अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
यश्च॑र्षणि॒प्रो वृ॑ष॒भः स्व॒र्विद्यस्मै॒ ग्रावा॑णः प्र॒वद॑न्ति नृ॒म्णम्। यस्या॑ध्व॒रः स॒प्तहो॑ता॒ मदि॑ष्ठः॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । च॒र्ष॒णि॒ऽप्र: । वृ॒ष॒भ: । स्व॒:ऽवित् । यस्मै॑ । ग्रावा॑ण: । प्र॒ऽवद॑न्ति । नृ॒म्णम् । यस्य॑ । अ॒ध्व॒र: । स॒प्तऽहो॑ता । मदि॑ष्ठ: । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्चर्षणिप्रो वृषभः स्वर्विद्यस्मै ग्रावाणः प्रवदन्ति नृम्णम्। यस्याध्वरः सप्तहोता मदिष्ठः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । चर्षणिऽप्र: । वृषभ: । स्व:ऽवित् । यस्मै । ग्रावाण: । प्रऽवदन्ति । नृम्णम् । यस्य । अध्वर: । सप्तऽहोता । मदिष्ठ: । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पूर्ण सुख पाने का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो परमेश्वर (चर्षणिप्रः) उद्योगी पुरुषों का मनोरथ पूरा करनेवाला, (वृषभः) सुख की वर्षा करनेवाला, श्रेष्ठ और (स्वर्वित्) स्वर्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने हारा है और (यस्मै) जिसके [आज्ञापालन के] लिये (ग्रावाणः) शास्त्रवेत्ता पण्डित जन (नृम्णम्) बल वा धन (प्रवदन्ति) बताते हैं। (यस्य) जिसका (अध्वरः) सन्मार्गदर्शक वा हिंसारहित व्यवहार (सप्तहोता) सातहोताओं से [अर्थात् विषयों के ग्रहण करने और देनेवाले त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन, और बुद्धि से] साक्षात् किया हुआ (मदिष्ठः) अतिशय आनन्ददायक है, (सः) वह (नः) हमें (अहंसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर के अनन्त सुखदायक गुणों को साक्षात् करके पुरुषार्थपूर्वक कष्टों को नाश करके आनन्द प्राप्त करें ॥३॥ यहाँ पर [सप्त प्राणान्] अ० २।१२।७। और [सप्त ऋषयः] अ० ४।११।९। इन पदों की भी व्याख्या देखो ॥
टिप्पणी
३−(यः) इन्द्रः (चर्षणिप्रः) अर्तिसृधृ०। उ० २।१०२। इति चर गतौ-अनि, षुगागमश्च। यद्वा। कृषेरादेश्च चः। उ० २।१०४। इति कृष विलेखने-अनि, आदेश्च चः। चर्षणयो मनुष्याः-निघ० २।३। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति प्रा पूरणे-क। मनुष्याणां मनोरथपूरकः। (वृषभः) अ० ४।५।१। सुखस्य वर्षकः। श्रेष्ठः (स्वर्वित्) अन्तर्गतण्यर्थः। स्वर्गस्य प्रापयिता (यस्मै) इन्द्राय (ग्रावाणः) अ० ३।१०।५। गॄ विज्ञापे-क्वनिप्। शास्त्रविज्ञापकाः। पण्डिताः (प्रवदन्ति) प्रकथयन्ति (नृम्णम्) णम प्रह्वत्वे शब्दे, च-पचाद्यच्। पृषोदरादित्वादाद्यन्तवियर्ययोऽलोपश्च। इति नृणम्, रूपं जातम्। नृम्णं च बले नॄन्नतम्-निरु० ११।९। नॄन् नमयति प्रह्वीकरोतीति। बलम्-निघ० २।९। धनम्-निघ० २।१०। (यस्य) इन्द्रस्य (अध्वरः) अ० १।४।२। सन्मार्गदाता हिंसारहितो वा व्यवहारः (सप्तहोता) सप्त+हु दानादानादनतर्पणेषु-तृच्। सप्तहोता सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नामयन्ति, सप्तैनमृषयः स्तुवन्तीति वा-निरु० ११।२३। सप्त त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयो होतारो विषयाणां ग्रहीतारो दातारः साक्षात्कर्तारो यस्य स सप्तहोता। अत्र [सप्त प्राणान्] इत्यस्य पदस्य, अ० २।१२।७। तथा [सप्तऋषयः] इति पदस्य च, अ० ४।११।९। व्याख्या द्रष्टव्या। (मदिष्ठः) मदी हर्षे=तृच्। तुश्छन्दसि। पा० ५।३।५९। इति इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयस्सु। पा० ६।४।१५४। इति तृलोपः अतिशयेन मादयिता हर्षकः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
