अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
यस्य॒ जुष्टिं॑ सो॒मिनः॑ का॒मय॑न्ते॒ यं हव॑न्त॒ इषु॑मन्तं॒ गवि॑ष्टौ। यस्मि॑न्न॒र्कः शि॑श्रि॒ये यस्मि॒न्नोजः॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । जुष्टि॑म् । सो॒मिन॑: । का॒मय॑न्ते । यम् । हव॑न्ते । इषु॑ऽमन्तम् । गोऽइ॑ष्टौ । यस्मि॑न् । अ॒र्क: । शि॒श्रि॒ये । यस्मि॑न् । ओज॑: । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य जुष्टिं सोमिनः कामयन्ते यं हवन्त इषुमन्तं गविष्टौ। यस्मिन्नर्कः शिश्रिये यस्मिन्नोजः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । जुष्टिम् । सोमिन: । कामयन्ते । यम् । हवन्ते । इषुऽमन्तम् । गोऽइष्टौ । यस्मिन् । अर्क: । शिश्रिये । यस्मिन् । ओज: । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पूर्ण सुख पाने का उपदेश।
पदार्थ
(सोमिनः) सोम अर्थात् ऐश्वर्यवाले पुरुष (यस्य) जिस परमात्मा की (जुष्टिम्) प्रीति की (कामयन्ते) कामना करते हैं, (यम्) जिस (इषुमन्तम्) दृष्टिवाले परमात्मा को (गविष्टौ) वज्रों के दान स्थान, संग्राम में [शूर लोग] (हवन्ते) पुकारते हैं। (यस्मिन्) जिसमें (अर्कः) अन्न और (यस्मिन्) जिसमें (ओजः) पराक्रम (शिश्रिये) आश्रित हुआ है, (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥५॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के आश्रय से ऐश्वर्य, विजय, अन्न, और पराक्रम प्राप्त होते हैं, उसी के विश्वास पर हम पुरुषार्थपूर्वक दुःखों का नाश करें ॥५॥
टिप्पणी
५−(यस्य) परमात्मनः (जुष्टिम्) जुषी प्रीतिसेवनयेः-क्तिन्। प्रीतिम् (सोमिनः) सोमवन्तः। ऐश्वर्यवन्तः (कामयन्ते) अभिलषन्ति (यम्) इन्द्रम् (हवन्ते) आह्वयन्ति (इषुमन्तम्) ईषेः किच्च। उ० १।१३। इति ईष गतिहिंसादर्शनेषु-उ। ह्रस्वश्च। दर्शनवन्तम् (गविष्टौ) गौरिति वज्रम्। इत्यमरः−२३।२५। यज दाने-क्तिन्। गवां वज्राणां शस्त्राणामिष्टिर्दानं यत्र। संग्रामे (यस्मिन्) इन्द्रे (अर्कः) कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। इति अर्च पूजायाम्-क अर्कः-अन्ननाम-निघ० २।७। अर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतानि-निरु० ५।४। अन्नम् (शिश्रिये) श्रिञ् सेवायाम्-लिट्। आश्रितो बभूव (ओजः) बलम्। पराक्रमः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अर्कः, ओजः
पदार्थ
१. (सोमिन:) = सोम का [वीर्यशक्ति का] अपने अन्दर रक्षण करनेवाले संयमी पुरुष (यस्य) = जिस प्रभु की (जष्टिम) = प्रीतिपूर्वक उपासना को (कामयन्ते) = चाहते हैं, (यम) = जिस (इषमन्तम) = [इष प्रेरणे] उत्कृष्ट प्रेरणा देनेवाले प्रभु को (गविष्टौ) = ज्ञान यज्ञों में (हवन्ते) = पुकारते हैं। प्रभु-प्रेरणा ही वस्तुत: अन्तर्ज्ञान का स्रोत बनती है। २. (यस्मिन्) = जिस प्रभु में (अर्क:) = ज्ञान का सूर्य शिश्रिये आश्रय करता है, (यस्मिन् ओज:) = जिसमें बल आश्रय करता है-प्रभु ही सम्पूर्ण ज्ञान और बल के कोश हैं। (स:) = वे (प्रभुनः) = हमें (अंहसः मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ
सोमरक्षण करनेवाला संयमी पुरुष प्रभु का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है, ज्ञान-यज्ञों में इस प्रभ को ही पुकारता है। वे ही ज्ञान व बल के कोश हैं। वे प्रभु हमें ज्ञान और बल देकर पापों से मुक्त करें।
भाषार्थ
(सोमिनः) सोमयज्ञ करनेवाले (यस्य जुष्टिम्) जिसकी प्रीति की (कामयन्ते) कामना करते हैं, (गविष्टौ) जल प्राप्ति की इच्छा में, (इषुमन्तम्) वज्रधारी (यम्) जिस इन्द्र अर्थात् अन्तरिक्षीय विद्युत् का (हवन्ते) आह्वान करते हैं; (यस्मिन्) जिसमें (अर्कः) अर्चना का साधनभूत मन्त्रसमूह तथा सूर्य (शिश्रिये) आश्रय पाये हुए हैं, (यस्मिन्) जिसमें (ओज:) सब ओज आश्रय पाये हुए हैं, (सः) वह (न:) हमें (अंहसः: मुञ्चतु) पाप से छुड़ाए।
