना और (प्रतिपणः) दूसरे के पदार्थ को स्वयं प्राप्त करने के लिये दर नियत करना, ये सब व्यवहार (नः) हमारे लिये (शुनं) शुभ, सुखकारी या अतिशीघ्र (अस्तु) हो जायं । यह सब व्यवहार (मां) मुझ को (फलिनं) बहुत फल, लाभ प्राप्त करने में समर्थ (कृणोतु) करे । मध्यस्थ कहता है कि - हे व्यवहार, व्यापार करने वाले व्यापारियो ! तुम दोनों (इदं हव्यं) इस लेन देन के पदार्थ को (संविदानौ) खूब अच्छी प्रकार से परस्पर सलाह करके (जुषेथां) प्राप्त करो जिससे (नः) हमारा (चरितम्) यह किया हुआ व्यापार, या चलान किया गया माल और (उत्थितं च) उठाया हुआ नफा भी (नः शुनं अस्तु) हमें सुखकारी हो ।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘न इममध्वानं यमगामदूरात्’ इति ऋ० । (तृ०) ‘पणोनो अस्तु’ (च०) ‘गोधनिः नः कृणोतु’ (प्र०) ‘संरराणाः हविरिदं जुषन्तां’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पण्यकामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः उत इन्द्राग्नी देवताः। १ भुरिक्, ४ त्र्यवसाना बृहतीगर्भा विराड् अत्यष्टिः । ५ विराड् जगती । ७ अनुष्टुप् । ८ निचृत् । २, ३, ६ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Business and Finance
Meaning
Pray bear with us, Agni, leading light of the business world, forgive us this our leap forward whereby we have come so far on the way. May our sale, purchase, resale and repurchase and our exchange of goods and money be auspicious and mutually very profitable. May both the partners accept and welcome this business proposition, and let our business grow higher and ever more propitious.
Subject
Purchase and sale
Translation
O adorable Lord, may you pardon this offence of ours that we have taken to such a distant path. May delightful be the deal and the sale. May the counter-deal also make me fruitful. May both of you enjoy this offering in friendly accord. May the turn-over as well as the profit be delightful to me.
Translation
Pardon us, O learned person, for this tendency of torturing others and also for this obstinacy that I have trodden the path way distant from the right one. May our sale and barter be beneficial to us and may the exchange of merchandise put me into profit. May I and you both, O wise one; agreeing to one another take the advantage of this earning and propitious and prosperous be our ventures and grains.
Translation
O God, pardon this mistake of ours, that we have travelled to a distant place, far from home. Propitious unto us be sale and barter, may interchange of merchandise enrich me. Accept, ye twain accordant, this sale and purchase! Prosperous be our ventures and profits.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अग्ने)। म० ३। (शरणिम्)। अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। इति शॄ हिंसायाम्-अनि। हिंसाम्। प्रमादरूपां पीडाम्। (मीमृषः)। मृष तितिक्षायाम् लुङ्, अडभावः। स्वार्थिको णिच्। त्वं क्षमितवानसि। (नः)। अस्माकम्। (अध्वानम्)। अदेर्ध च। उ० ४।