चर्षणिप्रः, वृषभः, स्वर्वित्
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (चर्षणिप्रः) = मनुष्यों को अभिमत फलदान से प्रपूरित करनेवाले हैं, (वृषभ:) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं, (स्वर्वित्) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले हैं, (ग्रावाण:) = [विद्वांसः-शत० ३.९.३.१४] ज्ञानी स्तोता (यस्मै) = जिसकी प्राप्ति के लिए (नृम्णम्) = बल [Strength] को साधन रूप से प्रवदन्ति कहते हैं। २. (यस्य) = जिस प्रभु का (सप्तहोता:) = 'कर्णाविमौं' नासिके चक्षणी मुखम् [नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः] इन सात होताओं से चलाया जानेवाला (अध्वर:) = यह जीवन-यज्ञ (मदिष्ठः) = अतिशयेन आनन्दित करनेवाला है। जीवन को यज्ञ का रूप देते ही वह आनन्दमय बन जाता है। प्रभु ने वस्तुतः यह दिया तो इसीलिए है। (सः) = वे प्रभु (न:) = हमें (अहसः मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ
वे प्रभु हमारे अभिलषितों को पूर्ण करनेवाले, सुखों के वर्षक व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं। सबलता ही प्रभु-प्राति का साधन है। हम जीवन को यज्ञमय बनाकर प्रभु के प्रिय बनते हैं। वे प्रभु हमें पापों से मुक्त करें।
भाषार्थ
(यः) जो [इन्द्र] (चर्षणिप्रः) मनुष्यों की अभिलाषाओं को पूर्ण करता है, (वृषभः) सुखवर्षी, (स्वर्विद्) और स्वः [सुखविशेष] को प्राप्त हुआ है, (यस्य) जिसके लिए (ग्रावाणः) ग्रावा (नृम्णम्) धन का (प्रवदन्ति) कथन करते हैं; (यस्य) जिसका (अध्वरः) हिंसारहित भक्तियज्ञ (सप्तहोता) सात होताओं द्वारा निष्पन्न होता है, जो (मदिष्ठः) अति हर्षकारी है (सः) वह इन्द्र (न:) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतु) छुड़ाए।
टिप्पणी
[चर्षणिप्र:= चर्षणयः मनुष्यनाम (निघं० २।३)+ प्रा पूरणे (अदादिः)। स्वः= सुखविशेष (दयानन्द)। ग्रावाण:= गृणातेर्वा (निरुक्त ९।१।७-८); "विद्वांसो हि ग्रावाणः" (शत० ३।९।३।४)। नृम्णम्= धननाम (निघं० २।१०); बलनाम (निघं० २।९)। सप्तहोतार:= सात 'होता' ऋत्विक्१)।] [१ भक्तियज्ञ के ७ होता=पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा जीवात्मा।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
(यः) जो (चर्षणि-प्रः) मनुष्यों को पूर्ण करने वाला, (वृषभः) सब सुखों का वर्षक, (स्वः-विद्) और सुख, आनन्द, मोक्ष, प्रकाश का प्राप्त कराने वाला है। (यस्मै) जिसके (ग्रावाणः) ज्ञानी, स्तुतिकर्त्ता विद्वान् लोग (नृम्णम्) ऐश्वर्य का (प्र-वदन्ति) वर्णन किया करते हैं। (यस्य) जिसका (अध्वरः) कभी नष्ट न होने वाला संसारमय चक्र (सप्त-होता) सात होताओं द्वारा सम्पादित होता है। (सः) वह (मदिष्ठः) सब से अधिक आनन्द देने हारा परमेश्वर (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतु) मुक्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्वितीयं मृगारसूक्तम्। १ शाक्वरगर्भा पुरः शक्वरी। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer for Freedom
Meaning
He that gives fulfilment to industrious people, brings showers of generosity, illuminates the paths of bliss, for whom yajnic celebrants sing songs of exaltation, whose most ecstatic creative yajna of love and non-violence is conducted by seven priests (i.e., five elements of nature, human soul and Ratm, the cosmic law), may he save us from sin and distress.
