Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 24 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मृगारः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    0

    यः प्र॑थ॒मः क॑र्म॒कृत्या॑य ज॒ज्ञे यस्य॑ वी॒र्यं प्रथ॒मस्यानु॑बुद्धम्। येनोद्य॑तो॒ वज्रो॒ऽभ्याय॒ताहिं॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । प्र॒थ॒म: । क॒र्म॒ऽकृत्या॑य । ज॒ज्ञे । यस्य॑ । वी॒र्य᳡म् । प्र॒थ॒मस्य॑ । अनु॑ऽबुध्दम् । येन॑ । उत्ऽय॑त: । वज्र॑: । अ॒भि॒ऽआय॑त । अहि॑म् । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः प्रथमः कर्मकृत्याय जज्ञे यस्य वीर्यं प्रथमस्यानुबुद्धम्। येनोद्यतो वज्रोऽभ्यायताहिं स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । प्रथम: । कर्मऽकृत्याय । जज्ञे । यस्य । वीर्यम् । प्रथमस्य । अनुऽबुध्दम् । येन । उत्ऽयत: । वज्र: । अभिऽआयत । अहिम् । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पूर्ण सुख पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (प्रथमः) मुख्य परमात्मा (कर्मकृत्याय) कर्म करनेवाले के हित के लिये (जज्ञे) प्रगट हुआ है (यस्य) जिस (प्रथमस्य) श्रेष्ठ परमात्मा का (वीर्यम्) सामर्थ्य (अनुबुद्धम्) सर्वत्र जाना गया है। (येन) जिस परमात्मा करके (उद्यतः) उठाये गये (वज्रः) वज्र ने (अहिम्) हनन करनेवाले शत्रु को (अभ्यायत) हनन कर दिया है, (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥६॥

    भावार्थ

    सर्वशक्तिमान् परमेश्वर वैदिक कर्म करनेवालों का सदा आनन्ददायक है, उसी शत्रुनाशक जगदीश्वर की कृपा से हम अपने दोषों को त्याग कर सदा प्रसन्न रहें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यः) इन्द्रः परमेश्वरः (प्रथमः) मुख्यः। श्रेष्ठः। (कर्मकृत्याय) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। इति डुकृञ् करणे-कर्तरि क्यप् तुक् च। कर्मणां कर्तुर्हिताय (जज्ञै) जातवान्। प्रादुर्बभूव (यस्य) (वीर्यम्) सामर्थ्यम् (प्रथमस्य) श्रेष्ठस्य (अनुबुद्धम्) अनुज्ञातम् (येन) इन्द्रेण (उद्यतः) उद्धृतः (वज्रः) दण्डः (अभ्यायत) आङ् पूर्वाद् यमेर्लङि च्लेः सिच्। यमो गन्धने। पा० १।२।१५। इति सिचेः कित्वात्। अनुदात्तोपदेश०। पा० ६।४।३७। इति अनुनासिकलोपः। ह्रस्वादङ्गात्। पा० ८।२।२७। इति सिज्लोपः। अभितः सर्वतोऽहिंसीत् (अहिम्) अ० २।५।५। आहन्तारम्। क्लेशप्रदम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'सर्वकर्ता सर्वशक्तिमान्' प्रभु

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (प्रथमः) = सर्वप्रमुख व सर्वव्यापक [प्रथ विस्तारे] प्रभु (कर्मकृत्याय) = सृष्टि रचनादि कर्मों को करने के लिए (जज्ञे) = प्रादुर्भूत हुए हैं। सृष्टि के बनने से पहले विद्यमान होते हुए जो सृष्टि का निर्माण करते हैं। (यस्य प्रथमस्य) = जिस सर्वव्यापक, सर्वाग्रणी प्रभु का (वीर्यम्) = पराक्रम (अनुबुद्धम्) = प्रत्येक पदार्थ के बोध में जाना गया है। सूर्यादि पिण्डों के अन्दर प्रभु की शक्ति ही तो कार्य कर रही है। २. (येन) = जिस प्रभु से (उद्यत:) = उठाया हुआ (वजः) = वज्र (अहिम्) = वासनारूप शत्र के (अभि आयत) = प्रति गतिवाला होता है। प्रभु ही उपासक के शत्रुभूत काम का हनन करते हैं, (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (अंहसः मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु सृष्टि से पहले होते हुए सृष्टिरूप कर्म करते हैं। सूर्यादि पिण्डों में प्रभु का पराक्रम ही दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रभु ही उपासक की शत्रुभूत वासना को नष्ट करते हैं। ये प्रभु हमें पाप से मुक्त करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यः) जो (प्रथमः) प्रथमकाल से विद्यमान अर्थात् अनादि परमेश्वर (कर्मकृत्याय) सृष्ट्युत्पत्ति आदि कर्मों के करने के लिए (जज्ञे) प्रकट हुआ, (यस्य प्रथमस्य वीर्यम्) जिस प्रथम अर्थात् आदि के बल को (अनुवुद्धम्) सृष्टि आदि की उत्पत्ति के पश्चात् जाना जाता है; (येन) जिस द्वारा (उद्यत: वज्रः) उठाया हुआ वज्र (अहिम्) मेघ या पाप-सर्प की (अभ्यायत१) साक्षात् हिंसा करता है, (स नो मुञ्चतु अंहसः) वह हमें पाप-सर्प से छुड़ाए।