११६। इति अद भक्षणे। यद्वा, अदि बन्धने क्वनिप्, दस्य घः। मार्गम्। (अगाम)। इण् गतौ-लुङ्। वयं गतवन्तः। (दूरम्)। अ० ३।३।२। विप्रकृष्टदेशम्। (शुनम्)। अव्ययम्। गेहे कः। पा० ३।१।१४४। इति शुन गतौ-क। सुखनाम-निघ० ३।६। सुखप्रदः। (प्रपणः)। षण व्यवहारे-अच्। क्रयः। व्यापारः। (विक्रयः) एरच्। पा० ३।३।५६। इति वि+क्रीञ् द्रव्यविनिमये-अच्। विक्रयणम्। विपणनम्। (प्रतिषणः)। षण-अच्। सलाभमूल्यस्वीकारेण परेभ्यः प्रदानम्। (फलिनम्)। बहुलाभयुक्तम्। (मा)। माम्। (कृणोतु)। करोतु। (हव्यम्)। हविः। (संविदानौ)। अ० २।२८।२। संगच्छमानौ। ऐकमत्यं प्राप्तौ। अहं च त्वं च। (जुषेथाम्)। युवां सेवेथाम्। (चरितम्)। चर-क्त। अनुष्ठानम्। विक्रयादि-कर्म। (उत्थितम्)। उद्+ष्ठा-क्त। सलाभं धनम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ! (যম্ অধ্বানম্) যে পথে (দূরম্) দূর পর্যন্ত (অগাম) আমরা চলে গিয়েছি, (নঃ) আমাদের (ইমাম্ শরণিম্) এই আজ্ঞা ভঙ্গ (মীমৃষঃ) তুমি সহ্য করো। (প্রপণঃ) বাণিজ্যিক বস্তুসমূহের ক্রয় করা, (বিক্রয়ঃ চ) এবং সেগুলোর বিক্রয় (নঃ) আমাদের জন্য (শুনম্ অস্তু) সুখরূপ হোক এবং (প্রতিপণঃ) প্রত্যেক বস্তুর বিক্রয় (মা) আমাকে [প্রত্যেককে] (ফলিনম্ কৃণোতু) ফল লাভকারী করুক। (সংবিদানৌ) তোমরা দুজন ঐকমত্য হয়ে (ইদম্ হব্যম্) এই হবিঃ-এর সেবন করো। (চরিতম্) ক্রয় ও বিক্রয়ে সঞ্চরিত অর্থাৎ নিয়োজিত ধন, (চ) এবং (উত্থিতম্) তার থেকে ওঠা অর্থাৎ প্রাপ্ত লাভ, (নঃ) আমাদের প্রত্যেক প্রজাদের (শুনম্ অস্তু) সুখরূপ হোক।
टिप्पणी
[(মীমৃষঃ) প্রধানমন্ত্রী ব্যবসার্থে যেই দেশগুলোতে যাওয়ার নির্দেশ দিয়েছিলেন, ক্রয়ের জন্যে সেই দেশগুলোর দূরের দেশগুলোতেও চলে যাওয়া হচ্ছে আজ্ঞা ভঙ্গ করা, ইহা সহ্য করার প্রার্থনা ব্যাবসায়ীরা করেছে। হব্য হলো বিক্রয় দ্বারা প্রাপ্ত ধনলাভ [উত্থিতম্], এর সেবন/প্রয়োগ/গ্রহণ ব্যবসায়ী এবং রাষ্ট্রকে ঐকমত্য হয়ে করা উচিৎ। "হব্য" কে যজ্ঞীয়-হব্য জানা উচিত, অতঃ এর বন্টনে বণিক ও প্রধানমন্ত্রীর মধ্যে যেন না বিমত হয়, বরং ধর্ম ভাবনায় এর বিভাগ করা উচিত। এই বিভাগ রাষ্ট্রের সম্পত্তি, ব্যক্তিরূপ প্রধানমন্ত্রীর নয়। মী মীমৃষঃ = মৃষ তিতিক্ষায়াম্ (দিবাদিঃ; চুরাদি), তিতিক্ষা হল সহ্য করা। শুনম্ সুখনাম (নিঘং০ ৩।৬)॥]
मन्त्र विषय
ব্যাপারলাভোপদেশঃ
भाषार्थ
(অগ্নে) হে অগ্নি সদৃশ তেজস্বী বিদ্বান্ ! (নঃ) আমাদের (ইমাম্) এই (শরণিম্) পীড়া [সেই মার্গে] (মীমৃষঃ) তুমি সহ্য করেছো (যম্ দূরম্ অধ্বানম্) যে দূর মার্গে (অগাম) আমরা চলে গিয়েছি। (নঃ) আমাদের (প্রপণঃ) ক্রয় [মূল্য গ্রহণ] (চ) এবং (বিক্রয়ঃ) বিক্রয় (শুনম্) সুখদায়ক (অস্তু) হোক, (প্রতিপণঃ) বস্তুর আগমন-গমন/আদান-প্রদান (মা) আমাকে (ফলিনম্) অনেক লাভবান (কৃণোতু) করে/করুক। (সংবিদানৌ) ঐকমত্য তোমরা [আমি এবং তুমি] (ইদম হব্যম্) এই উপহার (জুষেথাম্) সেবন করি। (নঃ) আমাদের (চরিতম্) বাণিজ্য (চ) এবং (উত্থিতম্) উত্থান [লাভ] (শুনম্) সুখদায়ক (অস্তু) হোক ॥৪॥
भावार्थ
যে মনুষ্য বিনয়পূর্বক নিজের ভূল ত্রুটি সংশোধন করে বিদ্বানদের সম্মতিতে নিজের সংশোধন করে, তাঁরা বাণিজ্যে অধিক লাভ করে আনন্দ পায় ॥৪॥ এই মন্ত্রের প্রথম পঙ্ক্তি কিছুটা আলাদাভাবে ঋ০ ম০ ১ সূ০ ৩১ ম০ ১৬ এ আছে ॥
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