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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
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    अ॒मा कृ॒त्वा पा॒प्मानं॒ यस्तेना॒न्यं जिघां॑सति। अश्मा॑न॒स्तस्यां॑ द॒ग्धायां॑ बहु॒लाः फट्क॑रिक्रति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मा । कृ॒त्वा । पा॒प्मान॑म् । य: । तेन॑ । अ॒न्यम् । जिघां॑सति । अश्मा॑न: । तस्या॑म् । द॒ग्धाया॑म् । ब॒हु॒ला: । फट् । क॒रि॒क्र॒ति॒ ॥१८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमा कृत्वा पाप्मानं यस्तेनान्यं जिघांसति। अश्मानस्तस्यां दग्धायां बहुलाः फट्करिक्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमा । कृत्वा । पाप्मानम् । य: । तेन । अन्यम् । जिघांसति । अश्मान: । तस्याम् । दग्धायाम् । बहुला: । फट् । करिक्रति ॥१८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो पुरुष (तेन अमा) चोर वा म्लेच्छ के साथ होकर (पाप्मानम्) पाप कर्म (कृत्वा) करके (अन्यम्) दूसरे को (जिघांसति) मारना चाहे, (बहुलाः) वृद्धि करनेवाले (अश्मानः) व्यापनशील वा पाषाण के समान दृढ़स्वभाव पुरुष (तस्याम्) उस [दुष्क्रिया] के (दग्धायाम्) भस्म किये जाने पर (फट्) [उस दुष्ट का] नाश (करिक्रति) कर डाले ॥३॥

    भावार्थ

    जो पुरुष दुष्टों से मिल कर लोगों में उपद्रव मचावे, राजपुरुष अनुसन्धान करके उस को यथावत् दण्ड देवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अमा) अम गतौ-का। सह (कृत्वा) (पाप्मानम्) अ० ३।३१।१। पाति यस्मात् स पाप्मा। पापम् (यः) शत्रुः (तेन) तर्द हिंसे-ड। तर्दति हिनस्तीति तः। चौरः। म्लेच्छः। चोरेण। पामरेण (अन्यम्) सत्कर्माणम् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (अश्मानः) अ० १।२।२। व्यापनशीलाः पाषाणवद् दृढस्वभावा वा राजपुरुषाः (तस्याम्) पूर्वोक्तायां कृत्यायाम्-म० २। (दग्धायाम्) भस्मीकृतायां नष्टायां सत्याम् (बहुलाः) अ० ३।१४।६। वृद्धिशीलाः (फट्) ञिफला विशरणे-क्विप्। डलयोरैक्यम्। तस्य विशीर्णम् (करिक्रति) करोतेर्यङ्लुगन्तात् लेटि। रुग्रिकौ च लुकि। पा० ७।४।९१। इति अभ्यासस्य रिगागमः। पुनः पुनः कुर्वन्तु ॥

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    विषय

    गूढ़ शत्रु

    पदार्थ

    १. (यः) = जो छिपा शत्रु [गूढ शत्रु] (अमा) = अनुकूल की भाँति साथ रहता हुआ (पाप्मानं कृत्वा) = हिंसा का षड्यन्त्ररूप पाप करके (तेन) = उस पाप से अन्य (जिघांसति) = दूसरे को मारने की इच्छा करता है तो (तस्यां दग्धायाम्) = उस हिंसा-प्रयोग के प्रचलित होने पर (बहुला: अश्मान:) = बहुत-से [कितने ही] पत्थर (फट् करिक्रति) = उस शत्रु का ही (पुनः) = पुनः हिंसन करते हैं। जिस बारूद का प्रयोग यह मूढ़ दूसरे के हिंसन के लिए करता है, उससे यह स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

     

    भावार्थ

    मित्र के रूप में वर्तनेवाला गूढ़ शत्रु जिस हिंसा का प्रयोग दूसरे के लिए करता है, उस हिंसा के प्रयोग से वह स्वंय हिसित हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (अमा) घर में घुसकर, (पाप्मानम्) पापकर्म अर्थात हिंस्रकर्म (कृत्वा) करके, (यः) जो [पापी] (तेन) उस कर्म द्वारा (अन्यम्) अन्य की (जिघांसति) हत्या करना चाहता है, (तस्याम्, दग्धायाम्) उसकी दग्ध हुई चिता में, (बहुलाः, अश्मान्) बहुत पत्थर [अर्थात् उनकी बौछाड़] (फट्) फट-फट (करिक्रति) बार-बार आवाजें करें।