    टिप्पणी

    [जज्ञे= परमेश्वर के सम्बन्ध में प्रयुक्त "जन्" पद प्रकटार्थक होता है, उत्पत्त्यर्थक नहीं, देखो (अथर्व० १३।४ (४)। ३० ३९)।]... [अहि:="मेघः अहिः अयनात्, एत्यन्तरिक्षे। अहिवत्तु खलु मन्त्रवर्णा ब्राह्मणवादाश्च" (निरुक्त २।५।१६)।] [१. अभ्यायत= "अभितः सर्वतः अहिंसीत्। आङ् पूर्वात् यमे: लुङि च्ले: सिच्, अनुनासिकलोपः तथा सिच् लोपः" (सायण)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (यः) जो इन्द्र परमेश्वर (प्रथमः) सब से प्रथम, श्रेष्ठ (कर्म-कृत्याय) इस संसार की रचना करने के लिये (जज्ञे) सब से प्रथम प्रादुर्भूत हुआ एवं मूलकारण रूप में विद्यमान था। और (यस्य) जिस (प्रथमस्य) आदि कारण का (वीर्यं) बल, शक्ति, सामर्थ्य (अनु-बुद्धम्) संसार को देख लेने के बाद विद्वानों ने जाना। (येन उद्यतः) जिससे उठाया गया (वज्रः) वज्र अर्थात् दण्ड (अहिं) सर्प के समान कुटिल पुरुषों पर (अभि-आयत) आकर गिरता है। (सः) वह हमें (अंहसः मुञ्चतु) पाप से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्वितीयं मृगारसूक्तम्। १ शाक्वरगर्भा पुरः शक्वरी। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Freedom

    Meaning

    Who first arose for the act of creation and natural evolution, whose omnipotence is known as the sole divine power, and whose thunder force self-raised strikes the resistent powers with awe, that lord omnipotent, I pray, may save us from sin and distress.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He, who the foremost, has come into existence for leading sacrificial work to completion; whose unrivalled power is known all around: whose lifted up weapon has cut down the mountain; as such, may He free us from sin.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    It is Indra, which comes in manifestation first for the active operation whose valour as the first is awakened, and charged by whom the weapon of lightning destroys the cloud. Let it be the source of driving away grief and troubles from us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May God, Who existed in the beginning as the Efficient Cause for creating the universe, Whose strength, as the First is known universally, Whose severe punishment falls on persons crooked like a snake, deliver us from sin.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यः) इन्द्रः परमेश्वरः (प्रथमः) मुख्यः। श्रेष्ठः। (कर्मकृत्याय) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। इति डुकृञ् करणे-कर्तरि क्यप् तुक् च। कर्मणां कर्तुर्हिताय (जज्ञै) जातवान्। प्रादुर्बभूव (यस्य) (वीर्यम्) सामर्थ्यम् (प्रथमस्य) श्रेष्ठस्य (अनुबुद्धम्) अनुज्ञातम् (येन) इन्द्रेण (उद्यतः) उद्धृतः (वज्रः) दण्डः (अभ्यायत) आङ् पूर्वाद् यमेर्लङि च्लेः सिच्। यमो गन्धने। पा० १।२।१५। इति सिचेः कित्वात्। अनुदात्तोपदेश०। पा० ६।४।३७। इति अनुनासिकलोपः। ह्रस्वादङ्गात्। पा० ८।२।२७। इति सिज्लोपः। अभितः सर्वतोऽहिंसीत् (अहिम्) अ० २।५।५। आहन्तारम्। क्लेशप्रदम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top