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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्य देवता - मेखला छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मेखलाबन्धन सूक्त
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    मृ॒त्योर॒हं ब्र॑ह्मचा॒री यदस्मि॑ नि॒र्याच॑न्भू॒तात्पुरु॑षं य॒माय॑। तम॒हं ब्रह्म॑णा॒ तप॑सा॒ श्रमे॑णा॒नयै॑नं॒ मेख॑लया सिनामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒त्यो: । अ॒हम् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । यत् । अस्मि॑ । नि॒:ऽयाच॑न् । भू॒तात् । पुरु॑षम् । य॒माय॑ । तम् । अ॒हम् । ब्रह्म॑णा । तप॑सा । श्रमे॑ण । अ॒नया॑ । ए॒न॒म् । मेख॑लया । सि॒ना॒मि॒ ॥१३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृत्योरहं ब्रह्मचारी यदस्मि निर्याचन्भूतात्पुरुषं यमाय। तमहं ब्रह्मणा तपसा श्रमेणानयैनं मेखलया सिनामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृत्यो: । अहम् । ब्रह्मऽचारी । यत् । अस्मि । नि:ऽयाचन् । भूतात् । पुरुषम् । यमाय । तम् । अहम् । ब्रह्मणा । तपसा । श्रमेण । अनया । एनम् । मेखलया । सिनामि ॥१३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    मेखना बाँधने का उपदेश।

    पदार्थ

    (भूतात्) प्राप्त (मृत्योः) मृत्यु से (पुरुषम्) इस पुरुष, आत्मा को (निर्याचन्) बाहिर निकालता हुआ (अहम्) मैं (यमाय) नियम पालन के लिये (यत्) जो (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी, वेदपाठी और वीर्यनिग्राहक पुरुष (अस्मि) हूँ। (तम्) वैसे (एनम्) इस आत्मा को (ब्रह्मणा) वेदज्ञान, (तपसा) तप [योगाभ्यास] और (श्रमेण) परिश्रम के साथ (अनया मेखलया) इस मेखला से (अहम्) मैं (सिनामि) बाँधता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    जो ब्रह्मचारी मेखला के समान शरीर को कसकर शीत उष्ण आदि द्वन्द्व का सहन करके आलस्य आदि मृत्यु को हटाते हैं, वे ही ब्रह्मज्ञान को प्राप्त होते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(मृत्योः) आलस्यरूपमरणात् (अहम्) (ब्रह्मचारी) अ० ६।१०८।२। वेदपाठी वीर्यनिग्रहीता (यत्) (अस्मि) (निर्याचन्) निर्गमयन् (भूतात्) प्राप्तात् (पुरुषम्) अ० १।१६।४। अग्रगामिनमात्मानम् (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (तपसा) योगाभ्यासेन (श्रमेण) शीतोष्णादिद्वन्द्वसहनेन (अनया) उपस्थितया (एनम्) पुरुषम् (मेखलया) (सिनामि) बध्नामि ॥

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    विषय

    [मृत्योः ब्रह्मचारी] ब्रह्मणा, तपसा, श्रमेण, मेखलया

    पदार्थ

    १. आचार्य स्वयं ब्रह्मचारी होता हुआ शिष्य को ब्रह्मचारी बनाता है [आचार्यों ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते], अत: वह कहता है कि-(यत्) = क्योंकि (अहम्) = मैं (मृत्यो:) = आचार्य का [आचार्यों मृत्युः वरुण: सोम ओषधयः पयः] (ब्रह्मचारी अस्मि) = ब्रह्मचारी हैं, अत: मैं भी (भूतात्) = प्राणीसमूह से (पुरुषम्) = एक पुरुष को (यमाय) = यम-नियम आदि के पालन के लिए (निर्याचत) = माँगने का इच्छुक हैं-मैं भी उसे ब्रह्मचारी बनाने का प्रयत्न करता हूँ। २. (तम्) = उसे (अहम्) = मैं ब्रह्मणा-ज्ञान से, (तपसा) = तप से, (श्रमेण) = श्रम से तथा (एनम्) = इस पुरुष को (अनया मेखलया सिनामि) = इस मेखला से बद्ध करता हूँ।

