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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
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    वी॑ मे द्यावा॑पृथि॒वी इ॒तो वि पन्था॑नो॒ दिशं॑दिशम्। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । इ॒मे इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । इ॒त: । वि । पन्था॑न: । दिश॑म्ऽदिशम् । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वी मे द्यावापृथिवी इतो वि पन्थानो दिशंदिशम्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । इमे इति । द्यावापृथिवी इति । इत: । वि । पन्थान: । दिशम्ऽदिशम् । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमे) ये दोनों (द्यावापृथिव्यौ) सूर्य और पृथिवी (वि) अलग-अलग (इतः) चलते हैं, (पन्थानः) सब मार्ग (दिशंदिशम्) दिशा दिशा को (वि=वियन्ति) अलग-अलग जाते हैं। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥४॥

    भावार्थ

    सूर्य पृथिवी और मार्ग अलग-अलग रहकर संसार का क्लेश हरते हैं, ऐसे ही सब मनुष्य दुःख का नाश करके सुख भोगें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(इमे) परिदृश्यमाने। (द्यावापृथिव्यौ) अ० २।१।४। सूर्यभूमी। (इतः) गच्छतः। (पन्थानः) मार्गाः। (वि) वियन्ति। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    - पापों से इतना दूर जितना कि धुलोक पृथ्विीलोक से

    पदार्थ

    १. परिदृश्यमान (इमे) = ये (द्यावापृथिवी) = युलोक व पृथिवीलोक (वि इत:) = स्वभावतः अलग अलग ही हैं। इसीप्रकार मैं भी पाप से उतना ही दूर होऊँ जितना कि धुलोक पृथ्विीलोक से। २. (दिशं दिशम्) = एक ग्राम से प्रत्येक दिशा में जाते हुए (पन्थान:) = मार्ग (वि) = स्वभावतः ही विगत व पृथगवस्थान होते हैं, इसीप्रकार मैं भी पापों से भिन्न मार्गवाला होता हूँ। मैं पापों से पृथक् होता है, रोगों से पृथक् होता हूँ और दीर्घजीवन से संगत होता हूँ।

    भावार्थ

    पापों से मैं इतनी दूर होऊँ जितना कि धुलोक पृथिवीलोक से। पापों व रोगों का तथा मेरा मार्ग भिन्न-भिन्न दिशाओं में हो। इसप्रकार मेरा जीवन दीर्घ व उत्कृष्ट हो।

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    भाषार्थ

    (इमे) ये (द्यावापृथिवी) द्यौ-और-पृथिवी (वि इतः) विगत हैं, परस्पर वियुक्त हैं, (पन्थान:) मार्ग (दिशंदिशम्) प्रतिदिशा में (वि) विगत होते हैं, अर्थात् केन्द्र स्थान से भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाते हैं; इसी प्रकार (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ और (आयुषा) स्वस्थ आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊँ।

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (इमे द्यावापृथिवी वि इतः) ये दोनों आकाश और पृथिवी पृथक २ हुए हुए हैं, और जिस प्रकार (पन्थानः) बहुत से मार्ग (दिशं-दिशम् वि यन्ति) भिन्न २ दिशाओं में चले जाते हैं उस प्रकार (अहं सर्वेण पाप्मना वि) मैं स्वयं सब पापों से परे रहूं और (यक्ष्मेण वि) सब रोगों से मुक्त और (आयुषा सम्) आयु से सम्पन रहूं और हे शिष्य ! तुझे भी ऐसा ही करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। पाप्महा देवता। १-३, ६-११ अनुष्टुभः। ७ भुरिग। ५ विराङ् प्रस्तार पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    This heaven and this earth are separate. Various paths go in different directions. Let me too be free from all sin, free from cancer and consumption, and happy with good health and long age.

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    Translation

    These heaven and earth are parted from each other, and parted are the ways going in different directions. So I free this man from all the evil and from wasting disease. I unite you with a long life.

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    Translation

    Parted are the heavenly region and the earth and parted are. the paths leading to various directions-etc-etc. etc.

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    Translation

    Just as heaven and earth are parted, and paths run separate in each direction so may I remain aloof from all sins and pulmonary disease. May I be linked with old age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(इमे) परिदृश्यमाने। (द्यावापृथिव्यौ) अ० २।१।४। सूर्यभूमी। (इतः) गच्छतः। (पन्थानः) मार्गाः। (वि) वियन्ति। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ইমে) এই (দ্যাবাপৃথিবী) দ্যৌ-এবং-পৃথিবী (বি ইতঃ) বিগত, পরস্পর বিযুক্ত, (পন্থানঃ) মার্গ (দিশংদিশম্) প্রতিদিশায় (বি) বিগত হয়, অর্থাৎ কেন্দ্র স্থান থেকে ভিন্ন-ভিন্ন দিশায় যায়। এইভাবে (অহম্) আমি যেন (সর্বেণ পাপ্মনা) সব পাপ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (যক্ষ্মেণ) যক্ষ্মা রোগ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই এবং (আয়ুষ) সুস্থ আয়ুর সাথে (সম্) সংযুক্ত হয়ে যাই।

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    मन्त्र विषय

    আয়ুর্বর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইমে) এই দুই (দ্যাবাপৃথিবী) সূর্য ও পৃথিবী (বি) পৃথক-পৃথকভাবে (ইতঃ) চলে/গমন করে/গতিশীল, (পন্থানঃ) সকল মার্গ (দিশংদিশম্) দিকে দিকে (বি=বিযন্তি) পৃথক-পৃথকভাবে যায়। (অহম্) আমি (সর্বেণ) সকল (পাপ্মনা) পাপ কর্ম থেকে (বি) আলাদা এবং (যক্ষ্মেণ) রাজরোগ, ক্ষয়ী ইত্যাদি থেকে (বি=বিবর্ত্তৈ) পৃথক-পৃথকভাবে থাকি এবং (আয়ুষা) জীবনে [উৎসাহের] সহিত যেন (সম্=সম্ বর্তে) মিলে থাকি/সঙ্গত থাকি ॥৪॥

    भावार्थ

    সূর্য পৃথিবী ও মার্গ পৃথক-পৃথক থেকে সংসারের ক্লেশ হরন করে, এভাবেই সমস্ত মনুষ্য দুঃখের নাশ করে সুখ ভোগ করুক॥৪॥

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