टिप्पणी
[मन्त्र ४ में 'ब्रह्म' का वर्णन हुआ है। उसी का वर्णन मन्त्र ५ में हुआ है। सोमयाजी सोमयज्ञ द्वारा उसकी प्रीति की ही कामना करते हैं। इषुमन्तम्= इन्द्र अर्थात् विद्युत् का वज्रपात तथा परमेश्वरीय न्याय द्वारा कष्टों आदि की प्राप्ति का वज्रपात। अर्क:= मंत्रसमूह "अर्क मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति" (निरुक्त ५।१।४) तथा अर्कः= सूर्यः। मन्त्र में परमेश्वर से साक्षात् पाप मोचन की प्रार्थना की गई है। गविष्टौ= गौ:= जलम् वा (उणा० २।६८: दयानन्द)+इष्टौ, इषु इच्छायाम् (तुदादि:); कृष्यादि की इच्छा से जल की याचना।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
(सोमिनः) आत्मवान्, ज्ञानी, सोम रस का आस्वादन करने वाले विद्वान् (यस्य) जिसके (जुष्टिं) प्रेम, कृपा की (कामयन्ते) आकांक्षा करते हैं, (यं) जिस (इषुमन्तं) सर्व कामनामय या सर्व-शक्तिमान् परमेश्वर की (गविष्टौ) गो अर्थात् वेदवाणियों के प्राप्त करने या ज्ञानरश्मियों के प्राप्त करने पर (हवन्ते) स्तुति करते हैं। (यस्मिन्) जिसमें (अर्कः) तेजःस्वरूप महान् सूर्य (शिश्रिये) आश्रय लेता है और जिसमें (ओजः) सब बल और कान्ति विद्यमान है, (सः नः) वह हमें (अंहसः मुञ्चतु) पाप से मुक्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्वितीयं मृगारसूक्तम्। १ शाक्वरगर्भा पुरः शक्वरी। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer for Freedom
Meaning
Whose love connoisseurs of soma ecstasy cherish, whom, on the attainment of enlightenment, devotees invoke as the lord giver of target fulfilment, in whom light of the sun finds its centre abode and lustrous might, its original source, may that lord of soma, light and power save us from sin and distress.
Translation
He, whose pleasure the drinks of devotional bliss desire; whom the arrow-shooter (suman), invoke for fulfillment of their desires; in whom the worshiper seeks shelter and in whom the vigour; as such, may He free us from sin.
Translation
It is Indra whose favorable benefit the men of learning desire, to which lightning possessor highly praise and where in is contained light and where in is contained the power. Let it be the source of driving away grief and troubles from us.
Translation
May God, whose friendship the sages long for, Whom, the Omnipotent, the learned laud on acquiring the knowledge of the Vedas, in Whom the sun takes Shelter, in Whom resides power, deliver us from sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यस्य) परमात्मनः (जुष्टिम्) जुषी प्रीतिसेवनयेः-क्तिन्। प्रीतिम् (सोमिनः) सोमवन्तः। ऐश्वर्यवन्तः (कामयन्ते) अभिलषन्ति (यम्) इन्द्रम् (हवन्ते) आह्वयन्ति (इषुमन्तम्) ईषेः किच्च। उ० १।१३। इति ईष गतिहिंसादर्शनेषु-उ। ह्रस्वश्च। दर्शनवन्तम् (गविष्टौ) गौरिति वज्रम्। इत्यमरः−२३।२५। यज दाने-क्तिन्। गवां वज्राणां शस्त्राणामिष्टिर्दानं यत्र। संग्रामे (यस्मिन्) इन्द्रे (अर्कः) कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। इति अर्च पूजायाम्-क अर्कः-अन्ननाम-निघ० २।७। अर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतानि-निरु० ५।४। अन्नम् (शिश्रिये) श्रिञ् सेवायाम्-लिट्। आश्रितो बभूव (ओजः) बलम्। पराक्रमः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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