    भावार्थ

    आचार्य को स्वयं ब्रह्मचारी रहकर एक अन्य व्यक्ति को ब्रह्मचारी बनाने की कामना करनी है। उसमें 'ब्रह्म, तप व श्रम' को स्थापित करने का प्रयत्न करना है और उसे मेखला-बद्ध करके दृढ़निश्चयी बनाना है।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (मृत्योः१) मृत्यु का (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (अहम् अस्मि) मैं हूं, (अहम्) वह मैं (यमाय) यम-नियमों के पालन के लिये, (भूतात्) सत्स्वरूप परमेश्वर से (पुरुषम्) पुरुष की (निर्याचन्) याचना करता हुआ, (तम्, एनम्) इस पुरुष को (ब्रह्मणा) वेदाध्ययन द्वारा, (तपसा) तपश्चर्या द्वारा, (श्रमेण) परिश्रम द्वारा तथा (अनया मेखलया) इस मेखला द्वारा (सिनामि) मैं बान्धता हूं, अपने साथ सम्बद्ध करता हूं।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मचर्याश्रम के आचार्य का कथन मन्त्र में है। आचार्य स्वयं भी ब्रह्मचारी है। यथा "आचार्यो ब्रह्मचारी" (अथर्व १९।७(५)।१६)। ब्रह्मचारी, आचार्य है, गृहस्थोत्तर वानप्रस्थी। ब्रह्मचारियों का गुरु भी ब्रह्मचारी हो, यह आदर्श सिद्धान्त है। वह मृत्यु अर्थात् परमेश्वर का ब्रह्मचारी है। परमेश्वर को वह निज गुरु मानता है। आश्रम के चलाने में पथदर्शक मानता है। मृत्यु है परमेश्वर यथा " स एव मृत्यु सोऽमृतं सोऽभ्वं स रक्षः" (अथर्व० १३। अनुवाक ४। पर्याय ३। मन्त्र ४ [२५])। भूतात्= भू सत्तायाम् + क्तः (कर्तरि), भूतः= भवति, सत्तावान् इति। परमेश्वर सत्तावान् है, सत्स्वरूप है। पुरुषम्= इसके दो अभिप्राय हैं, (१) यह युवा है, युवावस्था का भी ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्याश्रम में प्रविष्ट हो सकता है, (२) यह आश्रम पुरुषों का है। पुल्लिङ्ग ब्रह्मचारियों के लिये है, कन्याओं के लिये नहीं। कन्याओं के लिये आश्रम पृथक् चाहिये। इसलिये मन्त्र में "पुरुषम्" पद पठित है।] [१. देखो नचिकेता और मृत्यु का संवाद (कठ-उपनिषद्)।]

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    विषय

    मेखला बन्धन का विधान।

    भावार्थ

    (यत्) क्योंकि (अहम्) मैं (मृत्योः) आदित्य के समान प्रकाशवान् ज्ञानी पुरुष का अज्ञान के बन्धन से मुक्त करने वाले आचार्य का (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी हूँ इसलिये (भूतात्) इस पन्चभूत के बने देह से (यमाय) उस ब्रह्म सर्वनियन्ता परमेश्वर की प्राप्ति के लिए (पुरुषम्) देहपुरी के वासी आत्मा को (निर्याचन् अस्मि) मुच करने के यत्न में हूँ। हे आचार्य ! ऐसे (तम्) उस (एनम्) इस आत्मा को (अहम्) मैं शिष्य (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेदोपदेश से, (तपसा) तपसे, (श्रमेण) श्रम से और (अनया मेखलया) इस मेखला से (सिनामि) बांधता हूँ। स एष आदित्यो मृत्युः। श० १०। ५। १। ४। अग्निर्मृत्युः॥ कौ० १३। ३॥ योऽग्निर्मृत्युः सः॥ जै० ३०। १। २५। ८॥ अथवा—(अहम्) मैं आचार्य ब्रह्मचारी स्वयं ब्रह्मचारी होकर (पुरुषं यमाय भूतात् मृत्योः निर्याचन् अस्मि) इस पुरुष को यमनियम पालन कराने के निमित्त, भूत अर्थात् निश्चित मृत्यु से छुड़ा देता हूँ। इसी निमत्त (ब्रह्मणा तपसा श्रमेण अनया मेखलया च श्रहं सिनामि) वेद, व्रत, तप, श्रम और इस मेखला से पुरुष को बाँधता हूँ और दीक्षित करता हूँ। इस प्रकरण को देखो। गोपथ पू० २। १॥ तथा जै० उ० १। २५। ८॥ तदनुसार प्रकाशस्वरूप परब्रह्म—समुद्र उसके तीन रूप हैं शुक्ल, कृष्ण और पुरुष। शुक्लरूप = वाणी और अग्नि। कृष्णरूप = आपः, मन या अन्न और यजुः। पुरुष रूप = प्राण, साम, ब्रह्म, अमृत।

