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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्य देवता - मेखला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मेखलाबन्धन सूक्त
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    आहु॑तास्य॒भिहु॑त॒ ऋषी॑णाम॒स्यायु॑धम्। पूर्वा॑ व्र॒तस्य॑ प्राश्न॒ती वी॑र॒घ्नी भ॑व मेखले ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽहु॑ता । अ॒सि॒ । अ॒भिऽहु॑ता । ऋषी॑णाम् । अ॒सि॒ । आयु॑धम् । पूर्वा॑ । व्र॒तस्य॑ । प्र॒ऽअ॒श्न॒ती । वी॒र॒ऽघ्नी । भ॒व॒ । मे॒ख॒ले॒ ॥१३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहुतास्यभिहुत ऋषीणामस्यायुधम्। पूर्वा व्रतस्य प्राश्नती वीरघ्नी भव मेखले ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽहुता । असि । अभिऽहुता । ऋषीणाम् । असि । आयुधम् । पूर्वा । व्रतस्य । प्रऽअश्नती । वीरऽघ्नी । भव । मेखले ॥१३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    मेखना बाँधने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मेखले) हे मेखला ! तू (आहुता) यथाविधि दान की गई (असि) है, (ऋषीणाम्) धर्ममार्ग बतानेवाले ऋषियों का (आयुधम्) शस्त्ररूप (असि) है। (व्रतस्य) उत्तम व्रत वा नियम के (पूर्वा) पहिले (प्राश्नती) व्याप्त होनेवाली और (वीरघ्नी) वीरों को प्राप्त होनेवाली तू (भव) हो ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य नियमपूर्वक मेखला से कटि कस कर कर्म करते हैं, वे ही वीर होते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(आहुता) यथाविधि दत्ता (अभिहुता) सर्वतः स्वीकृता (ऋषीणाम्) अ० २।६।१। सन्मार्गदर्शकानाम् (असि) (आयुधम्) शस्त्ररूपा (पूर्वा) आद्या (व्रतस्य) अ० २।३०।२। श्रेष्ठकर्मणः (प्राश्नती) व्याप्नुवती (वीरघ्नी) हन गतौ−क्विप्। वीराणां हन्त्री गन्त्री (भव) (मेखले)−म० १। हे कटिबन्धन ॥

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    विषय

    ऋषीणाम् आयुधम्

    पदार्थ

    १. हे (मेखले) = कटिबन्धभूत मेखले! (आहुता असि) = तू आहुतियों से संस्कृत हुई-हुई है। मेखला-बन्धन के समय किये जानेवाले यज्ञ में दी गई आहुतियों से तू पूजित हुई है, (अभिहुता) = सब ओर तेरी पूजा हुई है [अभिह-to worship] | मेखला आदि प्रतीकों का उसी प्रकार आदर है जैसाकि देश के झण्डे का। तू (ऋषीणाम् आयुधम् असि) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले का [ऋष् to kill] आयुध है। ब्रह्मचारी को वासनाओं का शिकार न होने के लिए प्रतिक्षण कटिबद्ध रखती है। २. प्रत्येक (व्रतस्य) = व्रत के (पूर्वा प्राश्नती) = प्रारम्भ में कटिप्रदेश को व्यात करती हुई हे (मेखले) = मेखले! तू (वीरघ्नी भव) = इन वीर पुरुषों को प्राप्त होनेवाली हो। [हन् गती]।

    भावार्थ

    यज्ञपूर्वक बाँधी गई यह मेखला वासना-विनाशक पुरुषों का आयुध बनती है। प्रत्येक व्रत के पहले हमें प्राप्त होती हुई यह हमें वीर बनाती है।

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    भाषार्थ

    [हे मेखले !] (अभिहुतः) ब्रह्मचारी के प्रति दी गई तू, (आहुता) ब्रह्मचारी की तपसृ-रूपी अग्नि में आहुति रूप हुई है, (ऋषीणाम्) ऋषियों का (आयुधम्) शास्त्र रूप (असि) तू है। (व्रतस्य) ब्रह्मचर्यव्रत के सम्बन्ध में (पूर्वा) पहिले [ब्रह्मचारी को] (प्राश्नती) विशेषतया प्राप्त होती हुई तू (मेखल) हे मेखला ! (वीरघ्नी) वीरों को प्राप्त होने वाली (भव) हो।

