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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मृगारः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    य उ॒ग्रीणा॑मु॒ग्रबा॑हुर्य॒युर्यो दा॑न॒वानां॒ बल॑मारु॒रोज॑। येन॑ जि॒ताः सिन्ध॑वो॒ येन॒ गावः॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । उ॒ग्रीणा॑म् । उ॒ग्रऽबा॑हु: । य॒यु: । य: । दा॒न॒वाना॑म् । बल॑म् । आ॒ऽरु॒रोज॑ । येन॑ । जि॒ता: । सिन्ध॑व: । येन॑ । गाव॑: । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उग्रीणामुग्रबाहुर्ययुर्यो दानवानां बलमारुरोज। येन जिताः सिन्धवो येन गावः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । उग्रीणाम् । उग्रऽबाहु: । ययु: । य: । दानवानाम् । बलम् । आऽरुरोज । येन । जिता: । सिन्धव: । येन । गाव: । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पूर्ण सुख पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (ययुः) शीघ्रगामी परमात्मा (उग्रीणाम्) प्रचण्ड सेनाओं के (उग्रबाहुः) भुजाओं का प्रचण्ड करनेवाला है, (यः) जिसने (दानवानाम्) छेदनशील राक्षसों का (बलम्) बल (आरुरोज) तोड़ दिया है, (येन) जिस परमेश्वर करके (सिन्धवः) जल और (येन) जिस करके (गावः) वायु, सूर्य, और भूलोक (जिताः) जीते गये हैं, (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥२॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर ने सब विघ्नों का नाश करके जल पृथिवी आदि पदार्थों को उपकारी बनाया है, उसीकी उपासना से हम अपना सामर्थ्य बढ़ाकर क्लेशों से बचें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) इन्द्रः (उग्रीणाम्) षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति उग्र-ङीप्। उग्रस्व भावानां प्रजानां सेनानां वा (उग्रबाहुः) उग्रा बाहवो यस्मात् स तथाभूतः। अतिशयेन बलदाता, इत्यर्थः (ययुः) यो द्वे च। उ० १।२१। इति या प्रापणे-उ प्रत्ययः, द्वित्वं च। शीघ्रगामी (दानवानाम्) दो अवखण्डने-ल्युट्। इति दानं छेदनम्। ततः छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति-व प्रत्ययो मत्वर्थे। छेदनशीलानां राक्षसानाम् (बलम्) सामर्थ्यम् (आ-रुरोज) रुजो भङ्गे-लिट्। सर्वतो बभञ्ज (येन) इन्द्रेण (जिताः) वशीकृताः (सिन्धवः) स्यन्दनशीलानि जलानि (गावः) गच्छतीति गौः। वायुसूर्यभूलोकाः। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    येन जित: सिन्धवः, येन गाव:

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (उग्रबाहुः) = उद्गुणहस्त-तेजस्वी भुजाओंवाला प्रभु (उग्रीणाम्) = उद्गुर्ण-प्रबल शत्रसेनाओं का (ययुः आक्रान्ता) = है-शत्रुसेनाओं पर आक्रमण करके उन्हें पराजित करनेवाला है। (यः) = जो प्रभु (दानवानाम्) = राक्षसी वृत्तिवालों के (बलम् आरुरोज) = सैन्य का भंग करता है-या सामर्थ्य को नष्ट करता है। २. (येन) = जिस प्रभु के द्वारा हमारे लिए (सिन्धवः) = नदियों को जिता-विजय किया जाता है और (येन) = जिस प्रभु से (गाव:) = भूमि का विजय किया जाता है। अध्यात्म में (सिन्धवः) = स्यन्दशील रेत:कण हैं तथा (गाव:) = ज्ञान की वाणियाँ हैं। प्रभु ही हमारे लिए इन रेत:कणों के रक्षण के द्वारा बुद्धि को तीन करके ज्ञान की वाणियों को प्राप्त कराते हैं। (सः न: अंहसः मुञ्चतु) = वे प्रभु हमें पापों से मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे प्रबल शत्रुसैन्य पर आक्रमण करते हैं, दानवों के बल का भंग करते हैं। ये प्रभु ही हमारे लिए नदियों और भूमियों का विजय करते हैं। वे प्रभु हमें पापों से मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (यः) जो [इन्द्र] (उग्रवाहुः) उग्रबाहु हुआ (उग्रीणाम्) उग्र दानव सेनाओं को (ययुः) हमसे पृथक् करता हैं, (य:) जिसने (दानवानाम्) दानवों के (बलम्) बल को (आरुरोज) पूर्णतया भग्न किया है, (येन) जिसने (सिन्धवः) सिन्धुओं तथा (गाव:) गौओं को (जिताः) जीत लिया है, (सः) वह [इन्द्र] (न:) हमें (अंहस:) पाप से (मुञ्चतु) छुड़ाए।