    टिप्पणी

    स एष आदित्यो मृत्युः। श० १०। ५। १। ४। अग्निर्मृत्युः॥ कौ० १३। ३॥ योऽग्निर्मृत्युः सः॥ जै० ३०। १। २५। ८॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः। मेखला देवता। १ भुरिक्। २, ५ अनुष्टुभौ। ३, त्रिष्टुप्। ४ भुरिक्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यमाय-भूतात्-पुरुषं निर्याचन्) सर्वनियन्ता परमात्मा के लिये उसके समर्पण के लिये उसकी प्राप्ति के लिये-भौतिकदेह से आत्मा को पृथक् करने के हेतु (अहं मृत्योः-यत्-ब्रह्मचारी-अस्मि ) मैं मृत्यु का ही ब्रह्मचारी हूं गृहस्थाश्रम का ब्रह्मचारी नहूंगा-मृत्युपर्यन्त ब्रह्मचारी रहूंगा (अहं तम्-एन-ब्रह्मणा-तपसा श्रमेण) मैं उस मृत्यु को ब्रह्मचारी-वेदाध्ययन से-तप से-कर्म से (अनया मेखलया सिनामि) और इस मेखला संयमनी द्वारा स्ववश करना हूं ॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—अगस्त्यः (अगः) = पाप को त्यागे हुये. अगः - त्यज ' डः, अन्येभ्योपि दृश्यते वा, अन्येष्वपि दृश्यते" (अष्टा० ३।२।१०१) देवता - मेखला (संयमनी रज्जु "कौपीन")

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmachari’s Girdle

    Meaning

    Brahmachari as I am, a dedicated celibate student of life and death, I ask of ever existent Death for one person, one soul, away for Yama, a life of discipline and education, and that one person I bind with Brahma, divine knowledge, hard discipline, hard labour and this girdle, the mark of discipline and dedication to life against the onslaught of death.

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    Translation

    I, who am the disciple of death, begging from people, a man for the controller (death). That man I bind fast to knowledge, to austerity, and to hard labour with this belt.

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    Translation

    I, the preceptor am the celibate student of death, the formidable God, drawing away the student from the physical death hand over him to God who is the ordainer of all. I engirdle him with this engirdle with the inspiration of Vedic study, austerity and labor.

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    Translation

    As I am the Brahmchari of my learned preceptor, my releaser from ignorance, I am making an effort to free my soul from this body for the acquisition of God. O preceptor, I, thy pupil, bind this soul with prayer, austerity, fervour and this girdle.

    Footnote

    Brahmchari: Pupil Binding the soul means making it fit and efficient to fulfill the vow of celibacy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(मृत्योः) आलस्यरूपमरणात् (अहम्) (ब्रह्मचारी) अ० ६।१०८।२। वेदपाठी वीर्यनिग्रहीता (यत्) (अस्मि) (निर्याचन्) निर्गमयन् (भूतात्) प्राप्तात् (पुरुषम्) अ० १।१६।४। अग्रगामिनमात्मानम् (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (तपसा) योगाभ्यासेन (श्रमेण) शीतोष्णादिद्वन्द्वसहनेन (अनया) उपस्थितया (एनम्) पुरुषम् (मेखलया) (सिनामि) बध्नामि ॥

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