    टिप्पणी

    [अभिहुता = अभि + हु (दाने, जुहोत्यादिः)। ऋषि है मन्त्रद्रष्टा तथा मन्त्रार्थद्रष्टा। वेदाविर्भाविकाल में चार ऋषियों को वेद आविर्भूत हुए थे, वे हैं मन्त्रद्रष्टा; तदनन्तर के ऋषि वेदार्थद्रष्टा हैं। ऋषियों का संबंध मन्त्रों अर्थात् वेदों के साथ है। ब्रह्मचर्य काल में ब्रह्मचारी वेदों का स्वाध्याय करते हैं, इसमें बाधक है ब्रह्मचर्य का विप्लुत होना। मेखला का बन्धन उन्हें अविप्लुत ब्रह्मचारी होने के व्रत का स्मरण कराता रहता है, इस दृष्टि से मेखला शस्त्र का काम करती है। प्राश्नती= प्र + अशुङ् व्याप्तौ। व्याप्तिः= वि + आप्तिः (प्राप्तिः)। वीरघ्नी= वीर + हन् (हिंसागत्यो:), यहां गत्यर्थ अभिप्रेत है। गतेः त्रयोऽर्था ज्ञानम्, गतिः, प्राप्तिश्च। वीरघ्नी पद में प्राप्ति अर्थ अभिप्रेत है। वे ब्रह्मचारी वीर हैं जो कि १२ वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन कर ब्रह्मचर्याश्रमरूपी समुद्र से पार हो जाते हैं। शास्त्र अनुसार "द्वादश वर्षाणि प्रतिवेदं ब्रह्मचर्यं गृहाण" का विधान है।]

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    विषय

    मेखला बन्धन का विधान।

    भावार्थ

    हे (मेखले आहुता असि) तू चारों ओर पहनी जाती है और (अभि-हुता अमि) सब ओर से ग्रहण की जाती है और (ऋषीणाम्) मन्त्र द्रष्टा और वेदज्ञानी पुरुषों का (आयुधम् असि) आयुध, पापों के नाश करने का साधन, कामादि शत्रुओं के नाश का हथियार है। अतः (व्रतस्य) ब्रह्मचर्य आदि के व्रत के (पूर्व) पूर्व में ही ब्रह्मचारी के शरीर को (प्राश्नती) व्यापती हुई तू (वीरघ्नी भव) वीर पुरुषगामिनी हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः। मेखला देवता। १ भुरिक्। २, ५ अनुष्टुभौ। ३, त्रिष्टुप्। ४ भुरिक्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (मेखले-आहुता-अभिहुता-असि) हे मेखला, तू मेरे शरीर में आयाम घेराई से गृहीत-कटि में बन्धी है तथा अभिमुख से कौपीन-लंगोटी द्वारा उपस्थ से गुदापर्यन्त बन्धी- है (ऋषीणां आयुधम् असि) ॠषित्व को प्राप्त तथा प्राप्त करने वालो का तू आयुध-शस्त्र कामशत्रु का नाशन साधन (व्रतस्य पूर्वा प्राश्नती वीरघ्नी भव) ब्रह्मचर्य व्रत की प्रमुख प्राप्त कराने वाली और कामवीरों-प्रबल कामवासनाओ को नष्ट करने वाली है "अत्ता हि वीरः" (शत. ४।२।१।६।) ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—अगस्त्यः (अगः) = पाप को त्यागे हुये. अगः - त्यज ' डः, अन्येभ्योपि दृश्यते वा, अन्येष्वपि दृश्यते" (अष्टा० ३।२।१०१) देवता - मेखला (संयमनी रज्जु "कौपीन")

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmachari’s Girdle

    Meaning

    O Girdle of the celibate seeker of knowledge, you are freely elected for and taken on, you are the yajnic oblation of self-sacrifice, you are the inviolable weapon of the sages, you are the fore-mark of the discipline of dedication, the very food and sustenance of life and action, and you are the destroyer of formidable negativities and saviour from sins of omission and commission.

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    Translation

    You are offered; you are praised. You are the weapon of the seers. Having achieved success in the work undertaken previously, may you, O belt, be the slayer of the heroes (among our enemies).

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    Translation

    This girdle is served to celibate with the performance of yajna, this is weapon of the seers, this is the tie which surrounds the student first and let it be obtained or had by the brave children.

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    Translation

    O Zone, worthy of adoration and praise, thou art the armor of the sages against lust. Thou engirdlest the body of the Brahmchari in the beginning of his vow of celibacy. Remain firm in the company of heroic souls.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(आहुता) यथाविधि दत्ता (अभिहुता) सर्वतः स्वीकृता (ऋषीणाम्) अ० २।६।१। सन्मार्गदर्शकानाम् (असि) (आयुधम्) शस्त्ररूपा (पूर्वा) आद्या (व्रतस्य) अ० २।३०।२। श्रेष्ठकर्मणः (प्राश्नती) व्याप्नुवती (वीरघ्नी) हन गतौ−क्विप्। वीराणां हन्त्री गन्त्री (भव) (मेखले)−म० १। हे कटिबन्धन ॥

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