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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मृगारः देवता - वायुः, सविता छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    यः सं॑ग्रा॒मान्न॑यति॒ सं यु॒धे व॒शी यः पु॒ष्टानि॑ संसृ॒जति॑ द्व॒यानि॑। स्तौमीन्द्रं॑ नाथि॒तो जो॑हवीमि॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । स॒म्ऽग्रा॒मान् । नय॑ति । सम् । यु॒धे । व॒शी । य: । पु॒ष्टानि॑ । स॒म्ऽसृ॒जति॑ । द्व॒यानि॑ । स्तौमि॑ । इन्द्र॑म् । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः संग्रामान्नयति सं युधे वशी यः पुष्टानि संसृजति द्वयानि। स्तौमीन्द्रं नाथितो जोहवीमि स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । सम्ऽग्रामान् । नयति । सम् । युधे । वशी । य: । पुष्टानि । सम्ऽसृजति । द्वयानि । स्तौमि । इन्द्रम् । नाथित: । जोहवीमि । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पूर्ण सुख पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (वशी) स्वतन्त्र परमात्मा (संग्रामान्) संग्राम करनेवाले योधाओं को (युधे) युद्ध करने के लिये (संनयति) यथावत् ले चलता है, और (यः) जो (द्वयानि) दो प्रकार की [शारीरिक और आत्मिक] (पुष्टानि) पुष्टियाँ (संसृजति) यथावत् देता है। (नाथितः) मैं भक्त (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवाले परमात्मा को (स्तौमि) सराहता हूँ और (जोहवीमि) बारंबार पुकारता हूँ (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥७॥

    भावार्थ

    जो परमेश्वर सत्यवादी शूरों का जय करता है और वेद द्वारा शरीर और आत्मा का सुख देता है, उसी परमात्मा की उपासना और प्रार्थना से सब मनुष्य पुरुषार्थी होकर कष्टों को निवारें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यः) इन्द्रः परमेश्वरः (संग्रामान्) संग्राम युद्धे-पचाद्यच्। योद्धॄन् (सन्नयति) सम्यक्प्रापयति (युधे) युद्धाय (वशी) स्वतन्त्रः (पुष्टानि) पोषणानि (संसृजति) सम्यग् ददाति (द्वयानि) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। इति द्वि-तयप्। द्वित्रिभ्यां तयस्यायज्वा। पा० ५।२।४३। इति तयस्य अयच्। द्वौ अवययौ यस्य तद्द्वयम्। द्वन्द्वानि। शारीरिकात्मिकानि (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानम्। अन्यद् व्याख्यातम्-सू० २३ म० ७ ॥

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    विषय

    'संग्राम-नेता, गृहप्रणेता' प्रभु

    पदार्थ

    १. (य:) = जो प्रभु (वशी) = सबको वश में करनेवाले हैं और (युधे) = संहार के लिए (संग्रामान सं नयति) = संग्रामों को सम्यक् प्राप्त कराते हैं। (यः) = जो प्रभु (पुष्टानि) = शक्ति से खुब समृद्ध (द्वयानि)= स्त्री-पुंपात्मक मिथुनों को (संसृजति) = परस्पर संसृष्ट करते हैं, उन (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् परमैश्वर्यशाली प्रभु को (स्तौमि) = मैं स्तुत करता हूँ। २. (नाथितः) = वासनाओं से उपतप्त हुआ-हुआ उस प्रभु को ही (जेहवीमि) = पुकारता हूँ। (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहस: मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु ही संग्नामों में हमसे युद्ध कराते हैं। प्रभु ही हमें उत्तम सन्तानों को जन्म देने योग्य बनाते हैं। हम प्रभु का स्मरण करते हैं, प्रभु को ही पुकारते हैं। वे हमें पापमुक्त करें।

    अगला सूक्त भी 'मृगार' ऋषि का ही है =

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    भाषार्थ

    (वशी) सबको वश में रखनेवाला (यः) जो इन्द्र अर्थात् परमेश्वर (युधे) देवासुर युद्ध के लिए (संग्रामान्) देवासुर संग्रामों में (सम्) सम्यक् रूप में (नयति) हमारा नेता बनता है, (यः) और जो (द्वयानि) दोनों अर्थात् देवों और असुरों के (पुष्टानि) परिपुष्ट बलों में (संसृजति) संसर्ग पैदा करता है, उन्हें परस्पर भिड़ाता है, (नाथितः) उस स्वामीवाला मैं [देव] (इन्द्रम् स्तौमि) परमेश्वर की स्तुति करता हूं, (जोहवीमि) और उसे बार बार पुकारता हूँ [सहायतार्थ), (स नो मुञ्चतु अंहसः) वह हमें पापासुर से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    [स्तौमि, जोहवीमि द्वारा, स्तोत्र और आह्वाता एक ही, सबके लिए मंगल कामना करता है।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (यः) जो (वशी) सब पर वश करने हारा, स्वतः, स्वतन्त्र होकर, सेनाओं को जैसे सेनापति (युधे) युद्ध करने के लिये (सं नयति) उचित मार्ग से ले जाता है वैसे ही जो ईश्वर (सम्-ग्रामान्) जनसमूहों को अपने जीवन संग्राम में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाता है, और (यः) जो (द्वयानि) दो दो के जोड़ों को (पुष्टानि) हृष्ट पुष्ट करके सन्तानोत्पद्म करने के लिये (सं-सृजति) तैयार करता है, उस (इन्द्रं) परमेश्वर को मैं (नाथितः) दुःखों से पीड़ित होकर (स्तौमि) स्तुति करता हूं, और (जोहवीमि) बार बार पुकारता हूं (सः नः) वह हमें (अंहसः मुञ्चतु) पाप से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्वितीयं मृगारसूक्तम्। १ शाक्वरगर्भा पुरः शक्वरी। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Freedom

    Meaning

    Who, lord of absolute power and control, guides the forces of natural dynamics to the goal, who creates the two complementarities of nature’s vitality for growth, that Indra, I, self-surrendered, self-controlled, divinely protected, invoke and adore and pray the lord may save us from sin and distress.

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    Translation

    He, who in over-all control, leads the hosts of men for battle; who unites the mature couples together, I praise the resplendent Lord; as suppliant, I invoke Him again and again. As such, may He free us from sin.

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    Translation

    I equipped with strength, praise and describe frequently the properties of Indra which as a best controlling power inspires people for fighting battles and which brings out two kinds of power— the positive and negative. Let it be the source of driving away grief and troubles from us.

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    Translation

    Just as a general leads his army for the battle, so does God give right lead to men for the struggles of life. He grants us physical and spiritual forces. I, His devotee praise Him, and ever call on Him. May He deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यः) इन्द्रः परमेश्वरः (संग्रामान्) संग्राम युद्धे-पचाद्यच्। योद्धॄन् (सन्नयति) सम्यक्प्रापयति (युधे) युद्धाय (वशी) स्वतन्त्रः (पुष्टानि) पोषणानि (संसृजति) सम्यग् ददाति (द्वयानि) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। इति द्वि-तयप्। द्वित्रिभ्यां तयस्यायज्वा। पा० ५।२।४३। इति तयस्य अयच्। द्वौ अवययौ यस्य तद्द्वयम्। द्वन्द्वानि। शारीरिकात्मिकानि (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानम्। अन्यद् व्याख्यातम्-सू० २३ म० ७ ॥

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