    टिप्पणी

    [ऐसे पापी को मारकर, उसे चिता पर रखकर दग्ध करने का विधान मन्त्र में हुआ है। साथ ही जलती चिता पर घृणाप्रदर्शनार्थ, पत्थरों की बौछाड़ का भी कथन किया है, जिससे कि पत्थरों के परस्पर टकराने से बार-बार फट-फट् नाना आवाजें उठें। उग्र पापकर्म के लिए यह दण्ड है। करिक्रति =”करोतेयेङ्लुगन्तात् पञ्चमलकारे ‘रुग्रिकौ च लुकि’ (अष्टा० ७।४।९१) इति अभ्यासस्य रिगागमः” (सायण)।]

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    विषय

    ‘अपामार्ग’ विधान का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो कोई पुरुष (पाप्मानं कृत्वा) पाप, घातक या विस्फोटक प्रयोग (अमा) किसी के साथ करके, या कच्चे पात्र में करके (तेन) उससे ही (अन्यं) दूसरे पुरुष को (जिघांसति) मार देना चाहता है (तस्यां) उस घातक प्रयोग के (दग्धायां) नष्ट या ज्वलित हो जाने पर (बहुलाः अश्मानः) बहुत से पत्थर या शस्त्रास्त्र (फट् करिक्रति) फट कर उसका स्वयं विनाश करते हैं। पाप कर्मों के करने वाले को अथवा दूसरों की जान लेने वालों को पत्थरों से मार मार कर प्राणदण्ड हो। अथवा (बहुलाः अश्मानः) बहुत से शिला के समान कठोर जल्लाद उसको बराबर (फट् करिक्रति) ताड़ना किया करें । वेद में ‘संगसार’ करने का दण्ड अपने पाप कर्म से अन्यों के हिंसा करने वालों के लिये विधान किया गया हैं।

    टिप्पणी

    ं० ‘ग्रिफिथ’ के मत में—(अमा कृत्वा पाप्मानं) कच्चे मट्टी के बर्तन में ‘पाप्मा’ विस्फोटक पदार्थ रखकर (यः तेन अन्यं जिघांसति) जो उससे अन्य को मारना चाहता है (तस्यां दग्धायां अश्मानः बहुला फट् करिक्रति) उसके जलाने पर बहुत से पत्थर के टुकड़े ‘फट्’ आवाज़ करके फूटते हैं। इस प्रकार विस्फोट ‘बाम्ब’ या डिनामाइट् रचने की विधि प्रतीत होती है। वास्तव में यह प्रति दृष्टान्त है। अर्थात् जिस प्रकार कोई कच्चे बर्त्तन में बारूद रखकर दूसरे पर चलाना चाहे तो वह बारूद आग लगते ही स्वयं फट कर उसको लगती है उसी प्रकार दूसरे के ऊपर घातक प्रयोग करने वाले को उसका पाप स्वयं फूटकर उस पर दण्डकारी होता है। ३

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। १-५, ७, ८ अनुष्टुभः। ६ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apamarga Panacea

    Meaning

    Having planned an evil act at home, if a person hurts and kills another person with that, then, when that evil act is accomplished and ignited, imumerable stones would burst forth and destroy the evil doer.

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    Translation

    Having prepared poison, when one wants to kill another with it, then if the dish (containing poison) is burnt on a fire, it will make a sound of breaking many stones-fut ( phat - phat.)

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    Translation

    Who-so-ever putting on explosive material in unbaked pot deserves to kill other man through it receives explosive destruction reverted to him when many stones on being that pot baked crack.

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    Translation

    If a person, in alliance with a thief or a dacoit, committing a sin, desires to kill another, let the energetic man, stony-hearted Government officials, on the failure of his plan, bring about the destruction of that evil-minded person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अमा) अम गतौ-का। सह (कृत्वा) (पाप्मानम्) अ० ३।३१।१। पाति यस्मात् स पाप्मा। पापम् (यः) शत्रुः (तेन) तर्द हिंसे-ड। तर्दति हिनस्तीति तः। चौरः। म्लेच्छः। चोरेण। पामरेण (अन्यम्) सत्कर्माणम् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (अश्मानः) अ० १।२।२। व्यापनशीलाः पाषाणवद् दृढस्वभावा वा राजपुरुषाः (तस्याम्) पूर्वोक्तायां कृत्यायाम्-म० २। (दग्धायाम्) भस्मीकृतायां नष्टायां सत्याम् (बहुलाः) अ० ३।१४।६। वृद्धिशीलाः (फट्) ञिफला विशरणे-क्विप्। डलयोरैक्यम्। तस्य विशीर्णम् (करिक्रति) करोतेर्यङ्लुगन्तात् लेटि। रुग्रिकौ च लुकि। पा० ७।४।९१। इति अभ्यासस्य रिगागमः। पुनः पुनः कुर्वन्तु ॥

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