    टिप्पणी

    [ययुः= "यो द्वे च" (उणा० १।२१) द्वारा 'डु:' प्रत्ययः (सायण)। यु अमिश्रणे (अदादिः), अमिश्रण= पृथक्करण। दानवानाम्= दान खण्डने+व: (उणा० १।१५५), नाशक काम क्रोध आदि। (सिन्धवः= स्यन्दन करनेवाले मेपस्थ जल। स्यन्दनशील मेघस्था: आपः यद्वा: नद्य: समुद्रः वा (सायण)। गाव:= आपः [जल] (उणा० २।६८; दयानन्द)]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (उग्र-बाहुः) बलशाली भुजा वाला सर्व शक्तिमान् होकर (उग्रीणां) उग्र शक्तियों का (ययुः) परस्पर संगत करके एक साथ चलाने वाला है और (यः) जो (दानवानां) छेदन भेदन करने वाले या परस्पर को एक दूसरे में समर्पित कर देने वाले दानव अर्थात् पञ्चभूतों के (बलं) बल सामर्थ्यों को शत्रुओं की सेना बल के समान (आ-रूरोज) शिथिल करता, तोड़ डालता है। और (येन) जिस ने (सिन्धवः) बहने वाली नदियों को भी (जिताः) वश कर लिया है और (येन) जिसने (गावः) गौओं, पृथिवियों, सूर्यों एवं गतिमान पिण्डों को भी वश में किया है (सः नः) वह परमेश्वर हमें (अंहसः मुञ्चतु) पाप से मुक्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्वितीयं मृगारसूक्तम्। १ शाक्वरगर्भा पुरः शक्वरी। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Freedom

    Meaning

    We meditate upon Indra, giver of final beatitude, lord of mightiest arms over the blazing brave, who strengthens heroic warriors and shatters the strength of demonic destroyers. He sets the running floods aflow, controls the rolling oceans, shines the stars and spins the planets, radiates the rays of light and blesses the holy cows. May that lord of power and bliss save us from sin and distress.

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    Translation

    He, who Himself of formidable arms, is the subduer of the formidable ones; who shatters the strength of the mighty self-seekers; who has conquered the oceans and the lands (gavah). As such may He free us from sin. (go = earth; land).

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    Translation

    It is this electricity which possessed of tremendous power overcomes all the great powers, which crushes the power of the clouds which do not release water, which victorious over the water-currents and which over powers the shining and moving objects. Let it be the source of driving away grief and troubles from us.

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    Translation

    May the Almighty God, Who lends strength to the warriors, who breaks and crushes the power of the demons, Who controls the running streams and the revolving planets, deliver me from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) इन्द्रः (उग्रीणाम्) षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति उग्र-ङीप्। उग्रस्व भावानां प्रजानां सेनानां वा (उग्रबाहुः) उग्रा बाहवो यस्मात् स तथाभूतः। अतिशयेन बलदाता, इत्यर्थः (ययुः) यो द्वे च। उ० १।२१। इति या प्रापणे-उ प्रत्ययः, द्वित्वं च। शीघ्रगामी (दानवानाम्) दो अवखण्डने-ल्युट्। इति दानं छेदनम्। ततः छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति-व प्रत्ययो मत्वर्थे। छेदनशीलानां राक्षसानाम् (बलम्) सामर्थ्यम् (आ-रुरोज) रुजो भङ्गे-लिट्। सर्वतो बभञ्ज (येन) इन्द्रेण (जिताः) वशीकृताः (सिन्धवः) स्यन्दनशीलानि जलानि (गावः) गच्छतीति गौः। वायुसूर्यभूलोकाः। अन्यद्गतम् ॥

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