Translation
He, who makes men perfect, who is the showerer and who is the bestower of light; for whom the pressing stones make pleasing sounds; whose sacrifice with seven priests is the most delightful; as such, may He free us from sin.
Translation
It is Indra, which fulfils the necessary tasks of men, which gives light, of whose power is the learned persons highly praise, which is most pleasure-giving to people and for whose sake the Yajna wherein seven Priests are employed is performed. Let it be the source of driving away grief and troubles from us.
Translation
May God, the Fulfiller of the aims of men, the showerer of joy, the Bestower of salvation, Whose valour is declared by the learned, Whose sweetest sacrifice of the universe is performed by the seven forces of Nature, deliver us from sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यः) इन्द्रः (चर्षणिप्रः) अर्तिसृधृ०। उ० २।१०२। इति चर गतौ-अनि, षुगागमश्च। यद्वा। कृषेरादेश्च चः। उ० २।१०४। इति कृष विलेखने-अनि, आदेश्च चः। चर्षणयो मनुष्याः-निघ० २।३। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति प्रा पूरणे-क। मनुष्याणां मनोरथपूरकः। (वृषभः) अ० ४।५।१। सुखस्य वर्षकः। श्रेष्ठः (स्वर्वित्) अन्तर्गतण्यर्थः। स्वर्गस्य प्रापयिता (यस्मै) इन्द्राय (ग्रावाणः) अ० ३।१०।५। गॄ विज्ञापे-क्वनिप्। शास्त्रविज्ञापकाः। पण्डिताः (प्रवदन्ति) प्रकथयन्ति (नृम्णम्) णम प्रह्वत्वे शब्दे, च-पचाद्यच्। पृषोदरादित्वादाद्यन्तवियर्ययोऽलोपश्च। इति नृणम्, रूपं जातम्। नृम्णं च बले नॄन्नतम्-निरु० ११।९। नॄन् नमयति प्रह्वीकरोतीति। बलम्-निघ० २।९। धनम्-निघ० २।१०। (यस्य) इन्द्रस्य (अध्वरः) अ० १।४।२। सन्मार्गदाता हिंसारहितो वा व्यवहारः (सप्तहोता) सप्त+हु दानादानादनतर्पणेषु-तृच्। सप्तहोता सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नामयन्ति, सप्तैनमृषयः स्तुवन्तीति वा-निरु० ११।२३। सप्त त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयो होतारो विषयाणां ग्रहीतारो दातारः साक्षात्कर्तारो यस्य स सप्तहोता। अत्र [सप्त प्राणान्] इत्यस्य पदस्य, अ० २।१२।७। तथा [सप्तऋषयः] इति पदस्य च, अ० ४।११।९। व्याख्या द्रष्टव्या। (मदिष्ठः) मदी हर्षे=तृच्। तुश्छन्दसि। पा० ५।३।५९। इति इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयस्सु। पा० ६।४।१५४। इति तृलोपः अतिशयेन मादयिता हर्षकः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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